एक ताजगी का नाम है देवानन्द (Dev Anand)
सिनेमा तो वैसे है ही छायाओं को खेल। पर कभी कभी कुछ छायाएं ऐसी होती हैं जो पर्दे से निकलकर पूरे माहौल पर छा जाती है। आजादी के बाद सिने-पर्दे पर जिन चन्द चुम्बकीय छायाओं को अवतरण हुआ उन खुशनुमा नामों में एक नाम देवानन्द जैसी रुमानी शख्सियत का भी शामिल है।
जिस युग में दिलीप कुमार के अभिनय का जादू करोड़ों के सिर चढ़ कर बोलने लगा था और राज कपूर सरीखे अभिनेता व सिने कला मर्मज्ञ का लोहा सारी दुनिया मानने लगी थी। उस युग में इन दो महानायकों के सामने अपनी अलग इमेज बनाकर बराबरी में खड़ा होना कोई हंसीखेल न था। पर देव ने अपने आत्मविश्वास और अदम्य इच्छा शक्ति के बल पर यह लगभग असंभव सा दिखने वाला कार्य संभव कर दिखाया। दिलीप और राज की इमेज से एकदम विपरीत एक हंसमुख, अलमस्त शहरी छैलाबाबू की इमेज बनाकर देव न केवल इन महानायकों की बराबरी पर आकर खड़ा हुआ बल्कि सातवें दशक और उसके बाद के युग में जबकि हम उम्र दिलीप और राज की छवि बतौर हीरो थकी-थकी और डगमगाती नजर आने लगी थी उस दौर में देव ने ’हम दोनों’ (1961), ’माया’ (1961), ’जब प्यार किसी से होता है’ (1961), ’असली नकली’ (1962), ’किनारे-किनारे’ (1963) और ’तेरे घर के सामने’ (1963) जैसी खूबसूरत और व्यवसायिक रूप से सफल फिल्मों के हीरो के रूप में कहीं आगे जाते दिखाई दिए।
’इच्छा यौवन’ का सा वरदान लिए इस महानायक की निर्माण संस्था ’नवकेतन’ ने इस वर्ष 40 साल पूरे कर लिए हैं। 26 सितम्बर 1923 को गुरुदासपुर (पंजाब) में जन्में और बी.ए. आनर्स (अंगे्रजी) की डिग्री लेकर आजादी के 3 साल पहले 19 जुलाई 1944 को फ्रंटियर मेल से बम्बई उतरने वाला यह लम्बा, दुबला सा 21 वर्षीय नवयुवक आगे चलकर हिन्दी सिनेमा एक आधार स्तम्भ बनेगा, यह बात उनके बड़े भाई चेतन आनंन्द जो उन दिनों ’नीचा नगर’ (1946) जैसी कलात्मक फिल्म बनाकर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके थे, भी न जान सके थे।
फिर आया 1940 का साल। इसी साल उन्होंने अपने बड़े भाई चेतन आनन्द और छोटे भाई विजय आनन्द (गोल्डी) के साथ ’नवकेतन’ की नींव रखी और अपनी पसंदीदा होरोइन सुरैया और संगीतकार सचिन देव बर्मन के साथ पहली फिल्म ’अफसर’ (1950) बनाई जो उसी साल रिलीज हुई और उसे भारी व्यावसायिक सफलता मिली। इस फिल्म में सुरैया के गाए गीत खासकर ’मनमोर हुआ मतवाला...’ और ’नैना दीवाने इक नहीं माने’ काफी लोकप्रिय हुए। इस तरह ’अफसर’ के साथ ’नवकेतन’ की सफलताओं का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आगे 'बाजी' (1951), 'आंधियां' (1952), 'हमसफर' (1953), 'टैक्सी ड्राइवर' (1954), 'मकान नं. 44' (1955), 'फंटूश' (1956), 'नौ दो ग्यारह' (1957), 'कालापानी' (1958), 'काला बाजार' (1960), 'हम दोनो' (1961), 'तेरे घर के सामने' (1963), 'गाइड' (1965), 'ज्वेल थीफ' (1967), 'प्रेम पुजारी' (1970), 'तेरे मेरे सपने' (1971), 'हरे राम हरे कृष्ण' (1972), 'छुपा रुस्तम', 'शरीफ बदमाश' (1973), 'हीरा पन्ना' (1974), 'जानेमन' (1976), 'देस परदेस' (1978), 'लूटमार' (1980), 'स्वामी दादा' (1982), 'आनन्द और आनन्द' (1984) और 'सच्चे का बोलबाला' (1988) तक जारी रहा और 'अव्वल नम्बर' [(1990) (शीध्र प्रदर्शित)] व 'सौ करोड़' [(1991) (नयी घोषणा)] के साथ आगे भी जारी हैं....।
1950 से 1988 के बीच नवकेतन के बैनर के तले बनी और अब तक प्रदर्शित उपर्युक्त 27 फिल्मों के निर्माण कार्य से सम्बद्ध रहने के साथ-साथ उन्होंने 73 अन्य फिल्मों में भी काम किया। इस तरह अब तक पूरी सौ फिल्मों से जुड़े रहने वाले देवानन्द ने पिछले 45 साल में अपने आपको जिस तरह शारीरिक और मानसिक रूप से चुस्त-दुरुस्त रखा वह भी अपने आप में एक शोध को विषय हो सकता है। अपनी प्रारंभिक फिल्मों में देव एक ऐसे कुटिल शहरी छैला बाबू के रूप में सामने आया जो तस्करी, जुआ और अपराध से आंख मिचैनी खेला करता है। इसिलिए 'टैक्सी ड्राइवर' (1954), 'पेइंग गेस्ट' (1957), 'मुनीम जी' (1955), 'नौ दो ग्यारह' (1957), 'बारिश' (1957) तथा 'बाजी' (1951) जैसी फिल्मों में वह एकदम फिट बैठा था।
1958 में बनी कालापानी भी उसकी अभिनय यात्रा का एक यादगार पड़ाव था और फिल्म में शानदार अभिनय के लिए उन्हें उस वर्ष फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था। अभिनय की दृष्टि से ’काला बाजार’, ’बम्बई का बाबू’ (1960), ’शराबी’ (1964), ’किनारे किनारे’, ’माया’, ’असली नकली’ (1962), ’सी.आई.डी. (1956), ’राही’ (1953), ’सजा’ (1951), और ’तेरे घर के सामने’, आदि भी उनकी यादगार फिल्में हैं। लेकिन फिल्म निर्माण कला की गहनतम अनुभूतियों और अप्रतिम अभिनय का श्रेष्ठतम रूप उनकी दो अमरकृतियों ’हम दोनों ’ और ’गाइड ’ में भी देखा जा सकता है। ’हम दोनों’ (1961) में उनकी दोहरी भूमिका बेमिसाल थी तो गाइड में उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन की अनुभवों का जैसा बूंद बूंद रस निचोड़ा था। वहीदा रहमान ने भी इस फिल्म में अपने जीवन का श्रेष्ठतम अभिनय किया जो देव की पारखी नजरों का ही कमाल था।
13 अक्टूबर 1975 नवकेतन निर्माण संस्था के लिए निःसंदेह एक दुर्भाग्यशाली दिन था क्योंकि इस दिन इस संस्था का प्रमुख आधार स्तम्भ सचिन दा का निधन हो गया। उन्होंने देव की फिल्मों के लिए जिस मनोभाव से गीत-संगीत के संसार की रचना की थी वह इस संस्था की सबसे बड़ी और अक्षुण्ण पूंजी कही जा सकती है। आगे राहुल देव बर्मन, राजेश रोशन और बप्पी लाहिरी इस संस्था की उस संगीतमय लोकप्रिय परंपरा को जारी रखने में कामयाब नहीं हो सके। धीरे-धीरे रफी, किशोर और हेमन्त दा भी साथ छोड़ गए। चेतन और विजय तो पहले ही अलग हो गए थे। पर इस सबके बावजूद आज देव कहीं से भी थके टूटे या हारे नहीं लगते। 1975 के बाद लगातार असफलताएं भी उनका कुछ नहीं कर सकीं। 67 साल की उम्र को छूने वाले दे आज भी 25 वर्ष के युवक की भांति फुर्ती से काम करते दिखाई देते हैं। इसलिए तो उन्हें देखकर कहना पड़ता है कि देवानन्द-एक ताजगी का नाम है- तब भी जब वे 19 जुलाई 1944 को फ्रंटियर मेल से बम्बई आए थे और आज भी जब उनके आने की बात लोग भूल चुके हैं।
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