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एक ताजगी का नाम है देवानन्द (Dev Anand)

01 Dec, 2022 | Archival Reproductions by Cinemaazi
Dev Anand. An image from the original article.

सिनेमा तो वैसे है ही छायाओं को खेल। पर कभी कभी कुछ छायाएं ऐसी होती हैं जो पर्दे से निकलकर पूरे माहौल पर छा जाती है। आजादी के बाद सिने-पर्दे पर जिन चन्द चुम्बकीय छायाओं को अवतरण हुआ उन खुशनुमा नामों में एक नाम देवानन्द जैसी रुमानी शख्सियत का भी शामिल है।

जिस युग में दिलीप कुमार के अभिनय का जादू करोड़ों के सिर चढ़ कर बोलने लगा था और राज कपूर सरीखे अभिनेता व सिने कला मर्मज्ञ का लोहा सारी दुनिया मानने लगी थी। उस युग में इन दो महानायकों के सामने अपनी अलग इमेज बनाकर बराबरी में खड़ा होना कोई हंसीखेल न था। पर देव ने अपने आत्मविश्वास और अदम्य इच्छा शक्ति के बल पर यह लगभग असंभव सा दिखने वाला कार्य संभव कर दिखाया। दिलीप और राज की इमेज से एकदम विपरीत एक हंसमुख, अलमस्त शहरी छैलाबाबू की इमेज बनाकर देव न केवल इन महानायकों की बराबरी पर आकर खड़ा हुआ बल्कि सातवें दशक और उसके बाद के युग में जबकि हम उम्र दिलीप और राज की छवि बतौर हीरो थकी-थकी और डगमगाती नजर आने लगी थी उस दौर में देव ने ’हम दोनों’ (1961), ’माया’ (1961), ’जब प्यार किसी से होता है’ (1961), ’असली नकली’ (1962), ’किनारे-किनारे’ (1963) और ’तेरे घर के सामने’ (1963) जैसी खूबसूरत और व्यवसायिक रूप से सफल फिल्मों के हीरो के रूप में कहीं आगे जाते दिखाई दिए।

An image of film booklet of  'Hum Ek Hain' (1946) from Cinemaazi archive.
जिस युग में दिलीप कुमार के अभिनय का जादू करोड़ों के सिर चढ़ कर बोलने लगा था और राज कपूर सरीखे अभिनेता व सिने कला मर्मज्ञ का लोहा सारी दुनिया मानने लगी थी। उस युग में इन दो महानायकों के सामने अपनी अलग इमेज बनाकर बराबरी में खड़ा होना कोई हंसीखेल न था।
हालांकि यहां मानना होगा कि देवानन्द के भीतर दिलीप सरीखी अप्रतिम अभिनय क्षमता और नीली आंखों वाले राज की संवेदनशील पारदर्शी गहराई के दर्शन कभी नहीं हुए। पर अपने रूपहले व्यक्तित्व, विशिष्ठ पहनावे, संवाद बोलने के दिलकश आंदाज और दिलीप-राज की भांति संगीत पर गहरी पकड़ के जरिए वे अपनी तमाम खामियों को दबाने में सफल रहे। और न केवल दिलीप-राज के बराबरी पर खड़ा रहने बल्कि कभी-कभी तो उसने भी ऊपर होने का स्वस्थ प्रयत्न करते रहे। उनकी अनगिनत सफल फिल्में और अप्रतिम लोकप्रियता इसका जीता जागता प्रमाण है।

’इच्छा यौवन’ का सा वरदान लिए इस महानायक की निर्माण संस्था ’नवकेतन’ ने इस वर्ष 40 साल पूरे कर लिए हैं। 26 सितम्बर 1923 को गुरुदासपुर (पंजाब) में जन्में और बी.ए. आनर्स (अंगे्रजी) की डिग्री लेकर आजादी के 3 साल पहले 19 जुलाई 1944 को फ्रंटियर मेल से बम्बई उतरने वाला यह लम्बा, दुबला सा 21 वर्षीय नवयुवक आगे चलकर हिन्दी सिनेमा एक आधार स्तम्भ बनेगा, यह बात उनके बड़े भाई चेतन आनंन्द जो उन दिनों ’नीचा नगर’ (1946) जैसी कलात्मक फिल्म बनाकर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके थे, भी न जान सके थे।
 
An image of film booklet of  'Baazi' (1951) from Cinemaazi archive.
देव ने सबसे पहले अपनी रोजी रोटी कमाने गरज से मिलिटरी सेंसर आफिस में नौकरी कर ली। 160 रु. महीने की यह नौकरी उन्होंने आठ महीने की। उसके बाद ’पीपुल्स थियेटर’ से जुड़े, यहां चेतन आनन्द, ख्वाजा अहमद अब्बास, बलराज साहनी, आदि के साथ काम करते हुए अभिनय कला की बारह खड़ी सीखने का अवसर मिला।
देव ने सबसे पहले अपनी रोजी रोटी कमाने गरज से मिलिटरी सेंसर आफिस में नौकरी कर ली। 160 रु. महीने की यह नौकरी उन्होंने आठ महीने की। उसके बाद ’पीपुल्स थियेटर’ से जुड़े, यहां चेतन आनन्द, ख्वाजा अहमद अब्बास, बलराज साहनी, आदि के साथ काम करते हुए अभिनय कला की बारह खड़ी सीखने का अवसर मिला। फिल्मों में पहला अवसर उन्हें 1946 में पूना में मशहूर फिल्म कम्पनी ’प्रभात’ की फिल्म ’हम एक हैं’  (1946) में मिला, जिसके निर्देशक प्यारे लाल संतोषी थे। उसके बाद 1947 में ’आगे बढ़ो’ (1947), ’मोहन’ (1947) और ’हम भी इन्सान है’ (1948) जैसी कुछ कमजोर फिल्मों में काम किया किन्तु उनकी पहचान स्थापित हुई। 1948 में में बनी दो सफल फिल्मों ’विद्या’ (1948) और ’जिद्दी’ (1948) के जरिए। ’विद्या’ में उनकी हीरोइन थी- अप्रतिम सौन्दर्य के सवमिनी ’सुरैया’ जो आगे भी उनकी कई फिल्मों में हीरेाइन बनी और सिर्फ हीरोइन ही नहीं बनी बल्कि आगे चलकर उनके इश्क के चर्चों ने फिल्म इतिहास में मीठी चुभन का एक यादगार पन्ना जोड़ दिया। और इस तरह वे यहां भी अपने प्रतिद्वन्द्वी दिलीप और राजकपूर से जिनके क्रमशः मधुबाला और नरगिस के बीच पनपे इश्क के चर्चों ने भी फिल्म इतिहास में अपनी जगह बनाई, से पीछे नहीं रहे। इसके बाद 1949 में उन्हें कोई उल्लेखनीय फिल्म नहीं मिली और जैसे-तैसे ’जीत’ (1949), ’नमूना’ (1949), ’शायर’ (1949) और ’उद्धार’ (1949) जैसी साधारण फिल्मों को पूरा करने में साल बीता।
 
An image of film booklet of  'Asli Naqli' (1962) from Cinemaazi archive.

फिर आया 1940 का साल। इसी साल उन्होंने अपने बड़े भाई चेतन आनन्द और छोटे भाई विजय आनन्द (गोल्डी) के साथ ’नवकेतन’ की नींव रखी और अपनी पसंदीदा होरोइन सुरैया और संगीतकार सचिन देव बर्मन के साथ पहली फिल्म ’अफसर’ (1950) बनाई जो उसी साल रिलीज हुई और उसे भारी व्यावसायिक सफलता मिली। इस फिल्म में सुरैया के गाए गीत खासकर ’मनमोर हुआ मतवाला...’ और ’नैना दीवाने इक नहीं माने’ काफी लोकप्रिय हुए। इस तरह ’अफसर’ के साथ ’नवकेतन’ की सफलताओं का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आगे 'बाजी' (1951), 'आंधियां' (1952), 'हमसफर' (1953), 'टैक्सी ड्राइवर' (1954), 'मकान नं. 44' (1955), 'फंटूश' (1956), 'नौ दो ग्यारह' (1957), 'कालापानी' (1958), 'काला बाजार' (1960), 'हम दोनो' (1961), 'तेरे घर के सामने' (1963), 'गाइड' (1965), 'ज्वेल थीफ' (1967), 'प्रेम पुजारी' (1970), 'तेरे मेरे सपने' (1971), 'हरे राम हरे कृष्ण' (1972), 'छुपा रुस्तम', 'शरीफ बदमाश' (1973), 'हीरा पन्ना' (1974), 'जानेमन' (1976), 'देस परदेस' (1978), 'लूटमार' (1980), 'स्वामी दादा' (1982), 'आनन्द और आनन्द' (1984) और 'सच्चे का बोलबाला' (1988) तक जारी रहा और 'अव्वल नम्बर' [(1990) (शीध्र प्रदर्शित)] व 'सौ करोड़' [(1991) (नयी घोषणा)] के साथ आगे भी जारी हैं....।
......इस तरह अब तक पूरी सौ फिल्मों से जुड़े रहने वाले देवानन्द ने पिछले 45 साल में अपने आपको जिस तरह शारीरिक और मानसिक रूप से चुस्त-दुरुस्त रखा वह भी अपने आप में एक शोध को विषय हो सकता है।
An image of film booklet of  'Des Pardes' (1978) from Cinemaazi archive.

1950 से 1988 के बीच नवकेतन के बैनर के तले बनी और अब तक प्रदर्शित उपर्युक्त 27 फिल्मों के निर्माण कार्य से सम्बद्ध रहने के साथ-साथ उन्होंने 73 अन्य फिल्मों में भी काम किया। इस तरह अब तक पूरी सौ फिल्मों से जुड़े रहने वाले देवानन्द ने पिछले 45 साल में अपने आपको जिस तरह शारीरिक और मानसिक रूप से चुस्त-दुरुस्त रखा वह भी अपने आप में एक शोध को विषय हो सकता है। अपनी प्रारंभिक फिल्मों में देव एक ऐसे कुटिल शहरी छैला बाबू के रूप में सामने आया जो तस्करी, जुआ और अपराध से आंख मिचैनी खेला करता है। इसिलिए 'टैक्सी ड्राइवर' (1954), 'पेइंग गेस्ट' (1957), 'मुनीम जी' (1955), 'नौ दो ग्यारह' (1957), 'बारिश' (1957) तथा 'बाजी' (1951) जैसी फिल्मों में वह एकदम फिट बैठा था।

1958 में बनी कालापानी भी उसकी अभिनय यात्रा का एक यादगार पड़ाव था और फिल्म में शानदार अभिनय के लिए उन्हें उस वर्ष फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था। अभिनय की दृष्टि से ’काला बाजार’, ’बम्बई का बाबू’ (1960), ’शराबी’ (1964), ’किनारे किनारे’, ’माया’, ’असली नकली’ (1962), ’सी.आई.डी. (1956), ’राही’ (1953), ’सजा’ (1951), और ’तेरे घर के सामने’, आदि भी उनकी यादगार फिल्में हैं। लेकिन फिल्म निर्माण कला की गहनतम अनुभूतियों और अप्रतिम अभिनय का श्रेष्ठतम रूप उनकी दो अमरकृतियों ’हम दोनों ’ और ’गाइड ’ में भी देखा जा सकता है। ’हम दोनों’ (1961) में उनकी दोहरी भूमिका बेमिसाल थी तो गाइड में उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन की अनुभवों का जैसा बूंद बूंद रस निचोड़ा था। वहीदा रहमान ने भी इस फिल्म में अपने जीवन का श्रेष्ठतम अभिनय किया जो देव की पारखी नजरों का ही कमाल था।
 
An image of film booklet of  'Anand Aur Anand' (1984) from Cinemaazi archive.
13 अक्टूबर 1975 नवकेतन निर्माण संस्था के लिए निःसंदेह एक दुर्भाग्यशाली दिन था क्योंकि इस दिन इस संस्था का प्रमुख आधार स्तम्भ सचिन दा का निधन हो गया। उन्होंने देव की फिल्मों के लिए जिस मनोभाव से गीत-संगीत के संसार की रचना की थी वह इस संस्था की सबसे बड़ी और अक्षुण्ण पूंजी कही जा सकती है।
बाजी’  (1951) में उन्होंने गुरुदत्त की निर्देशकीय प्रतिमा को स्वीकारा तो ’कालापानी’ के जरिए राज खोसला की निर्देशन प्रतिमा का परिचय करवाया। सचिन दा की बनाई धुनों को समुचित स्वर देने में उन्होंने सदैव उनका परामर्श माना। तभी ’टैक्सी ड्राइवर’ (1954) में उन्होंने पाश्र्व गायन के लिए तलत, 'मकान नं. 44' में हेमन्त के पाश्र्व गायन में और कालापानी, कालाबाजार, हम दोनों, तेरे घर के सामने और गाइड  जैसी फिल्मों में रफी के पाश्र्व गायन में गाना सहर्ष स्वीकार किया हालोंकि उनके पसंदीदा गायक सदैव किशोर ही रहे। पर तलत की रेशमी और हेमन्त की रूमानी आवाज और रफी का बहुआयामी स्वर उनके गले में बखूबी फिट बैठता जो इस माइने में उन्हें दिलीप (रफी फैन) और राज कपूर (मुकेश फैन) से अलग करती है। रफी ने तो देव के लिए एक विशिष्ट ही अंदाज के अत्यन्त लेकप्रिय गीतों में शुमार किए जाते हैं। 

13 अक्टूबर 1975 नवकेतन निर्माण संस्था के लिए निःसंदेह एक दुर्भाग्यशाली दिन था क्योंकि इस दिन इस संस्था का प्रमुख आधार स्तम्भ सचिन दा का निधन हो गया। उन्होंने देव की फिल्मों के लिए जिस मनोभाव से गीत-संगीत के संसार की रचना की थी वह इस संस्था की सबसे बड़ी और अक्षुण्ण पूंजी कही जा सकती है। आगे राहुल देव बर्मन, राजेश रोशन और बप्पी लाहिरी इस संस्था की उस संगीतमय लोकप्रिय परंपरा को जारी रखने में कामयाब नहीं हो सके। धीरे-धीरे रफी, किशोर और हेमन्त दा भी साथ छोड़ गए। चेतन और विजय तो पहले ही अलग हो गए थे। पर इस सबके बावजूद आज देव कहीं से भी थके टूटे या हारे नहीं लगते। 1975 के बाद लगातार असफलताएं भी उनका कुछ नहीं कर सकीं।  67 साल की उम्र को छूने वाले दे आज भी 25 वर्ष के युवक की भांति फुर्ती से काम करते दिखाई देते हैं। इसलिए तो उन्हें देखकर कहना पड़ता है कि देवानन्द-एक ताजगी का नाम है- तब भी जब वे 19 जुलाई 1944 को फ्रंटियर मेल से बम्बई आए थे और आज भी जब उनके आने की बात लोग भूल चुके हैं।
 
An image of film booklet of  'Sau Crore' (1991) from Cinemaazi archive.
67 साल की उम्र को छूने वाले दे आज भी 25 वर्ष के युवक की भांति फुर्ती से काम करते दिखाई देते हैं। इसलिए तो उन्हें देखकर कहना पड़ता है कि  'देवानन्द - एक ताजगी का नाम है ' - तब भी जब वे 19 जुलाई 1944 को फ्रंटियर मेल से बम्बई आए थे और आज भी जब उनके आने की बात लोग भूल चुके हैं।
Part of Krishna Kumar Sharma's K K Talkies Series.

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