indian cinema heritage foundation

प्रेमचंद सत्यजीत राय और ’सद्गति’ -गिरिजाशंकर

26 Jul, 2021 | Archival Reproductions by Cinemaazi
Satyajit Ray explaining the scene to Mohan Agashe. Image Courtesy: satyajitray.org

न दाढ़ी, न चश्मा, न विशिष्टि पौषाक या अदाएं. बिलकुल सामान्य लोगों की तरह पेंट शर्त पहने हुए, तथाकथित जीनियस की कोई प्रचलित पहचान नहीं. दिखने में जितने स्वाभाविक व सामान्य, बातचीत व व्यवहार में कहीं अधिक सरल व सहनशील, जी हां, यह वही सत्यजीत राय हैं जिनको विश्व का शायद ही कोई सम्मान या एवार्ड हो जो न मिला हो.

स्व. प्रेमचंद की लघुकथा ’सदगति’ पर सत्यजीतराय फिल्म बनाने वाले थे. यह उनकी दूसरी हिन्दी फिल्म थी जिसे वे दूरदर्शन के लिए बना रहे थे. इसी फिल्म की शूटिंग उन्होंने म.प्र. के रायपुर में की. स्थान चयन करने हेतु वे रायपुर आये. ट्रैन से उतरते ही शूटिंग के लिये पस्तावित स्थानों की चर्चा करने लगे.

Om Puri (Dukhi) and Smita Patil (Jhuria) in a scene from Sadgati. Image courtesy: satyajitray.org

उनकी उत्तेजना का आलम यह है कि आराम करने का सवाल नहीं, बस खाना खाया और रायपुर से लगभग 80 किलोमीटर दूर पलारी गांव की ओर रवाना हुए. म.प्र. सरकार ने उन्हें राजकीय अतिथि का सम्मान प्रदान किया था. इसलिए सरकारी अधिकारी भी उनके साथ थे. दरअसल शूटिंग करने के लिये म.प्र. की सलाह श्याम बेनेगल ने दी. जब इस संभावना के साथ सत्यजीत राय ने म.प्र. सरकार से संपर्क किया तो उन्हें अनुकूल उत्तर मिला तथा उनकी जरूरत के अनुसार हरिजन बहुल गांवों की तस्वीरें उन्हें भिजवायी गयीं. जवाब आ गया कि श्री राय उन गांवों को देखने आ रहे हैं जिनकी तस्वीरें भिजवायी गयी थीं.

जगह की तलाश
कहानी की जरूरत के मुताबिक वे कोई गांव चाहते थे जहां चमारों की बस्ती हो और ब्राह्मणों के भी कुछ घर हों. एक दर्जन गांव घूमने के बाद भी पसंद नहीं आया लेकिन इस दौरान यह समझना मुश्किल नहीं था कि उन्हें किस तरह के गांव की तलाश है. कुछ बच्चे मकानों की बस्ती व एक पक्का लेकिन नया नहीं, बस यही फिल्म का कुल दृश्य था. पक्के मकान के सामने खुली जगह हो, कुंआ हो तथा बाड़ी हो और छोटे कच्चे मकान गांव के आखिरी सिरे में बसे हुए हों जिनमें से आखिरी वाला घर चुन लेना था. यह कच्चा मकान था दुखीराम चमार के लिये व पक्का मकान था पंडित के लिये. यही दो पात्रों के बीच ही फिल्म की कहानी घूमती है. स्व. प्रेमचंद के पुत्र श्री अमृतराय भी रायपुर आ चुके थे, जिन्होंने फिल्म की पटकथा और संवाद लिखे हैं, शूटिंग कार्यक्रम निर्धारित हो चुका था, जिसके अंतर्गत अमृतराय रायपुर आये हुए थे. सत्यजीतराय उनके साथ बैठकर संवादों को अंतिम रूप देना चाहते थे ताकि कलाकारों को पहले ही पटकथा भेज दी जाये. यह 1-2 दिन में करना था और इसी दौरान स्थल चयन भी करना था.

रात को 11 बज चुके थे और वे बेहद परेशान और चिंतित बैठे हुए थे. शायद उन्हें यह लग रहा हो कि यही काम तो उनके हाथ में नहीं. सत्यजीतराय का बस चलता तो वे रात में भी न बैठते. उन्हें बिलकुल चैन नहीं था।

अगले रोज रायपुर से 65 किलोमीटर दूर केशवा नामक गांव में स्थित पक्के मकान को देखते ही उनके चेहरे पर चमक उभर आयी. अपने कला निर्देशक श्री अशोक बोस के साथ उन्होंने मकान का सूक्ष्म निरीक्षण किया. मकान पक्का था लेकिन डिजाइनिंग पुरानी ही थी जिसमें लकड़ी की दीवारों पर खुदाई की कलाकारी की हुई. यह मकान न अधिक वैभवशाली दिखता था और न अति सामान्य ही. मकान के सामने खुली जगह थी, मकान से लगा हुआ कुआ व बाड़ी यानी सभी जरूरतें पूरी हो रही थी.

ओमपुरीमोहन आगाशे पर पहला शाट लिया जाना था. कैमरा तैयार, मानिक दा कैमरे से दृश्य देखते हैं.
'टेकिंग, साइलेंस, एक्शन’मानिक दा की तेज आवाज गूंजती है और अभिनय शुरू...
“महाराज”.
“कौन”.
“मैं दुखी महाराज”.
“क्या बात है.”
“बिटिया की सगाई का सगुन विचार दीजिये महाराज.”
Ray explaining a scene to child actor while Smita Patil looks over. Image courtesy: satyajitray.org

’टेकिंग, साइलेंस, एक्शन’ मानिक दा की तेज आवाज गूंजती है और अभिनय शुरू...
“महाराज”.
“कौन”.
“मैं दुखी महाराज”.
“क्या बात है.”
“बिटिया की सगाई का सगुन विचार दीजिये महाराज.”
मानिक दा एक एक दृश्य व पात्रों की प्रामाणिकता के प्रति कितने सजग रहते हैं, इसका जायजा इस फिल्म की शूटिंग के दौरान मिलता है. ब्राह्मण तो ब्राह्मण है लेकिन मानिक दा यह जानना चाहते हैं कि वह शैव है या वैष्णव. उसके अनुरूप उसको तिलक लगाया जायेगा. उसी तरह वेशभूषा व कास्ट्यूम के प्रति भी वे इतने सजग हैं कि कपड़ों व गहनों की खरीदी वे खुद करेंगे. गांव में जाकर उन्होंने पहले गांव वालों का पहरावा व आभूषणों का अध्ययन किया फिर ठीक वैसे ही कास्ट्यूम की तलाश. जगह-जगह के बाजार छान मारे और खुद सारी चीजें पसंद करते गये. नया सामान गांव वालों को देकर उनसे पुराना ले लिया क्योंकि नये कपड़े व आभूषण को पहनाया नहीं जा सकता. ’चल जायेगा’ का कहीं सवाल नहीं था. इसीलिये जब स्मिता पाटील चमार औरत के रूप में पेश हुई तो उसे गांव की अन्यं महिलाओं से अलग पहचानना मुश्किल हो गया.

शूटिंग की पहली रात को मानिक दा सभी शाट्स के स्केच बना लेते थे. संवाद के साथ ही कलाकारों के अभिनय की फ्रेमिंग तय रहती थी. यह इतना परफेक्ट होता था कि अधिकांश शाट एक ही टेक में ओ के हो जाते थे. देर रात तक वे कलाकारों से दृश्य व उनके पात्रों पर चर्चा करते रहते.

शूटिंग के दौरान कलाकारों को खुद अभिनय करके नहीं बताते थे. वे हिंदी नहीं जानते. मगर यदि कोई कलाकार संवाद का कोई टुकड़ा भी छोड़ देता है तो वे तुरंत पकड़ लेते.
मानिक दा अपनी फिल्मों में ग्रामीण परिवेश का इस तरह समावेश करते हैं कि आंचलिक वातावरण प्रामाणिकता के साथ उभरता है. ग्रामीण स्थितियों व रोजमर्रा की जिंदगी को वे बिंबों व प्रतीकों के रूप में बखूबी इस्तेमाल करते हैं.

केशवा गांव जाते हुये सड़क किनारे एक गांव में रावण की विशाल मूर्ति बनी हुई थी. छत्तीसगढ़ के अधिकांश गांवों में रावण की ऐसी पक्की मूर्तियां मिलेगी जहां दशहरा त्यौहार मनाया जाता है. मानिक दा केशवा गांव में भी वैसा ही रावण चाहते थे. स्थानीय कलाकार भानु को बुलवाया गया और केशवा गांव में उस घर के सामने मैदान पर 15 फुट ऊंची रावण की मूर्ति खड़ी की गयी. फिल्म में यह मकान ब्राह्मण का निवास है. पूरे दृश्य के पाश्र्व में रावण को प्रतीक रूप में इस्तेमाल किया गया.

शुरूआत और समाप्ति
इसी तरह गांव घूमते हुए शाम को उन्हें गायों का समूह गांव की ओर लौटता दिखा. उनके गलों में कई तरह की घंटियां बंधी थीं, जिसका संगीत दूर से सुनाई पड़ता था. मानिक दा को यह बेहद पसंद आया. बस, सुबह गायों का गांव से निकलना उस गांव के दिन की शुरूआत व गोधूलि बेला में लौटना गांव के उस दिन की समाप्ति का प्रतीक बन गया.
जब मैं शूटिंग में होता हूं तो हमेशा टाप आफ द हेल्थ में रहता हूं. दो फिल्मों के बीच में ही कभी कोई शिकायत होती है. लेकिन काम शुरू होते ही फिर ठीक
उम्र की 60 वर्ष बीत जाने के बाद भी वे काम करते हुए बेहद जवान लगते हैं. पैदल चलते चलते हम लोग थक जाते थे लेकिन मानिक दा तो थकान जानते ही नहीं. घंटों काम करने के बाद भी चाय की तलब मानिक दा को नहीं लगती. शूटिंग शुरू करने के दिन मैं डाक्टर को बुला लाया. डाक्टर ने कहा कि बाकी सब ठीक है लेकिन एग्जरशन ज्यादा नहीं कीजियेगा, तो वे ठहाके लगाते हुए कहने लगे, “नहीं डाक्टर, जब मैं शूटिंग में होता हूं तो हमेशा टाप आफ द हेल्थ में रहता हूं. दो फिल्मों के बीच में ही कभी कोई शिकायत होती है. लेकिन काम शुरू होते ही फिर ठीक.”

The article was first published in Madhuri Magazine April, 1982 issue. The images in the feature are taken from the internet.

  • Share
906 views

About the Author

 

Other Articles by Cinemaazi

22 Jan,2024

A Painful Parting

18 Oct,2023

Munna

19 Jun,2023

Romance in Our Cinema

07 Jun,2023

Sangam (1964)

25 May,2023

Gandhi: Whose voice?

15 May,2023

Mangal Pandey

02 May,2023

Birbal Paristan Mein

27 Mar,2023

The Film Director?

21 Mar,2023

M Sadiq

20 Feb,2023

Do Dooni Chaar

15 Feb,2023

Rafoo Chakkar

03 Jan,2023

Nav Ratri

03 Nov,2021

An Actor Prepares

03 May,2021

Ankahee: The Unspoken

29 Apr,2021

Children’s Films

04 Nov,2020

Progress In Raw Film

30 Oct,2020

Freedom In Films

03 Sep,2020

Payyal's Lucky Break