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क्या हिंदी फिल्मों से हास्य गायब हो रहा है?

01 Aug, 2022 | Archival Reproductions by Cinemaazi
Kishore Kumar & Mehmood

हास्य फिल्मों का इतना अच्छा देशी और विदेशी बाज़ार होते हुए भी क्या कारण है कि हमारे निर्माता-निर्देशक हास्य कथा पेश करने से कतराते रहते हैं? .... एक निर्मम विश्लेषण.
हास्य फिल्मों का इतना अच्छा देशी और विदेशी बाज़ार होते हुए भी क्या कारण है कि हमारे निर्माता-निर्देशक हास्य कथा पेश करने से कतराते रहते हैं ? .... एक निर्मम विश्लेषण.

फिल्मों का प्रमुख लक्ष्य मनोरंजन प्रदान करना है. फिल्म एक व्यापक माध्यम वाला क्षेत्र है जिसे साधारण आदमी से लेकर प्रबुद्ध वर्ग के लोग भी आसानी से स्वीकार करते हैं. इस माध्यम की पहुंच और प्रभाव इतना गहरा है कि उसका असर हमारे जीवन के आचार-विचार पर सीधा पड़ता है.

लेकिन यदि पिछले कुछ वर्षों में प्रदर्शित हुई फिल्मों पर गौर करें तो हम पायेंगे कि जीवन के बहुत ही महत्वपूर्ण घटक-हास्य-को उसके सही स्थान से वंचित कर दिया जाता रहा है. महत्त्वहीन समझा जाता रहा है. ऐसा क्यों हुआ है? क्या हम इतने अधिक निराशावादी हो गये हैं? क्या जीवन की कठोरता हम पर इतनी अधिक हावी हो गयी है कि हम हंसी मात्र के लिए तरस गये हैं.
 
बहुत सारे प्रश्न हमारे मन में उभरते हैं जब हम आज की हिंदी फिल्मों को देखते हैं. दूसरी तरफ जीवन के एक एक अंश में, एक एक क्रिया में हास्य का खजाना भरा पड़ा है. हम चाहे तो अपना जीवन हंसी हंसी में गुजार सकते हैं.
रोजमर्रा की ज़िंदगी में आनेवाली आम समस्याओं, उलझनों में फंसते हुए इस युवक को देख दर्शक अपनी असली ज़िंदगी को याद करते हैं और फिर उन छोटी छोटी उलझनों से पैदा होते हुए हास्य का खूब स्वागत करते हैं.
एक जमाना था जब फिल्मों मे ’हास्य’ की एक उपकहानी होती थी जो नायक और नायिका की तरह महत्वपूर्ण मानी जाती थी. दर्शकों ने अक्सर ऐसी फिल्मों को नकारा है, जिनमें उन्हें हास्य रस भरी कोई घटना या कहानी नजर नहीं आयी. इसी कारण उस युग में कई हास्य कलाकारों की जोड़ियां मशहूर हुई थी. महमूद और शुभा खोटे, महमूद और अरुणा ईरानी...

परंतु इस दौर तक आते आते जोड़ियां टूटनी शुरू हो गयीं. और आज यह हालत है कि कोई हास्य अभिनेता या अभिनेत्री हिंदी फिल्मों में अपने लिए निश्चित नहीं है.

रोजमर्रा की ज़िंदगी में आनेवाली आम समस्याओं, उलझनों में फंसते हुए इस युवक को देख दर्शक अपनी असली ज़िंदगी को याद करते हैं और फिर उन छोटी छोटी उलझनों से पैदा होते हुए हास्य का खूब स्वागत करते हैं.
 
Amol Palekar
 
अपने बिंदास बर्ताव से अनजाने ही हास्य पैदा करनेवाला अमोल  ’रजनीगंधा’  में मिला था- अपनी प्रेमिका को बाहों में भरते हुए दफ्तर के प्रतिस्पद्र्धी रंगराजन को याद करनेवाला संजय!  

हर बार अपने स्थायी भाव-झेंप का शिकार हो, हास्य पैदा करनेवाला ’छोटी सी बात’ का नायक और ठीक नयी नौकरी पर जाॅयन होने के दिन ही सफेद पैंट पर कीचड़ का धब्बा लिये जाने की मजबूरी, परेशानी उठानेवाला ’दामाद’ का शरद- अमोल की इस इमेज में आम आदमी को न केवल आइने में अपनी सूरत दिखायी दी है, बल्कि अपनी रोजमर्रा की उलझनों पर भी हंसना सिखाया है...
 
जिस हास्य को निर्माता निर्देशक अपनी फिल्म के लिए एक आवश्यक घटक समझते थे वह एकाएक गायब होने लगा, क्यों? आज हास्य अभिनेता या अभिनेत्रियां छोटे मोटे काम करने के लिए तरसे जाते हैं.
राज कपूर ने अपनी कई फिल्मों में हास्य का मजबूत सहारा लेकर जीवन की त्रासदी को छूने का प्रयास किया. काफी हद तक वे चार्ली चैपलिन के सिद्धांतों एवं उनकी शैली से प्रभावित रहे हैं और उन्हें भारतीय रंग रूप में प्रस्तुत करने में भी काफी हद तक सफल हुए हैं. ’आवारा’ में उन्होंने एक एकाकी, अभावग्रस्त, बेघर, बेसहारा, मगर फिर भी मस्तमौला, मनमौजी चरित्र का निर्माण किया और फिर इस चरित्र की इन्हीं खासियतों को अन्य फिल्मों में विभिन्न चरित्रों में पिरोते रहे. निर्माण चाहे उनका अपना हो या न हो. इस कदर पिरोते रहे कि घुमा फिराकर वह चरित्र ’एक वही चरित्र’ बनता रहा. ’जिस देश में गंगा बहती है’ का राजू हो, ’चोरी चोरी’ का वह रिपोर्टर हो, ’छलिया’ का सहृदय गुंडा हो, ’अनाड़ी’ का बेरोजगार युवा हो, ’दूल्हा दुल्हन’ का कल्लू कव्वाल हो...
 
Raj Kapoor

जिस हास्य को निर्माता निर्देशक अपनी फिल्म के लिए एक आवश्यक घटक समझते थे वह एकाएक गायब होने लगा, क्यों? आज हास्य अभिनेता या अभिनेत्रियां छोटे मोटे काम करने के लिए तरसे जाते हैं.

यह कहा जाता है कि हमारे फिल्म लेखक, निर्देशक और निर्माता अक्सर विदेशी फिल्मों की नकल करते रहते हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो उसी ढर्रे की फिल्में बनाते रहते हैं जो वहां सफल होती हैं. मारधाड़ या हिंसात्मक दृश्यों वाली, या प्रणय-कथाओं वाली फिल्मों के अलावा विदेशों में हास्य फिल्मों का एक अपना अलग वर्ग है. वहां हास्य कथाओं को उपकहानी के रूप में न लेकर, हास्य कथा को पूर्णतया मूख्य कथा के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. कई बार तो ’सीरीज’ में बनायी जाती हैं. अधिकांश हास्य फिल्में वहां सफल होती हैं. और तो और, हमारे यहां भी जब वे फिल्में लगती हैं तो सफलता के अंतिम सोपान तक जाती हैं. 

विदेशी हास्य फिल्मों का इतना अच्छा देशी और विदेशी बाजार होते हुए भी क्या कारण है कि हमारे निर्माता निर्देशक हास्य कथा पेश करने से कतराते रहते हैं. ’चलती का नाम गाड़ी’ जैसी फिल्मों के चंद उदाहरणों के अलावा शायद ही कोई वर्ष ऐसा रहा हो जब हास्य फिल्म बनायी गयी हो. 
 
Sanjeev Kumar
आज के हास्य कलाकारों की आम शिकायत यही है कि संजीव, धरम जैसे नायक जब खुद ही हास्य कलाकार का काम करने लग गये हैं, तब हमारे लिए करने को बचा ही क्या?
रोपी नंबर 1, आरोपी नंबर 2! आज के हास्य कलाकारों की आम शिकायत यही है कि  संजीव,  धरम  जैसे नायक जब खुद ही हास्य कलाकार का काम करने लग गये हैं, तब हमारे लिए करने को बचा ही क्या?  सबूत के रूप में पेश हुई हैं  ’मन चली’, 'पति पत्नी और वह’, ’स्वर्ग नरक’, ’चुपके चुपके’, ’दिल्लगी’ कई ऐसे हास्य प्रसंग जिनमें ये दोनों हास्य कलाकार के रूप में उभरे.
 
अलबत्ता राज कपूर ने हास्य की जो शैली अपनायी वह जरूर उल्लेखनीय है. उन्होंने अपनी कई फिल्मों में हास्य का मजबूत सहारा लेकर जीवन की त्रासदी को छूने का प्रयास किया. परंतु वैसी फिल्मों का भी समय समाप्त हो गया. दिलीप कुमार का हास्य भी कुछ फिल्मों में उजागर हुआ परंतु वह त्रासदी में जाकर खो गया.
 
शम्मी कपूर को लेकर हल्की कुल्फी प्रणय कथाओं में हल्का फुल्का हास्य पिरोया जाता रहा. मगर उनका हास्य उछलकूद तक ही सीमित होकर रह गया. हमारे यहां उच्च कोटि के हास्य अभिनेताओं की कमी नहीं. इसके बावजूद क्या कारण है कि शुद्ध हास्यरस से भरपूर फिल्म बनाने का खतरा उठानेवाले फिल्मकार नहीं के बराबर हैं. जहां हजारों फिल्में करोड़ों के बजट पर बनती हैं, वहां साल में एक आध फिल्में भी ऐसी क्यों नहीं बनायी जातीं जिनमें केवल हंसी हो - नितांत हंसी. बस, और कुछ नहीं...
 
Dilip Kumar
 
जहां हजारों फिल्में करोड़ों के बजट पर बनती हैं, वहां साल में एक आध फिल्में भी ऐसी क्यों नहीं बनायी जातीं जिनमें केवल हंसी हो - नितांत हंसी. बस, और कुछ नहीं...

दयनीय हास्य
अक्सर इन सवालों के जवाब में दोष सारा का सारा दर्शकों पर डाला जाता हैं. फिल्मकारों की यह धारणा बन बयी है कि हमारे दर्शक हास्य फिल्में स्वीकार नहीं करते. यदि इसकी गहराई से खोज की जाय तो हम स्वयं पाते हैं कि यह धारणा निराधार है. क्योंकि जब कभी भी किसी फिल्मकार ने (चाहे वह राज कपूर हो, या सत्येन बोस, या मेहमूद या देवेंद्र गोयल) अच्छी हास्य रस से भरपूर फिल्म बनायी हो दर्शकों ने खुले दिल से उसे स्वीकारा है.

वस्तुतः दोष दर्शकों का नहीं है. लेकिन तथ्य तो यह है कि यही दर्शक विदेशी हास्य फिल्मों को देख कर हास्य फिल्मों का एक स्तर निर्धारित कर चुका है और जब भारतीय फिल्मकार उस स्तर से लचर या भोंडी हास्य फिल्म बनाता है तो दर्शक उसे नकार देता है. और यह होना भी चाहिए क्योंकि हास्य का अपना एक स्तर होना चाहिए. खोखले हास्य पर हंसी नहीं, तरस आता है. शायद यही कारण है कि दर्शकों की अस्वीकृति को हमारे फिल्मकार दोष मढ़ने के लिए सहारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं.
’हास्य’ ऐसा तथ्य है, जिसे दोहराया नहीं जा सकता. एक हास्य फिल्म के सफल होते ही हमारे फिल्मकार उसी ढर्रे पर चलने लगते हैं और हास्यास्पद बन हाते हैं...
सरी बात हमारे फिल्मकारों में एक अपना जन्मजात सा दोष है- वह किसी भी एक फिल्म के हिट हो जाने पर (’चलती का नाम गाड़ी’ या ’विक्टोरिया नं. 203’)- उसी ताल और लय पर दूसरी फिल्म बना कर दर्शकों के सामने रख देते हैं. यह अपने आप में ’दोहराने’ की क्रिया मात्र है. जबकि हास्य ऐसा तथ्य है जिसे दोहराया नहीं जा सकता है, हमारे फिल्मकार इसी को स्वीकारते नहीं. वे बस, एक ही ढर्रे की फिल्म को लेकर चल पड़ते हैं. दूसरी फिल्मों के मामले में फार्मुलेबाजी सफल होती है परंतु हास्य फिल्मों के मामले में यह सही साबित नहीं होती है. अतः निर्माताओं आदि को चाहिए कि वे ’हास्य’ की सही नब्ज को पकड़ें और घिसी पिटी हास्य कहानियों से उबरकर जीवन के हर कण कण में बिखरे हास्य को बतोरकर दर्शकों के सामने लायें... तब शायद दर्शक उन्हें अस्वीकार नहीं करेगा.

’हास्य’ ऐसा तथ्य है, जिसे दोहराया नहीं जा सकता. एक हास्य फिल्म के सफल होते ही हमारे फिल्मकार उसी ढर्रे पर चलने लगते हैं और हास्यास्पद बन हाते हैं...
 
Dharmendra

सीमाबद्ध हास्य
उपर्युक्त बात को बासु चटर्जी ने शायद ठीक प्रकार से समझा और अपनी फिल्मों के सहारे वे दर्शकों का एक समूह तैयार करने में सफल हो गये. परंतु वे भी अब अतिरंजना के शिकार हो रहे हैं और अपने आपको दोहराने लगे हैं... तब शायद उन्हें भी दर्शक वर्ग अस्वीकार कर देगा.

हमारे फिल्म संसार में हास्य को सीमा प्रदान कर दी गयी है अर्थात् दो अर्थोंवाले संवादों, जोकरों जैसे कपड़ों, बेवकूफी भरी कार्यकलापों और अश्लीलता भरे हावभावों को ही हमारे फिल्मकार हास्य समझ बैठे हैं जबकि ऐसा नहीं हैं. यह हास्य का निम्नतम दर्जा है जिससे दर्शकों के मन में एक प्रकार की वितृष्णा मात्र उत्पन्न होती है न कि हंसी.
करोड़ों की बजटवाली फिल्में बनानेवाले निर्माता हास्य के नाम पर ’नायक’ से और कामेडियन से ऐसी वैसी हरकतें कराने की कोशिश करते हैं. एक आध छोटे बजटवाली स्तरीय हास्य फिल्में भी बनायें ताकि दर्शक रोजमर्रा के ढर्रे से हटकर थोड़ा बहुत विशुद्ध हास्य का आनंद उठा सकें. 
साथ ही हमारे यहां अभिनेता या अभिनेत्रियों को अभिनय के आधार पर ज्यादा पहचाना जाता है. कौन सा कलाकार किस क्लास का अर्थात ए क्लास, बी क्लास या सी क्लास है- उसी के आधार पर उनके अभिनय की कसौटी निर्धारित की जाती है. ऐसे माहौल में हास्य अभिनेता या अभिनेत्रियों को तो प्रायः उपेक्षित क्लास में अर्थात 'सी' क्लास में रखा जाता है, यहां न उनके अभिनय की पहचान हो पाती है और न ही उनके व्यक्तित्व की.

शायद इसी उपेक्षा के कारण हमारे हास्य अभिनेता या अभिनेत्री किसी कुंठा के शिकार हो चुके हैं और वे ऐसी वैसी कोई भूमिका निभाने को तैयार हो जाते हैं जिन्हें निभा कर वे अपनी रोजी रोटी ही पा सकते हैं. अपने भीतर के कलाकार की संतुष्टि नहीं. कलाकारों का एक बहुत बड़ा समूह चुपचाप भीतर ही भीतर खोखला होता जा रहा है जिसकी पूरी जिम्मेदारी हमारे फिल्मकारों पर हैं न कि दर्शकों पर.

करोड़ों की बजटवाली फिल्में बनानेवाले निर्माता हास्य के नाम पर ’नायक’ से और कामेडियन से ऐसी वैसी हरकतें कराने की कोशिश करते हैं. एक आध छोटे बजटवाली स्तरीय हास्य फिल्में भी बनायें ताकि दर्शक रोजमर्रा के ढर्रे से हटकर थोड़ा बहुत विशुद्ध हास्य का आनंद उठा सकें. 
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This article was originally published in Madhuri magazine on 9 March 1979 issue.
It was written by Pushp Kumar.
All the images are taken from the original article

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