हिन्दी फिल्मों की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन?
06 Aug, 2022 | Archival Reproductions by Cinemaazi
क्या भारतीय सिनेमा - खासकर हिन्दी सिनेमा इतना लम्बा वक्त गुजार आने के बाद भी परिपक्व हो पाया?
पचहत्तर साल हो गए भारतीय फिल्मों को बनते हुए। परिपक्व होने के लिए इतनी उम्र किसी भी सूरत में नाकाफी नहीं कही जा सकती। पर क्या भारतीय सिनेमा - खासकर हिन्दी सिनेमा इतना लम्बा वक्त गुजार आने के बाद भी परिपक्व हो पाया?पिछले कुछ वर्षों से जैसी फिल्में बन रही है उन्हें देख कर तो बरबस कहना पड़ता है कि हिन्दी सिनेमा ’परिपक्व’ होने की जगह अपने ’बालपन’ की ओर लौट चला है। जिस हिन्दी सिनेमा ने ’दुनिया न माने’, ’दो बीघा जमीन’, ’आवारा’, ’श्री 420’, ’बंदिनी’, ’सुजाता’, ’मदर इंडिया’, और ’मुगले आजम’ जैसी खूबसूरत फिल्में दीं वहीं आज ’जिस्म का रिश्ता ’ जैसी फूहड़ और अश्लील फिल्में बन रही है। क्या इसी दिन के लिए 75 साल पहले घोर आर्थिक संकटों और सामाजिक उपहासों को सहते हुए दादा फाल्के ने भारतीय फिल्म उद्योग की नींब रखी थी?
हिन्दी सिनेमा के इस पतन का आखिर जिम्मेदार कौन है निर्माता या दर्शक या फिर दोनों? यह एक ऐसा गंभीर सवाल है जिस पर यदि आज विचार करके उसका हल न खोजा गया तो आने वाले दिनों में निश्चय ही बहुत ही दुखद और शर्मनाक परिणाम भोगने पड़ सकते हैं?
हिन्दी सिनेमा के इस पतन का आखिर जिम्मेदार कौन है निर्माता या दर्शक या फिर दोनों? यह एक ऐसा गंभीर सवाल है जिस पर यदि आज विचार करके उसका हल न खोजा गया तो आने वाले दिनों में निश्चय ही बहुत ही दुखद और शर्मनाक परिणाम भोगने पड़ सकते हैं?इस बात पर तो कतई संदेह नहीं किया जा सकता कि बीसवीं सदी में कला के जिस रूप ने भारतीय जनमानस को सर्वाधिक प्रभावित किया है- वह सिनेमा है। फिल्में जिस युग में गुंगी थी उस युग (1913-1930) में भी ई. बिलीमोरिया और डी. बिलीमोरिया के जांबाज कारनामों और सुलोचना व गौहर के रूप माधुर्य की सिर्फ एक झलक देखने के लिए लोग सिनेमा हालों की तरफ खिंचे चले आते थे।
उसके बाद सन् 1931 में ’आलम आरा’ के प्रदर्शन के साथ शुभारम्भ हुआ, सवाल फिल्मों के उस खुशनुमा दौर का, जिसने मनोरंजन के क्षेत्र में एक क्रांति सी ला दी। 1931 से 1970 के बीच हिमांशु राय, देवकी बोस, वी. शांताराम, सोहराब मोदी, विजय भट्ट, केदार शर्मा, महबूब, गुरुदत्त, के. आसिफ, चेतन आनंद, राज कपूर और हृषिदा आदि ने जिस तरह मधुर संगीत, उत्कृष्ट अभिनय और दिलों को छू लेने वाली कहानियों से सजी एक से एक खूबसूरत और मर्मस्पर्शी फिल्में देकर हिन्दी सिनेमा का मान बढ़ाया वह किसी से छिपा नहीं है।
इस दौर में सिनेमा और दर्शक के बीच जो अटूट रिश्ता कायम हुआ, उस रिश्ते को 1970 के बाद हिन्दी फिल्मों के स्तर में आई गिरावट व घरेलू सिनेमा के रूप से उभरे टी.वी. वीडियो जैसे माध्यम भी तोड़ नहीं पाए। आज भी दर्शक उसी शिद्दत और अभिलाषा के साथ सिनेमाहाल पहुंचता है और ब्लैक में टिकट खरीदकर फिल्में देखते हैं। यह बात अलग है कि आज की फिल्में उसे वह आत्मिक संतुष्टि नहीं दे पाती जो 1970 के दौर के पहले की फिल्में देती थी।
यह निःसंदेह स्वीकारना होगा कि आज हिन्दी सिनेमा बल्कि सम्पूर्ण भारतीय सिनेमा तकनीकी रूप से पहले से कहीं अधिक समृद्ध हो गया है। पहले से कहीं ज्यादा खूबसूरत और भव्य सेट देखने को मिल रहे हैं। किन्तु इस तकनीकी समृद्धता और सेटों की भव्यता के फेर में फिल्म निमार्ण की कला जितनी महंगी हो गई उसने फिल्म निर्माताओं का नजरिया ही बदल दिया। अब वह फिल्में समाज की दुखी रगों पर हाथ फेरने, जनमानस के भीतर चेतना लाने या फिल्म कला को समादृत कराने के लिए फिल्में नहीं बनाता बल्कि उसका नजरिया विशुद्ध व्यावसायिक हो गया है।
फिल्म निर्माण में प्रयोग होने वाले कच्चे माल के दामों में आई बेतहाशा वृद्धि और अभिनेता-अभिनेत्रियों के लाखों रुपए का पारिश्रमिकों ने भी बहुत से पुराने निर्माताओं को इस क्षेत्र से अलग हो जाने के लिए विवश कर दिया और उनकी जगह फिल्म कला से सर्वधा अनभिज्ञ जिन विशुद्ध व्यावसायिक घुसपैठियों ने ली उसका परिणाम हम देख ही रहे हैं। जितनी लागत में पहले पूरी एक फिल्म हो जाती थी- उतना रुपया आज फिल्म के दो-चार झन्नाटेदार सेटों और हीरो-हीरोइन के कपड़ों पर खर्च कर दी जाती है।
फिल्म निर्माण में प्रयोग होने वाले कच्चे माल के दामों में आई बेतहाशा वृद्धि और अभिनेता-अभिनेत्रियों के लाखों रुपए का पारिश्रमिकों ने भी बहुत से पुराने निर्माताओं को इस क्षेत्र से अलग हो जाने के लिए विवश कर दिया और उनकी जगह फिल्म कला से सर्वधा अनभिज्ञ जिन विशुद्ध व्यावसायिक घुसपैठियों ने ली उसका परिणाम हम देख ही रहे हैं। जितनी लागत में पहले पूरी एक फिल्म हो जाती थी- उतना रुपया आज फिल्म के दो-चार झन्नाटेदार सेटों और हीरो-हीरोइन के कपड़ों पर खर्च कर दी जाती है।
पहले कहानी लिखे जाने के बाद कहानी के पात्रों पर सटीक बैठने वाले अभिनेता-अभिनेत्रियों का चयन होता था आज पहले अभिनेता-अभिनेत्रियों का चयन होता है और उसके बाद उनके इर्द-गिर्द कहानी का वही घिसापिटा सेक्स व हिंसा से सराबोर तानाबाना बुन लिया जाता है। ताज्जुब की बात तो यह है कि अभिनेता-अभिनेत्रियों का चयन भी निर्माता फिल्म कला से दूर-दूर तक का वास्ता न रखने वाले फाइनेन्सरों की मर्जी मुताबिक किया करते है और बात यहीं खत्म नहीं हो जाती बल्कि बाद में कहानी (?) और संवादों में फेरबदल प्रमुख अभिनेता व अभिनेत्रियों की मर्जी से होता रहता है। इन हालातों में क्या फिल्म बनेगी इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
ताज्जुब की बात तो यह है कि अभिनेता-अभिनेत्रियों का चयन भी निर्माता फिल्म कला से दूर-दूर तक का वास्ता न रखने वाले फाइनेन्सरों की मर्जी मुताबिक किया करते है और बात यहीं खत्म नहीं हो जाती बल्कि बाद में कहानी (?) और संवादों में फेरबदल प्रमुख अभिनेता व अभिनेत्रियों की मर्जी से होता रहता है। इन हालातों में क्या फिल्म बनेगी इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
अब इस पर निर्माताओं का यह कहना कि जो दर्शक चाहते हैं हम वही बनाते हैं - कितना बकवास और हास्यास्पद कथन है उसे सिनेमा की थोड़ी सी मसझ रखने वाला दर्शक भी सहज अनुभव कर सकता है। आज आदमी पहले से कहीं ज्यादा कुंठाग्रस्त और अभिशप्त है वह एक ऐसे अजीब चौराहे पर खड़ा है जहां उसे एक ओर बढ़ती महंगाई, अर्थिक तंगी, अपेक्षा से कम हासिल ओहदे पैसे और व्यवस्था के खिलाफ व्यक्त-अव्यक्त विद्रोह घेरे खड़ा है तो दूसरी तरफ समाज में ऊंचे आसन पर विराजमान लोगों के सजे संवरे शरीर, उनकी मोटरगाड़ियां, आलीशान बंगले और एसो आराम की जिंदगी को देखकर उपजी कुंठा और उस सुख को भोगने का आतुर मन है। ऐसे में व्यक्ति यथार्थ की कडुवाहट से दूर भागकर कल्पना के लोक में खो जाना चाहता है, चाहे यह कुछ घंटों के लिए ही क्यों न हो। सिनेमाहाल के उस अंधेरे माहोल में वह अपने जीवन की सारी उदास हक़ीकतें भूल जाता है। वह गरीबी और व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाते अमिताभ बच्चन में अपना प्रति रूप देखना शुरू कर देता है और तब वह अपने भीतर अमिताभ को जीते हुए उसके सात खून को भी माफ कर देता है उसकी रंगीन मिजाजियों में अपने जवान दिलों की धड़कनें सुनता है। यहां उसके सारे भ्रम यथार्थ हो जाते हैं। सच्चे और झूठ के बीच कोई फर्क नहीं रह जाता और इस दुनिया के बाहर की कोई संस्कृति- राजानीति याद नहीं रहती।अब यदि आम दर्शक की इस निरीह निस्पृह और निश्छल भावनाओं उसके फिल्म देखने की चाहत को आज की 'ओए ओए...' में चहकती युवा दर्शकों की पसंद का जामा पहनाकर प्रचारित किया जाता है तो सिवाय निर्माताओं और फायनेन्सरों की बुद्धि पर तरस खाने के सिवाय और क्या किया जा सकता है। उनके इसी गलत नजरिए का परिणाम है कि फिल्म कला की जिस आधुनिक समृद्ध तकनीक का उपयोग अच्छी सार्थक फिल्मों में होना चाहिए था वह नहीं हो सका। 1970 के बाद अच्छे अभिनेता अभिनेत्रियों का अकाल पड़ गया था। ऐसी भी बात नहीं।
हिन्दी सिनेमा को संजीव कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, नसिरुद्दीन शाह, ओम पुरी और अनुपम खेर जैसे अभिनेता और जया भादुड़ी, जरीना वहाब, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी जैसी अभिनेत्रियों की जानदार पीढ़ी मिली थी। जिन्होंने समय-सयम पर मिले कुछेक अवसरों जैसे खामोशी, कोशिश, आनन्द, नमक हराम, अमरप्रेम, दीवार, स्पर्श, आक्रोश, अंकुर, अर्द्ध सत्य, अर्थ और सारांश जैसी फिल्मों में अपने उत्कृष्ट अभिनय क्षमता का प्रमाण दिया पर बाद में पैसे की चमक ने इन सभी को व्यावसायिक सिनेमा की भेड़चाल में शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया।
इसी दौर में हिन्दी सिनेमा को संजीव कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, नसिरुद्दीन शाह, ओम पुरी और अनुपम खेर जैसे अभिनेता और जया भादुड़ी, जरीना वहाब, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी जैसी अभिनेत्रियों की जानदार पीढ़ी मिली थी। जिन्होंने समय-सयम पर मिले कुछेक अवसरों जैसे खामोशी, कोशिश, आनन्द, नमक हराम, अमरप्रेम, दीवार, स्पर्श, आक्रोश, अंकुर, अर्द्ध सत्य, अर्थ और सारांश जैसी फिल्मों में अपने उत्कृष्ट अभिनय क्षमता का प्रमाण दिया पर बाद में पैसे की चमक ने इन सभी को व्यावसायिक सिनेमा की भेड़चाल में शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया। इस दशक में प्रकाश मेहराओं और मनमोहन देसाइयों जैसे निर्माताओं ने अमिताभ बच्चन जैसे कलाकार की प्रतिमा का जैसा सर्वोत्कृष्ट दुरुपयोग किया वह हिन्दी सिनेमा में घुस आए इन व्यावसायिक घुसपैठियों और उनकी निकृष्ट सोच को स्वयं उजागर करती है।
अब समय आ गया है कि हिन्दी सिनेमा को एक बार फिर उस ऊंचे सिंहासन तक पहुंचाने का प्रयास किया जाए जिस पर वह अब से बीस साल पहले विराजमान था। यह सही है कि वास्तविकता से दूर यानि अयथार्थवादी और आदर्शवादी फिल्मों का अब दौर नहीं रहा। आज तो आम आदमी की जिन्दगी से जुड़ी कहानी उत्कृष्ट अभिनय और मधुर गीत संगीत से सजी फिल्में ही हिन्दी सिनेमा को उसका प्राचीन गौरव वापस दिला सकती है।
This article is from Krishna Kumar Sharma's K K Talkies Series.
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