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सेनापति शेट्टी

07 Sep, 2020 | Archival Reproductions by Cinemaazi
Image Courtesy: Madhuri

फिल्मी ढिशुंग ढिशुंग...
जी हां ! यह भी एक कला है...
गोलीचालन हो, चाहे हाथापाई
बाक्सिंग हो, चाहे लाठी की लड़ाई 
फिल्मों के इस रोमोचक पहलू को 
संवारते रहे हैं सेनापति  शेट्टी
 
विशालकाय, बलिष्ठ देह, स्थिर और गंभीर सिंहगति, लौह पुरुष, युद्ध संयोजक, सेनापति शेट्टी ! क्या हुआ? आप किस सोच में पड़ गये? डरिये मत? मैं आप को इतिहास के किसी सिंहसेनापति की कहानी नहीं सुना रहा हूँ। मैं तो हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध फाइटर और फाइट-कंपोजर शेट्टी के बारे में बता रहा हूँ।

रणजीत स्टूडियो में एक फिल्म के सेट पर इनसे मेरी भेंट हुई और इनका इंटरव्यू लेने के लिए मैंने किसी सुविधाजनक समय की मांग की तो उसी दिन बड़ी खुशी से तैयार हो गये। फिर क्या था? झड़ी लग गयी सवाल-जवाबों की?

नाम? मुद्दू बाबू शेट्टी (एम.बी. शेट्टी) जन्म? मैसूर राज्य के मंगलौर शहर में! 1955-56 में ये फिल् क्षेत्र में आये। इससे पूर्व तीन साल तक लगातार बंबई के बाक्सिंग-चैंपियन रहे। ऐसे ही एक बाक्सिंग बुकाबले में उस समय के मशहूर फाइटर बाबूराव पहलवान तथा निर्माता, निर्देशक व हास्य कलाकार भगवान दादा की नजर इन पर पड़ी और इन्हें जागृति स्टूडियो (अब आशा स्टूडियो) आने के लिए कहा गया।
 
हिंदुस्तानी फाईटिंग के बारे में आप का क्या खयाल है, और हमारी हिंदी फिल्मों में हिंदुस्तानी फाइटिंग क्यों नहीं होते?

हिंदुस्तानी फाइटिंग बहुत अच्छी है, मगर उसे सोखने के लिए मेहनत ज्यादा करनी पड़ती है। कुश्ती में भी हिंदुस्तानी कुश्ती ही असली कुश्ती है। और लाठी-फाइटिंग लाजवाब चीज है, जिसमें एक आदमी बड़ी आसानी से दस-बीस आदमियों को गिरा सकता है। और जहां तक आप ने हिंदी फिल्मों के बारे में पूछा, उनमें हिंदुस्तानी-फाइटिंग, खास कर लाठी-फाइटिंग को अच्छा मौका नहीं मिल पाता। ज्यादातर कहानियों में हैंड-फाइटिंग की गुंजाइश ही ज्यादा होती है। दूसरे, हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में बहुत ही कम कंपोजर ऐसे है जो वाकई हिंदुस्तानी फाइटिंग जानते हैं।
 
वैसे आप...?

मैं विदेशी व हिंदुस्तानी-सभी तरह की फाइटिंग अच्छी तरह जानता हूँ। खास तौर से लाठी-फाइटिंग। मगर मुझे सब से पसंद है बाक्सिंग।
 
अच्छा शेट्टी साहब, फाइटिंग के लिए जिस्मानी ताकत की ज्यादा जरूरत है या फुर्ती की, या अक्ल की?

ताकत की जरूरत तो है ही, पर उस से भी ज्यादा दिमाग की जरूरत है। अक्ल का महत्व सब से ज्यादा है, सहनशक्ति की जरूरत, अच्छे कैरेक्टर की जरूरत है।
शुरू से ही फाइटिंग मेरा शौक रहा है।
 
फाइटिंग को आप मनोरंजन कह सकते हैं?

जरूर! फाइटिंग बिल्कुल पुराने जमाने से ही हर देश में लोगोंको मनोरंजन करता आ रहा है। इतना ही नहीं मैं तो यहां तक कह सकता हूँ कि फाइटिंग ही इनसान का सब से पहला मनोरंजन है।
 
क्या यह पाशविक प्रवृत्ति नहीं है? आखिर फिल्मों में मारधाड़ दिखाना कहा तक वाजिब है?

अपनी रक्षा के लिए लड़ना या किसी माँ, बहन, बीवी और बेटी की इज्जत बचाने के लिए लड़ना पशुता नहीं, बहादुरी है। कायरता इससे अच्छी बात कभी नहीं हो सकती। माना कि झगड़ा करना अच्दी बात नहीं, लेकिन अगर वह सिर पर ही आ जाये तो उससे भागना अहिंसा नहीं है। कमजोरी का नाम अहिंसा नहीं। अहिंसा ताकतवर की जीत है।
 
तो क्या फिल्मों में फाइटिंग रहनी चाहिए?

वह कहानी के हिसाब से रहनी चाहिए। जबरदस्ती ठूंसी हुई नहीं।
 
कौन से दर्शक फाइटिंग को ज्यादा पसंद करते है?

छोटे बच्चे, स्कूल-कालेज के लड़के-लड़कियां, और थोड़े-से पैसे वाले लोग जो बहुत अच्छी क्सिम की फाइट को पसंद करते हैं।
 
फाइटिंग का फिल्म के बाक्स आफिस पर असर पड़ता है। क्या इसीलिए निर्माता इसे फिल्म में रखते हैं या इसे वाकई वे एक आर्ट समझते हैं?

बाक्स आफिस की वजह से!
 
सामाजिक व कामेडी फिल्मों में भी लोग फाइटिंग रखते हैं। क्या यह ठीक है? अगर अलग से एक फाइटिंग फिल्म ही बने तो कैसा रहे।

सामाजिक व कामेडी फिल्मों में भी फाइटिंग रखना ठीक है, क्योंकि एक फिल्म के लिए सभी चीजों के समन्वय की जरूरत होती है और इसलिए अगर पूरी फिल्म फाइट पर बनेगी तो वह भी नहीं चलेगी, क्योंकि अकेली फाइटिंग से फिल्म नहीं चलती।
 
आप तो फाइटर, फाइट-कंपोजर व आर्टिस्ट-तीनों ही काम फिल्मों में करते हैं, मगर तीनों में से आप को कौन-सा काम सब से ज्यादा पसंद है?

मुझे सब से ज्यादा कंपोजर का काम पसंद है। उसके बाद आर्टिस्ट का और अंत में जाकर फाइटर का। कंपोजर का इसलिए कि मुझे एक दिन डायरेक्टर बनना है।
 
अगर आप को पूरी तरह से अर्टिस्ट का- अभिनेता का काम मिले तो आप करना पसंद करेंगे?

जरूर करूंगा। क्योंकि मैं एक कलाकर पहले हूँ, एक फाइटर बाद में।
 
फाइट-कंपोजिंग में क्या क्या कठिनाइयां आती है और एक अच्छे फाइट कंपोजर के लिए किन बातों की जरूरत है?

फाइट कंपोजिंग में बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है। चोट लगने का बहुत डर रहता है। अक्सर एक्सीडेंट हो जाया करते है, क्योंकि कभी कभी बहुत खतरनाक सीन करने पड़ते हैं।
एक अच्छे फाइट कंपोजर को सहनशक्ति की जरूरत पड़ती है। उसे एक स्कूल मास्तर की तरह शांति से, ठंडे दिमाग से काम लेना चाहिए। कुछ को समझते बड़ी देर लगती है। वैसे तो मुझे किसी से भी कभी बहुत परेशानी नहीं हुई, इनमें से ज्यादातर तो मेरी बात जल्दी समझ जाते हैं। पर इनमें भी शम्मी कपूर, विनोद खन्ना, धर्मेन्द्र, संजयशशि कपूर का जिक्र करना जरूरी है। शम्मी कपूर की सब से ज्यादा फिल्में मैंने की है- 'गुलसनोबर' से लक कर 'अंदाज' तक। एक रिहर्सल उसे बहुत हो जाती है। शुरू से ही हम साथ रहे हैं मैं बारह साल पापाजी के पास रहा जो मेरे पिता के समान थे। और शशि कपूर को तो मैं अपने बच्चे की तरह प्यार करता हूँ। वह भी बहुत अच्दा फाइटर और बहुत बड़ा एक्टर हैं। धर्मेन्द्र भी बहुत अच्छा फाइटर है, और बचा विनोद खन्ना ! एक फाइट कंपोजर के नाते मैं विनोद खन्ना के बारे में इतना कह सकता हूँ कि वह सब से अच्छा फाइटर है। वह जितना अच्छा कलाकर है, उतना ही अच्छा फाइटर भी।
 
एक डेढ़ पसली हीरो से पिट कर आप को कैसा लगता है? 

चलता है साहब ! सब रोजी की वजह से। पर सभी यह भी जानते हैं कि सब कुछ नकली है।
 
आप के विचार से कौ कौन-सी अच्छी 'फाइट फिल्मे' बनीं जो आप को पसंद आयीं?

बाबू राव पहलवान के समय में कुछ अच्छी फाइट फिल्में बनी थीं।
 
आप की सब से अच्छी फिल्म कौन-सी थी?

एक कलाकर को अपनी सभी कलाकृतियों से अपने बच्चों का-सा प्यार हो जाता है। किसी को कम-ज्यादा नहीं कहा जा सकता।
 
फिल्म फाइटिंग एक अलग आर्ट है, क्या यह कहीं सिखायी जाती है, या सिखायी जान चाहिए?

फाइटिंग सिखाने के लिए दूसरी कलाओं की तरह कोई प्रबंध नहीं है। लोग पूराने फाइटरों से ही फाइटिंग सीखते हैं, खुद मैंने बाबूराव पहलवान से फाइटिंग सीखी थी, मैं तो कहता हूँ फाइटिंग सिखाने के लिए भी 'पूना फिल्म इंस्टीट्यूट' जैसी संस्थाएं होनी चाहिएं, जहां अच्छी तरह फाइटिंग सिखायी जा सके।
 
आप के खयाल में इसमें किन किन सुधारों की जरूरत है?

भरपूर सुविधाएं मिलनी चाहिएं, अधिक समय मिलना चाहिए, अच्छा सैट मिलना चाहिए, जिस पर फाइटिंग के लिए पूरी जगह व सुविधा हो; अधिक से अधिक रिहर्सलें मिलनी चाहिएं, कलाकारों का पूरा सहयोग मिलना चाहिए और फाइटिंग-स्क्रिप्ट बननी चाहिए।
 
क्या फाइटर व फाइट-कंपोजर आज उपेक्षित रह गये है? आप को क्या लगता है?

जी हां ! उन्हें वह इज्जत नहीं मिलती जो मिलनी चाहिए। उचित पारिश्रमिक भी नहीं मिलता और उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं मिलती। उन्हें उचित सम्मान मिलना चाहिए काम मिलना चाहिए।
 
तो फिर शेट्टी साहब, आप को इतनी लोकप्रिय कैसे मिली जो आप से पहले भी और आज भी किसी और फाइट-कंपोजर को हासिल न हो सकी?

इस बारे में मैं क्या बता सकता हूं साहब... मैं तो बस इतना ही कह सकता हूँ कि मैं हमेशा लगन से काम करता हूँ। और चाहता हूँ कि अपनी पूरी कोशिश से अच्छे से अच्छा काम करूं। साथ ही मैंने एक स्टैंडर्ड बनाने की कोशिश की है और अपने उचित अधिकारों की मांग भी की है।
 
आप की फिल्मी जिंदगी की कोई ऐसी घटना बनाइए, जिसकी याद आज भी ताजा हो।

फिल्म 'कैदी नंबर 911' की बात मुझे याद है। दो छतें पचास पचास फुट ऊंची थी और दोनों के बीच में सोलह फुट का फासला। एक छत पर डेजी इरानी के साथ हीरालाल और दूसरी छत पर (शेख मुख्तार के डुप्लीकेट के रूप में) मैं ! मुझे एक छत से छलांग लगा कर हवा में बच्चे को पकड़ कर दूसरी छत पर जाना था। थोड़ा सा भी चूक गया कि बच्चे समेट मैं पचास फुट नीचे ! मुझ से भी ज्यादा बच्चे की जिंदगी का सवाल था उस दिन! मुझे बहुत डर लगा था और मैंने भगवान से प्रार्थना की थी कि भगवान मेरी इज्जत रख लेना, मुझे चाहे कुछ भी हो जाये, मगर बच्चे को आंच न आने पाये... और भगवान ने मेरी लाज रख ली। वह घटना में कभी नहीं भूल सकता।
 
(शरारत के अंदाज में मेरा एक प्रश्न और) एक सवाल और पूछूं अगर आप बुरा न माने...?

जरूर जरूर! मैं क्यों भला बुरा मानूं?
 
देखिए... आप की घुटी चांद का क्या राज है? क्या अंगेजी फिल्मों के प्रसिद्ध कलाकार युल ब्रिनर की स्टाइल पर आप ने ऐसा किया है?

(और ठहाका लगाते हुए उनका उत्तर): नहीं हुजूर ! ऐसी कोई बात नहीं है। न यह मेरा कोई स्टाइल है और न ही इसमें कोई राज है। हुआ यह था कि 'इविनिंग इन पैरिस' फिल्म के वक्त शक्ति सामंत साहब ने मुझ से कहा कि, तुम्हें एक अच्छा रोल दूंगा। तुम अपना सिर घुटा दो। बस मैंने अपना सिर घुटा दिा। यह पिक्चयर तीन चार साल तक बनती रही। इसी बीच और भी कई फिल्मों में मुझे ऐसे रोल मिलं। और इन तीन चार सालों में मुझे इस घूटी चांद की ऐसी आदत पड़ गई कि अब सिर पर बाल बरदाश्त ही नहीं होते। कई बार विग लगा कर काम करता हूँ तो भी गर्मी बरदाश्त नहीं होती, वरना मुझे बाल तो बहुत अच्छे लगते हैं। कई बार बच्चे भी जिद करते हैं, कहते हैं- पापा सब आप को 'टकला' कहते हैं तो हमें अच्छा नहीं लगता। उनकी बात सुन कर अच्छा नहीं लगाता। पर अब रख ही नहीं पाता...
 
 
- देवदास 'बिस्मिल'

This is a reproduced article from Madhuri magazine.

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