indian cinema heritage foundation

मै उर्मिला को भूल नहीं पाती - मंजरी

05 Sep, 2020 | Archival Reproductions by Cinemaazi
संगम दो प्रतिभाओं का बड़ौदा के चित्ररंग सिने सर्किल ने गत सितंबर में इन दोनों प्रतिभाओं को सम्मानित किया. रेहाना सुल्तान के हाथों उर्मिला भट्ट सम्मानित हुई और उर्मिला के हाथों रेहाना!

"इतनी बड़ी दुनिया में बिना पुरुष की छाया के रहना, घर की चहार दीवारी से निकलकर काम करना इतना आसान नहीं। साथ चाहे एक नौकर ही क्यों न हो, या छोटा लड़का ही हो, पर पुरुष हो"।

यह था मंजरी से साक्षात्कार! 'फिर भी' की मंजरी से ! मंजरी ! एक साथ करुण, पर संजीदा और प्रोढ़। मेरे सामने बैठी संजीदा, पर हंसमुख उर्मिला भट्ट को मंजरी से मैं अभी अलग नहीं पहचान पा रही हूँ। इस उर्मिला को मंजरी के तनावों से घिरे अस्तित्व में प्रवेश करते समय कितनी अंदरुणी तकलीफ उठानी पड़ी होगी, सोच रही हूँ। और वह है कि सीधे सीधे नकार जाती है सब कुछ।

"मैं मंजरी होऊं चाहे और कोई, मैं कभी उर्मिला को भूल नहीं पायी। शायद यह मेरी कमजोरी है। लेकिन सचमुच मैं कभी परकाया-प्रवेश कर ही नहीं पायी, अपने 'उर्मिला भट्ट' होने का एहसास सदा बना ही रहता है।"

“अजूबा है !“

“शायद ! लेकिन यही कमजोरी मेरे रोल पर कभी फुलस्टाप नहीं लगने देती। बराबर मुझे यह एहसास सताता रहता है कि ’अभी कुछ बाकी रह गया’ बताओ, आगे बढ़ने में यह अजूबा मेरी मदद नहीं करता?

अपनी कमजोरी का ऐसा समर्थन करती है कि जवाब में अपने आप गर्दन हिल जाती है- "जरूर!"

मंजरी: एक चुनौती

"लेकिन क्या 'फिर भी' की मंजरी आपके सामने चुनौती बनकर खड़ी नहीं रही? एक तरफ वह एक युवा बेटी की प्रौढ़ा माँ है, साथ ही साथ एक ऐसी अतृप्ता भी जो जवानी में ही विधवा हो गयी है और अब भी छुप छुपकर तृप्ति की खोज में भटक रही है। आपके लिए यह चुनौती इसलिए विशेष रूप से थी क्योंकि विश्वविद्यालय मे आपने नाट्यशास्त्र पढ़ा था और रंगमंच का काफी गहरा अनुभव आप के साथ था।"

"बेशक ! यह चुनौती भी थी और था फिल्मों में मेरा महत्वपूर्ण कदम ! हाँ, इससे पहले भी एक चुनौती ली थी मैंने, रोल छोटा था, चुनौती बड़ी। ’सघर्ष’ के शाट में दिलीप साहब सामने खड़े थे, लेकिन हरदम वहीं एहसास- 'अभी कुछ बाकी रह गया।'  'फिर भी' पूरी हो गयी तब देखी, लगा बीस में रशेस देखती जाती तो कुछ और जोड़ सकती अपनी तरफ से, वैसे मैं अपनी फिल्म के रशेस कभी देखती नहीं।"

कहने को तो कह दिया कि मैं उर्मिला को भूल नहीं पाती; लेकिन मंजरी की चर्चा चलने लगती है तो उसकी बातें करते नहीं अघाती। मंजरी... वह कुछ इस तरह सवार है उर्मिला पर कि...।

रंगमंच के कलाकारो का कैमरे से नाता जोड़ने में कला-फिल्मों का काफी हाथ रहा। उर्मिला जी भी कुछ इसी तरह जुड़ गयीें। बड़ौदा में नाटकों में पली-बढ़ी। घर में माता पिता को बड़ा शौक। स्कूल के रंगमंच से एक बार भाग खड़ी हुई तो भी हार नहीं मानी थी उन्होंने।

फिर ससुराल मिली, तो भी वैसी ही शौकिन। उर्मिला की 'फिर भी' प्रदर्शित हुई तो सास और माँ दोनों ने साथ साथ देखी और साथ साथ रो पड़ी दोनों ही ! पति के साथ साथ बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय में नाट्यशास्त्र में एम.एम. किया। वे बताती हैं, "अपने नाट्यशास्त्र के कोर्स के लिए मैंने 'अबू हसन' नाम का नाटक हिंदी में रूपांतरित करके पेश किया था और प्रबंध लिखा था 'रस' पर ! मेरे गुरु थे श्री जसवंत ठाकर, श्री सी.सी. मेहता और हाँ, श्री मार्कंड भट्ट-यानी कि... यानी ’वे’ ! मुझे याद है कैसी कैसी तालीम मिली है इन अध्यापकों से। मेरी आवाज खूब पतली थी पहले। उसे रंगमंच के योग्य बनाने के लिए मेरे अध्यापक जसवंत ठकार गांव के बाहर गहरे गड्ढे में से मुझ से डायलाग बुलवाते थे। आवाज बुलद बनाने के लिए!

बचपन की वह झिझक, शर्म पता नहीं कब, कैसे एकाएक सीधी सामने टक्कर देने की प्रवृत्ति में बदल जाती है। पहले शौक के लिए पढ़ने लगी। इतने सारे छात्रों के बीच अकेली छात्रा थी, सो डर के मारे गंभीरता से पढ़ना पड़ा और धुन सवार हुई-कब, कैसे क्या पता?

भूखे भजन ?....

"दस वर्ष तक गुजरात की रंगमंचीय गतिविधियों से बंधी रही हूँ। पति के साथ 'त्रिवेणी' नाट्य संस्था का भार भी वहन करते रही। "इंडियन नैशनल थिएटर के नाटक 'जेसल तोरल' और 'गढ़ जूनो गिरनार' काफी सराहे गये और फिर एक दिन शिवेंद्र सिन्हा के यहां से बुलावा आया। 'फिर भी' की स्क्रिप्ट पढ़ी और मंजरी के रोल में एक आह्वान किला। साथ साथ मिला पति का प्रोत्साहन। बस फिर क्या था!... और अब कैमरे से ऐसा लगाव हो गया है कि 'धरम करम', ’दो नंबर के अमीर’, 'धुएं की लकीर’, ’उमर कैद’, 'अनुमान’, आंदोलन'...."

"ओफ्फोह ! धीरे धीरे ! प्ली ऽऽ ज !!“ नोट करते करते मैं चिल्ला उठती हूँ। दोनों खिलखिला कर हंस पड़ती हैं इसी बात पर, मगर अगले ही क्षण अचानक वे गंभीर होकर कहती हैंः

"इस व्यवस्तता में अपने रंगमंच को उतना समय नहीं दे पाती।"

मैं भी एकाएक चैककर गंभीर बन जाती हूँ। समझ नहीं आता इसे रंगमंच-कलाकार की खुशकिस्मती समझें या बदकिस्मती ! और मुझे चैंका दिया है उन फिल्मों के नामों ने भी, जिन्हें अभी अभी मैं नोट कर चुकी हूँ हड़बड़ी में। 'महज शौक' के पर लगाये कला फिल्मों की ऊंचाइयों तक उछलते उछलते ये लोग आखिरकार व्यावसायिकता की घनेरी घटाओं से घिर ही जाते हैं न ! मेरी इस बात का जवाब देते हुए वे मुझे यथार्थ के नजदीक लाने की कोशिश में हैं। एक तरफ आश्वासन भी देती हैंः

"'फिर भी’ जैसी फिल्मां में काम करना तो आज भी चाहती हूँ। बेहद चाहती हूँ। लेकिन यह बड़ौदा से बार बार बंबई आना और तुम्हारी बंबई के खर्चे उठाना- महज शौक के लिए ! कला फिल्मों के लिए आजकल एफ.एफ.सी. से सहायता मिलती रहती है। तभी तो हौसले बुलंद हैं। नहीं तो भूखे पेट क्या भगवान का भजन और क्या कला का प्रेम !"

"ओह ! यह बात ! रोटी की दुहाई देकर आप लोग बड़ी आसानी से उतर आते हैं व्यावसायिकता में। आप को रोटी दिलवाने वाले दर्शक को क्यों नहीं ऊंचा उठाते ? अपनी कला को परदे में क्यों रखते हैं आप लोग?" कुछ कुछ तिलमिलाहट भरे सुर में मैं कहती हूँ।

वह तनिक हंस पड़ती हैं। चिढ़ाते हुए कहती हैंः

"हुं! समाजवाद का भूत सवार है- लगता है! पगली, यह तो बताओ दो दिमाग कभी एक-से मिले हैं? जब तक यह अंतर रहेगा। तब तक क्लास और मास का अंतर भी रहेगा और रहेगा कला और व्यवसाय का अंतर भी!“

इससे पहले कि मैं पूछूं, “रहेगा जरूर, पर क्या 'रहना चाहिए'! वह बातों को फिर से 'फिर भी' पर ले आती हैं।
 

कुछ किस्से कला-फिल्म के

कला-फिल्म जरूर है यह, लेकिन इसके प्रभाव के कुछ ऐसे ऐसे किस्से सुनने में आये हैं जिन्हें सुनकर वे खुद सकते में आ जाती हैं। कुछ मुझे भी सुनाती हैं। एक बार एक सरदारजी उर्मिलाजी के पास शुक्रिया अदा करने लगे कि, "अब मेरी बीवी मुझे पसंद करने लगी है। और मुझे 'पूर्ण' पुरुष’ बनाने में लगी है। वह अब जान गयी है 'सुमी' ही की तरह कि किसी भी पुरुष में वे सारी-की-सारी बातें एक साथ कभी नहीं मिलतीं, जिनकी वह अपेक्षा करती है। पुरुष को 'पूर्ण पुरुष' तो बनाना पड़ता है!"

'वर्किंग वीमेंस' (नौकरी पेशा महिलाएं) पर प्रबंध लिख रही एक छात्र उर्मिलाजी को ’थैंक्स’ देने आयी- 'फिर भी' देखने के बाद!

एक विधवा की युवा देटी जो इतने दिन शादी से इनकार करती रही थी 'फिर भी' देखते ही अपना इरादा बदल बैठी थी!

हंसते हंसते बुरा हाल-सुनने वाली का भी, वुनानेवाली का भी!

“इस मंजरी ने एवार्ड भी खूब जिताये, बंगाल जर्नलिस्ट्स, यू.पी. जर्नलिस्ट्स, हैद्राबाद जर्नलिस्ट्स फिल्म फैन एवार्ड, न जाने कितने!

लेकिन एक एवार्डवाला वाकया खूब याद रहेगा। मेरे नाम ट्रंककाल आ गया श्री मार्कंड भट्ट-पतिदेव का-वह भी गुजराती रंगमंच के जाने माने कलाकार हैं-वहां से कहने लगे, 'उर्मिला, फौरन चली आओ, मुझे गुजरात स्टेट अकादमी का एवार्ड लिा है। तुम्हें मेरे साथ समारोह में शामिल होना है।’

जवाब में मैंने कहा, 'जी नहीं, 'फिर भी' के लिए मुझे भी बंगाल जर्नलिस्ट्स का एवार्ड मिला है। आप ही को आना पड़ेगा।’ फिर क्या था! अच्छी खासी लड़ाई छिड़ गयी। आपरेटर बेचारी बीच में लोटपोट!“

दूसरा प्यार

"मेरे पहले प्यार के बारे में खूब बकबक की न मैंने...."

"जी ऽऽ! तो श्री भट्ट..."

“घत् !“ फिर शरमाते शरमाते अपने दूसरे प्यार-समाजकार्य का जिक्र करती हैं। लेकिन एक बार बात शुरू हुई कि फिर बच्चों की तरह मचल मचलकर बतियाने लगती हैं। वैसे बात तो बड़े पते की है- उनका समाज-कार्य शुरू होता है कामवाली-महरी के सिर दर्द के इलाज से!... फिर लीलाबेन पटेल के साथ कितनी ही दुखिया बहनों, बच्चों की समस्याओं से जूझने, अकालग्रस्त क्षेत्रों में अनाज बांटने, रिमांड होम और अंधशाला की सहायता करने तक दायरे फैलते जाते हैं.....।

बैसे क्या समाजकार्य, क्या कला-क्षेत्र उर्मिला जी के बायरे बढ़ते ही जा रहे है। हिंदी फिल्मों की महिला कलाकारों की व्यवस्तता उम्र के साथ कम होती जाती है। यहां तो, माँ के रोल का बोलबाला क्या हुआ, व्यस्तताएं घेरने लगीं, दायरे फैलने लगे....।

This is a reproduced article from Madhuri magazine's 18 January 1974 issue
The images used are part of the original article.

  • Share
1120 views

About the Author

 

Other Articles by Cinemaazi

22 Jan,2024

A Painful Parting

18 Oct,2023

Munna

19 Jun,2023

Romance in Our Cinema

07 Jun,2023

Sangam (1964)

25 May,2023

Gandhi: Whose voice?

15 May,2023

Mangal Pandey

02 May,2023

Birbal Paristan Mein

27 Mar,2023

The Film Director?

21 Mar,2023

M Sadiq

20 Feb,2023

Do Dooni Chaar

15 Feb,2023

Rafoo Chakkar

03 Jan,2023

Nav Ratri

03 Nov,2021

An Actor Prepares

03 May,2021

Ankahee: The Unspoken

29 Apr,2021

Children’s Films

04 Nov,2020

Progress In Raw Film

30 Oct,2020

Freedom In Films

03 Sep,2020

Payyal's Lucky Break