Munavvar Sultana, the star actress from 1940s who ruled the hearts of her audience with her eternal beauty and amazing performances. She reached the heights of fame in a short span of time but gave it all up for domestic bliss. Completely devoted to her family, she moved away from the glitz and glamour of showbiz and with time her name faded into oblivion. Even her contemporaries did not know about her whereabouts, some even believed that she was no more. However, the truth is that though unwell, Munavvar Sultana lived with her family at Pali Hill area till 5 years back before her passing.
According to her businessman son, Sarfaraz and daughter Shaheen, their mother was born on 8th November 1924 in Lahore. Her father was a Radio Announcer. Since childhood, she wanted to be a doctor and after completing school she was preparing to enter the medical field. Around the same time she got an opportunity to play a small role in the famous producer-director Dalsukh Pancholi, (owner of Lahore based Pancholi Pictures) film Khandan. Pran and Noorjehan were the lead pair of this hit film released in 1942 whose music director was Ghulam Haider.
Mumbai's famous actor/producer/director Mazhar Khan was looking for a new face for his film Pehli Nazar (1945). After seeing her work in Khandan, he decided to cast Munavvar Sultana as the leading lady for his film and called her from Lahore to Mumbai. The leading man of this film released in 1945 was Motilal. Legendary singer Mukesh started his playback career with this film. Before this, he had sung songs for Nirdosh (1941) and Dukh Sukh (1942) which were picturized on Mukesh, himself. Sung by Mukesh, his first recorded playback song Dil jalta hai to jalne de, written by Dr Safdar Aah and composed by Anil Biswas was picturized on Motilal.
One can gauge her popularity from the fact that she modelled for the famous soap brand LUX which has featured every successful leading lady of her times.
Films Meri Kahani and Pyar Ki Manzil were produced by Mumbai's well-known Furniture Retailer, Sharaf Ali under the Super Team Federal Productions Banner. In 1954 Munavvar Sultana married Sharaf Ali and bid adieu to the film world. Her last film Jallaad was released after her marriage. In 1966, after the sudden demise of her husband, domestic (four sons and three daughters) and business responsibilities fell on her shoulders which she successfully handled. She was now completely disconnected from the film world and with passing only one question was left behind – “Is Munavvar Sultana alive?”
For my column Kya Bhooloon Kya Yaad Karoon in the weekly Sahara Samay, I wanted to interview Munavvar Sultana but whoever I met in this regard said: “she is possibly not alive”. This uncertainty was making me uncomfortable. One day I received a call from Shri Prem Krishna Tandon, a resident of Delhi, who had come to visit his son in Mumbai. He told me that he occasionally wrote about old films for newspapers in Delhi. He was an admirer of my column and wanted to meet me. He got my contact information from Dhirendra Asthana, bureau chief for Sahara Samay, Mumbai who he reached through Sahara Samay's NOIDA office. Meeting this 75 years old elderly gentleman with immense knowledge about vintage cinema was an achievement in itself. Surprisingly during our conversation, he suggested that I should write about Munavvar Sultana. He told me that she is very much alive and lived in Mumbai. He also gave me her contact information. Three years ago he met her at her Mumbai Residence but given her condition, she was as good as dead.
(We are saddened that Shri Prem Krishna Tandon passed away on 15th Aug 2012 in Delhi at the age of 82. A heartfelt tribute from the team for Beete Huye Din.)
In the third week of March 2005, I visited Munavvar Sultanas residence. She lived on the second floor of Sehgal House, Ambedkar Road, Pali Hill. Sitting quietly on a wheelchair, unaware of everything, even herself, she was staring at nothingness. For the past 8 years, she was suffering from the incurable Alzheimers which was now in its last stages. I spoke to her son Sarfaraz and daughter Shaheen about her. They said – “We can't give her riddance from this disease but try our best that while she is around she should not have any problems, though at this stage she is beyond feeling any happiness or pain. She is like a statue which rarely shows any signs of life.”
Munavvar Sultana passed away on 15th September 2007 in Mumbai at the age of 83.
(Part of Shishir Krishna Shamra's Beete Hue Din blog series)
मुनव्वर सुल्ताना !...ये नाम है 1940 के दशक की उन स्टार अभिनेत्री का, जिन्होंने बहुत कम समय में अपनी प्रतिभा के दम पर हिन्दी फ़िल्मों में नई ऊंचाईयां हासिल कीं, शोख अदाओं से लाखों दर्शकों को अपना दीवाना बनाया और फिर एकाएक गृहस्थी बसाकर फ़िल्मोद्योग को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। तमाम सिनेमाई चमक-दमक से अलग ये गुमनामी भरी ज़िंदगी उन्हें इतनी रास आई कि वो घर की चारदीवारी में सिमटती चली गयीं। और फिर धीरे-धीरे हालात यहां तक पहुंच गए कि हिन्दी सिनेमा के उनके समकालीन लोगों तक के ज़हन से उनका नाम मिट गया। लोग भूल ही गए कि वो कहां और किस हाल में हैं। एक आम धारणा ये भी बन चुकी थी कि मुनव्वर सुल्ताना शायद अब इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन सच्चाई ये थी कि मुनव्वर सुल्ताना 5 साल पहले तक ज़िंदा थीं और अपने भरे-पूरे परिवार के साथ मुंबई के पाली हिल इलाक़े में रहती थीं। ये बात अलग है कि उनकी शारीरिक और मानसिक हालत को देखते हुए उनका होना या न होना कोई मायने नहीं रखता था।
मुनव्वर सुल्ताना के व्यवसायी बेटे सरफ़राज़ और बेटी शाहीन के मुताबिक़ उनकी अम्मी का जन्म 8 नवंबर 1924 को लाहौर में हुआ था। मुनव्वर सुल्ताना के अब्बा रेडियो अनाऊंसर थे। वो बचपन से ही डॉक्टर बनना चाहती थीं और स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद मेडिकल की तैयारियों में जुटी हुई थीं। उन्हीं दिनों उन्हें लाहौर स्थित ‘पंचोली पिक्चर्स’ के मालिक और मशहूर निर्माता-निर्देशक दलसुख पंचोली की फ़िल्म ‘ख़ानदान’ में एक छोटी सी भूमिका निभाने का मौक़ा मिला। साल 1942 में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म के नायक-नायिका प्राण और नूरजहां और संगीतकार ग़ुलाम हैदर थे और ये फ़िल्म अपने दौर की बहुत बड़ी हिट साबित हुई थी।
मुंबई के जाने-माने अभिनेता और निर्माता-निर्देशक मज़हर ख़ान उन दिनों फ़िल्म ‘पहली नज़र’ की नायिका की भूमिका के लिए एक नयी लड़की की तलाश में थे। फ़िल्म ‘ख़ानदान’ में मुनव्वर सुल्ताना के काम से वो इतने प्रभावित हुए कि ‘पहली नज़र’ की उस भूमिका के लिए उन्होंने मुनव्वर सुल्ताना को चुना और उन्हें लाहौर से मुंबई बुला लिया। साल 1945 में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म में मुनव्वर सुल्ताना के नायक थे मोतीलाल। मुकेश ने भी इसी फ़िल्म से बतौर पार्श्वगायक अपना करियर शुरू किया था। मुकेश इससे पहले फ़िल्म ‘निर्दोष’ (1941) और ‘दुखसुख’ (1942) में ख़ुद के लिए कुछ गीत गा चुके थे। फ़िल्म ‘पहली नज़र’ का मुकेश का गाया पहला पार्श्वगीत ‘दिल जलता है तो जलने दे’ मोतीलाल पर फ़िल्माया गया था। डॉ.सफ़दर ‘आह’ के लिखे इस गीत को अनिल बिस्वास ने संगीतबद्ध किया था।
‘ख़ानदान’ (1942) के बाद क़रीब 12 सालों के अपने करियर के दौरान मुनव्वर सुल्ताना ने कुल 26 फ़िल्मों, ‘पहली नज़र’ (1945/ नायक-मोतीलाल), ‘अंधों की दुनिया’ (1947/महिपाल), ‘दर्द’ (1947/नुसरत कारदार), ‘ऐलान’ (1947/सुरेन्द्र), ‘नैया (1947/मज़हर ख़ान), ‘मजबूर’ (1948/श्याम), ‘मेरी कहानी’ (1948/सुरेन्द्र), ‘पराई आग’ (1948/उल्हास), ‘सोना’ (1948/मज़हर ख़ान), ‘दादा’ (1948/श्याम), ‘दिल की दुनिया’ (1949/मज़हर ख़ान), ‘क़नीज़’ (1949/श्याम), ‘निस्बत’ (1949/याक़ूब), ‘रात की रानी’ (1949/श्याम), ‘सावन भादों’ (1949/रामसिंह), ‘उद्धार’ (1949/देव आनंद), ‘बाबुल’ (1950/दिलीप कुमार), ‘प्यार की मंज़िल’ (1950/रहमान), ‘सबक’ (1950/करण दीवान), ‘सरताज़’ (1950/मोतीलाल), ‘अपनी इज़्ज़त’ (1952/मोतीलाल), ‘तरंग’, (1952/अजीत), ‘एहसान’ (1954/शम्मी कपूर), ‘तूफ़ान’ (1954/सज्जन), ‘वतन’ (1954/त्रिलोक कपूर) और ‘जल्लाद’ (1956/नासिर ख़ान) में बतौर नायिका काम किया। उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अपने दौर की हरेक टॉप नायिका से मॉडलिंग करवाने के लिए मशहूर ‘लक्स’ साबुन के विज्ञापन के लिए उस ज़माने में उन्होंने भी काम किया था। उमादेवी का गाया पहला गीत, फ़िल्म दर्द का ‘अफ़साना लिख रही हूं’ और इसी फ़िल्म के लिए सुरैया और उमादेवी का गाया ‘बेताब है दिल’ मुनव्वर पर ही फ़िल्माए गए थे। मुनव्वर और दिलीप कुमार के लिए फ़िल्म ‘बाबुल’ में शमशाद बेगम और तलत महमूद का गाया ‘मिलते ही आंखें दिल हुआ दीवाना किसी का’ भी अपने ज़माने में काफ़ी मशहूर हुआ था। उधर मास्टर ग़ुलाम हैदर और हंसराज बहल द्वारा संगीतबद्ध की गयी फ़िल्म ‘कनीज़’ को इसलिए जाना जाता है क्योंकि इसका पार्श्वसंगीत तैयार करके संगीतकार ओ.पी.नैयर ने हिंदी सिनेमा में कदम रखा था।
फ़िल्म ‘मेरी कहानी’ और ‘प्यार की मंज़िल’ का निर्माण ‘सुपर टीम फ़ेडरल प्रोडक्शंस’ के बैनर में मुम्बई के जाने-माने फ़र्नीचर व्यवसायी शरफ़ अली ने किया था। साल 1954 में मुनव्वर सुल्ताना ने शरफ़ अली से शादी करके फ़िल्मोद्योग को अलविदा कह दिया। ‘जल्लाद’ उनकी आख़िरी फ़िल्म थी जो उनकी शादी के बाद रिलीज़ हुई थी। साल 1966 में शौहर के अचानक गुज़र जाने के बाद चार बेटों और तीन बेटियों के साथ ही बिज़नेस की भी ज़िम्मेदारियों को मुनव्वर ने बख़ूबी संभाला, और इन्हीं व्यस्तताओं के चलते फ़िल्मोद्योग से उनका बचा-खुचा रिश्ता भी पूरी तरह से टूट गया। और फिर गुज़रते वक़्त के साथ पीछे छोड़ गया एक सवाल, ‘क्या मुनव्वर सुल्ताना ज़िंदा हैं?’
साप्ताहिक ‘सहारा समय’ के अपने कॉलम ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ के लिए मैं मुनव्वर सुल्ताना का इण्टरव्यू करना चाहता था। उनकी तलाश में जिससे भी मिला, सभी ने कहा, ‘शायद वो ज़िंदा नहीं हैं’। और ये ‘शायद’ शब्द मेरी बेचैनी को लगातार बढ़ाए जा रहा था। मुझे एक भी शख़्स ऐसा नहीं मिला जो दावे के साथ कह सके कि ‘मुनव्वर सुल्ताना अब इस दुनिया में नहीं हैं’। अचानक एक रोज़ मुझे श्री प्रेमकृष्ण टंडन ने फ़ोन किया जो दिल्ली के रहने वाले थे और अपने बेटे के पास मुंबई आए हुए थे। उन्होंने बताया कि वो भी कभीकभार दिल्ली से निकलने वाले अख़बारों में पुरानी हिंदी फ़िल्मों पर लिखते हैं। वो मेरे कॉलम के प्रशंसक थे और मुझसे मिलना चाहते थे। मेरा नंबर उन्हें ‘सहारा समय’ के मुंबई ब्यूरो चीफ़ धीरेन्द्र अस्थाना जी से मिला था। धीरेन्द्र अस्थाना जी तक वो नौएडा स्थित सहारा समय के दफ़्तर के ज़रिए पहुंचे थे। पुरानी हिंदी फ़िल्मों के अच्छे जानकार और 75 साल के बुज़ुर्ग श्री प्रेमकृष्ण टंडन से मिलना ही अपने आप में एक उपलब्धि थी। बातचीत के दौरान अचानक उन्होंने सवाल किया, बेटा तुम मुनव्वर सुल्ताना के बारे में क्यों नहीं लिखते?...और तब मुझे पता चला कि मुनव्वर सुल्ताना ज़िंदा हैं और मुंबई में ही हैं। मुनव्वर सुल्ताना के घर का फ़ोन नंबर भी मुझे श्री प्रेमकृष्ण टंडन ने ही दिया था। दरअसल श्री प्रेमकृष्ण टंडन 3 साल पहले मुनव्वर सुल्ताना के घर जाकर उनसे मिल चुके थे, हालांकि उनके अनुसार मुनव्वर सुल्ताना की हालत को देखते हुए उनका होना न होना बराबर था।
(हमें दुख है कि विगत 15 अगस्त 2012 को श्री प्रेमकृष्ण टंडन का 82 साल की उम्र में दिल्ली में निधन हो गया। दिवंगत आत्मा को टीम ‘बीते हुए दिन’ की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि !)
मार्च 2005 के तीसरे हफ़्ते में मैं मुनव्वर सुल्ताना के घर पर था। वो पाली हिल के अंबेडकर रोड पर बने ‘सहगल हाऊस’ की दूसरी मंज़िल पर रहती थीं। व्हीलचेयर पर बैठी, ख़ामोशी से शून्य में ताकतीं, दुनिया जहान ही नहीं ख़ुद से भी बेख़बर! पिछले आठ बरसों से वो अल्ज़ाईमर से पीड़ित थीं, एक ऐसी लाईलाज बीमारी जिसमें दिमाग़ धीरे-धीरे अपनी सक्रियता खोने लगता है। दुर्भाग्य से मुनव्वर सुल्ताना की बीमारी अपने अंतिम चरण में पहुंच चुकी थी । उनके बारे में तमाम बातचीत उनके बेटे सरफ़राज़ और बेटी शाहीन से हुईं। सरफ़राज़ और शाहीन का कहना था, ‘अम्मी को इस रोग से छुटकारा दिला पाना तो हमारे बस में नहीं है, लेकिन हमारी भरसक कोशिश यही रहती है कि वो जब तक हैं, उन्हें कोई तकलीफ़ न पहुंचे। हालांकि ये भी सच है कि अब वो इस हालत में नहीं हैं कि सुख और दुख में फ़र्क महसूस कर सकें। वो एक ऐसे बुत में तब्दील हो चुकी हैं जिसमें कभी-कभार एकाध हल्की सी हरक़त हो ही जाती है’।
मुनव्वर सुल्ताना का निधन 83 साल की उम्र में 15 सितम्बर 2007 को मुंबई में हुआ।