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Ab Kise Yaad Hai Ranjan...... अब किसे याद है रंजन की

15 Apr, 2021 | K K Talkies by Krishna Kumar Sharma
Ranjan. Image courtesy: Cinestaan

हमारे यहां अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में ज्यादातर उन्हीं फिल्मी कलाकारों के बारे में छपता है, जिनकी पतंग आकाश पर चढ़ी होती है। केवल उगते सूर्य को नमन करने की इस परम्परा का परिणाम है कि अस्ताचल में जा चुके अनेक महत्वपूर्ण कलाकारों को इस कदर विस्मृत कर दिया गया है कि हमारी नयी पीढ़ी आज उनके नाम से भी वाकिफ नहीं। हिन्दी सिने इतिहास के एक ऐसे ही विस्मृत अध्याय का नाम है- ’रंजन’।

रंजन, हिन्दी फिल्मों में लोकप्रिय होने वाले पहले दक्षिण भारतीय अभिनेता थे। तलवार-बाजी और घुड़सवारी में उनके जैसा निपुण अभिनेता आजादी के बाद हिन्दी सिनेमा में फिर कभी देखने को न मिला। 1950-60 के स्वर्णिम दशक में वे अपनी इसी प्रतिभा के बल पर स्टंट फिल्मों को धार्मिक एवं सामाजिक फिल्मों से भी अधिक लोकप्रियता दिलाने में कामयाब हुए थे। उनकी फिल्मों की व्यावसायिक सफलताओं और उनकी अपनी लोकप्रियता ने छठे दशक (1950-60) में उन्हें हिन्दी फिल्म जगत का सबसे कीमती ’सुपर स्टार’ बना दिया था। वे देश के पहले फिल्म स्टार थे जिन्होंने रोल्स रायस जैसी दुनिया की सबसे कीमती कार खरीदी थी। तेज कार चलाने में उनका कोई मुकाबला न था। 1956 में बम्बई में आयोजित पुरानी माडलों की कार दौर उन्होंने अपनी पुरानी ’सेवरलेट’ के सहारे ही जीती थी। वे बहुत अच्छे विमान चालक भी थे उनके पुराने प्रशंसकों को भी शायद यह बात मालूम न हो कि वे भारतीय फिल्म जगत के सबसे ज्यादा पढ़े लिखे और विद्वान व्यक्ति थे।

2 मार्च 1918 को मद्रास में एक समृद्ध एवं संगीत प्रिय ब्राह्मण परिवार में जन्म रंजन ने 1940 में मद्रास यूनीवर्सिटी से प्रथम श्रेणी में फिजिक्स में एम.एससी. डिग्री हासिल की थी। कलात्मक अभिरुचियां उनके भीतर बचपन से ही थीं। सात वर्ष की आयु से ही उन्होंने अपने संगीतज्ञ पिता आर.एन. शर्मा से वायलिन वादन सीखा। फिर एक सायंकालीन संगीत एवं नृत्य विद्यालय में 12 वर्ष की आयु से उन्होंने कथकली एवं भरत नाट्यम नृत्य सीखना आरम्भ किया। 16 वर्ष की आयु में संगीत एवं नृत्य कला में डिप्लोमा हासिल किया। एम.एससी. करने के उपरांत (1944 में) उन्होंने मद्रास यूनीवर्सिटी से ही नाट्यशास्त्र में एम.ए. किया। संगीत एवं नृत्य कला में शोध कार्य हेतु उन्हें मद्रास यूनिवर्सिटी से फेलोशिप भी प्राप्त हुई थी। उन्होंने मद्रास से तमिल और अंग्रेजी में प्रकाशित विख्यात मासिक पत्रिका ’नाट्यम एण्ड इंडियन डांस’ का लगभग 4 वर्ष तक सम्पादन किया था। फिल्मों की व्यस्तता यहां का आकर्षण उनके पठन-पाठन के बीच कभी रोड़ा नहीं बन सका। नाट्यशास्त्र के गंभीर अध्येता के रूप में उनकी योग्यता से प्रभावित होकर ही अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा कार्यक्रम के अन्तर्गत न्यूयार्क यूनीवर्सिटी ने उन्हें रॉकफेलर फेलोशिप प्रदान की थी। इस विद्वता के कारण ही वे भारतीय फिल्म जगत में बहुत सम्मान की दृष्टि से देखे जाते थे। अब यह अलग बात है कि हमारा हिन्दी सिनेमा उनकी एंसी विलक्षण और बहुमुखी प्रतिभा का समुचित उपयोग न कर सका। उन्हें हमेशा एक स्टंट अभिनेता के रूप में कम एक संगीत एवं नृत्य प्रधान फिल्म में भूमिका करने की तमन्ना थी, जैसा कि उन्होंने फिल्म इंडिया (अगस्त 1956) के अंक में बाबू राव पटेल को दिए गए एक साक्षात्कार में कहा था।

Ranjan in Chandralekha (1948). 


22 वर्षीय रंजन जिन दिनों एम.एससी. (फिजिक्स) में मद्रास यूनीवर्सिटी के एक सांस्कृतिक समारोह में उन्होंने अप्रतिम नृत्य कार्यक्रम प्रस्तुत कर सबको हतप्रभ कर दिया था। उनके इस प्रदर्शन से अभिभूत होकर उस कार्यक्रम में मौजूद तमिल फिल्मों के प्रसिद्ध निर्माता-निदेशक आचार्य ने अपनी आगामी फिल्म ’ऋष्या सिंगार’ (1941) के नायक के रूप में साइन कर लिया। इस फिल्म में उनकी नायिका वसुन्धरा (वैजयन्तीमाला की मां) थीं। इस फिल्म के बाद रंजन को नारदर (1943) जैसी सुपर हिट तमिल फिल्म में काम करने का अवसर मिला। इस फिल्म में रंजन के अभिनय और उसके आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर जैमिनी फिल्मस के निर्देशक एस.एस. वासन ने उन्हें अपनी फिल्म चन्द्रलेखा (1948) के लिए साइन किया। ’चन्द्रलेखा’ के निर्माण के दौरान ही एस.एस. वासन ने रंजन को तलवारबाजी और घुड़सवारी में प्रशिक्षित करवाया। रंजन के लोचदार एवं चुस्त-दुरुस्त शरीर को ये कलाएं बहुत भायी और उन्होंने दो साल तक दिन रात एक करके बड़े मनोयोग से इनमें दक्षता प्राप्त कर ली जो उनके आगामी फिल्मी जीवन का भी आधार बनी। चन्द्रलेखा (1948) को उन दिनों पूरे भारत में ऐतिहासिक सफलता मिली थी। इस फिल्म ने जहां जैमिनी स्टूडियो को स्थापित किया वही रंजन के सफल फिल्मी कैरियर का भी शिलान्यास किया था। यहां उल्लेखनीय है कि 1940-50 के दशक में जान कावस और फेयरलेस नाडिया की जोड़ी ने हिन्दी स्टंट फिल्मों को काफी लोकप्रियता दिला दी थी। पर उनकी जोड़ी सामाजिक फिल्मों के रोमांटिक हीरो हीरोइन की तरह रागात्मक असर छोड़ने में कामयाब नहीं हो सकी थी। इसलिए हिन्दी स्टंट फिल्मों के निर्माताओं का ध्यान चन्द्रलेखा के नायक ’रंजन’ की ओर गया।  फिर उसकी तलवारबाजी और घुड़सवारी में भी जान कावस से भी कहीं ज्यादा दम-खम था। इस तरह हिंदी रजत पट के निर्माताओं से मिले अनेक आकर्षक प्रस्ताओं के फलस्वरूप रंजन 1950 के आरंभ में ’बम्बइया सिनेमा’ में अपनी किस्मत आजमाने आ पहुंचे। यहां उनकी आरंभिक फिल्मों निशान डंका (1952), बगदाद (1952), शिनशिना की बुबलाबू (1952), सिन्दबाद जहाजी (1952), बागी (1953), और शहंशाह (1953) ने जबर्दस्त व्यावसायिक सफलता अर्जित की। खासकर निशान डंका में श्यामा के साथ उनकी जोड़ी बेहद पसंद की गयी जो आगे चलकर उनकी कई फिल्मों जैसे शाही मेहमान (1955), इंकलाब (1956), ताजपोशी (1957), आदि में भी उनकी हीरोइन बनी। ’बागी’ और ’सिन्दबाद जहाजी’ में उनकी हीरोइन नसीमशम्मी थीं। 1950 से 1960 के दशक में रंजन की और भी कई सफल फिल्में आयीं जिनमें राजदरबार (1955), किस्मत (1956), परिस्तान (1957), कमांडर (1959), मदारी (1959), साजिश (1959) एवं एयरमेल (1960) का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। राजदरबार में उनकी हीरोइनें निरूपाराय और आशा माथुर जैसी अभिनेत्रियां थी, जबकि परिस्तान में उनकी हीरोइन शकीला थी। उस जमाने की बेहद खूबसूरत अभिनेत्री चित्रा जो मदारी (1959) में पहली बार उनकी हीरोइन बनकर आई थी के साथ भी रंजन की जोड़ी बेहद पसंद की गई थी। यही चित्रा आगे चलकर उनकी कई सफल फिल्मों जैसे हावड़ा एक्सप्रेस (1961), माया जाल (1962), चैलेंज (1964) और जादू (1964), आदि में भी उनकी हीरोइन बनी और स्टंट फिल्मों की सफलतम हीरोइन कहलाई।

इन प्रमुख अभिनेत्रियों के अलावा भारती देवी फिल्म बगदाद (1952), शम्मी फिल्म बागी (1953), कामिनी कौशल फिल्म शहंशाह (1953), पीस कंवल फिल्म किस्मत (1956), नलिनी चोकर फिल्म साजिश (1959), ज्योति फिल्म एयरमेल (1960) और सपेरा (1961), शशिकला फिल्म फ्लाइट टू आसाम (1961), विजया चैधरी फिल्म जादू नगरी (1961), भूतनाथ (1963) और प्रोफेसर एक्स (1966), जबीन फिल्म खिलाड़ी (1961), हेलन फिल्म हवामहल (1962) और फ्लाइंग मैन (1965), शालिनी फिल्म सखी राबिन (1962), नसरीन फिल्म मेजिक बाक्स (1963), फ्लाइंग सर्कस (1964) और हकदार (1964) और लिलियन फिल्म एक्सीडेन्ट (1965) में उनकी हीरोइनें थी।

लोगों को याद होगा कि रंजन की फिल्मों में उनके सहयोगी पात्र के रूप में एक सफेद घोड़ा (जिसका वास्तविक नाम बेनहूर था), एक एलसीसीएन कुत्ता (टाइगर) और उनकी अपनी पुरानी सेवरलेट गाड़ी (रामप्यारी) अक्सर मौजूद रहते थे। यह रंजन के ही बूते की बात थी जिसके फलस्वरूप निर्माता निर्देशकों को फिल्म के टाइटल्स (नम्बरिंग) में उनके इन स्तेहमयी ’सहायक पात्रों’ के नाम पूरी प्रमुखता के साथ बतौर कलाकार देने पड़े। रंजन की सफल फिल्म ’हाउड़ा एक्सपे्रस’ के टाइटल्स में बेनहूतर (घोड़ा), टाइगर (कुत्ता) और रामप्यारी (मोटर कार) का नाम पूरी प्रमुखता के साथ पर्दे पर आता था, यह मुझे आज भी अच्छी तरह याद है। उनके फिल्मी कैरियर के अंतिम सालों में जबकि ’बेनहूर’ बूढ़ा और कमजोर हो गया तो उन्होंने अपनी फिल्म में ’मुश्ताक’ नाम के दूसरे घोड़े का इस्तेमाल किया था। मुश्ताक को रंजन की अंतिम फिल्म प्रोफेसर एक्स (1966) में भी देखा जा सकता है।

’रंजन’ का चूंकि हिन्दी, अंग्रेजी के अलावा तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम भाषाओं पर भी पूरा अधिकार था, इसलिए उन्हें दक्षिण भारतीय भाषाओं में निर्मित अनेक (लगभग 30) फिल्मों में काम करने का मौका मिला। इस तरह दक्षिण भारतीय सिनेमा और बम्बइया हिन्दी सिनेमा में समान रूप से लोकप्रिय होने वाले प्रथम अभिनेता होने का उन्होंने गौरव हासिल किया। ’रवीन्द्र संगीत’ को पूरी अंतरंगता से समझने की खातिर 1930 में उन्होंने अपने दोस्त और पड़ोसी अमिय चक्रवर्ती (दाग, पपिता और सीमा जैसी फिल्मों के निर्माता) के सहयोग से बंगाली भाषा भी सीखी थी। पर बंगाली फिल्म में काम करने का उनका वह सपना न पूरा हो सका जिसकी कागजी योजना कर चुके थे। रंजन अपने मित्र अमिय की एक सफल फिल्म शहंशाह (1953) में नायक की भूमिका निभा चुके थे।
 
Image courtesy: dtnext.in

लगभग 25 साल (1941-1966) तक फिल्मों से जुड़े रहने वाले रंजन ने 1966 में फिल्मों से सन्यास ले लिया और पूरे सत्रह साल एक अवकाश प्राप्त अभिनेता का शांतिप्रिय जीवन बिताया। हालांकि इस बीच उन्होंने ’रंजन होटल’ की स्थापना और उसके कुशल संचालन में भी अपने आपको व्यस्त रखा। अवकाश के दिनों में अध्ययन के अलावा उनके दो प्रमुख शौक थे एक तो बढ़िया से बढ़िया विदेशी सिगरेट मंगाकर धुए के छल्ले बनाना (यह कला प्राण ने उन्हीं से सीखी थी) और शतरंज की बाजी जमाना जिसके लिए यूनियन पार्क में ’सज्जन’ अमिय चक्रवर्ती, अल नासिर (अभिनेत्री वीना के पति), भगवान दास वर्मा (अभिनेत्री  पूर्णिमा के पति) और एम. सादिक (रतन और शबाब जैसी फिल्मों के निर्माता) और हास्य अभिनेता गोप जैसे पड़ोसियों की पूरी मंडली मौजूद थी। लेकिन 1978 के आसपास ’परलोक विद्या’ जादू टोने और अशरीरी तत्वों (भूत-प्रेतों) के प्रति जागृत हुई उनकी रुचियों ने 1980 तक आते-आते भयावह रूप धारण कर लिया था। वे बम्बई के श्मशानों में जाने लगे और वहां से लाने लगे खोपड़ियां और हड्डियां। उनका घर कापालिकों और तांत्रिकों का अड्डा बन गया था। उनके यहां आए दिन काला जादू के अनुष्ठान होने लगे जो उने पड़ोसी और घनिष्ठतम मित्र अभिनेता सज्जन से छिपा नहीं था। कोई सात साल पहले (1985 के आसपास) नेशनल स्कूल आफ ड्रामा, नयी दिल्ली में वहां के छात्रों/स्कालार्स के मार्ग निर्देशन हेतु अभिनेता सज्जन को आमंत्रित किया गया था। तभी मुझे उनसे मिलने का सुयोग प्राप्त हुआ और उन्हीं से मुझे पैशाचिक अभिशाप से ग्रस्त मम्बई के ’यूनियन पार्क’ और रंजन की मौत का वह रहस्य मालूम हुआ जो उनके जैसा निकटस्थ मित्र, प्रत्यक्षदर्शी और भुक्तभोगी ही बता सकता था। उस रहस्यपूर्ण कथा का जिक्र मैं यहां अलग से कर रहा हूं। यहां उल्लेखनीय है कि सज्जन भी रंजन और गुरुदत्त की तरह नृत्य कला में प्रवीण अभिनेता थे। पर दुर्भाग्य से इन अभिनेताओं की यह विशिष्ठ प्रतिभा किसी फिल्म में उजागर न हो सकी।

5 सितम्बर 1963 को रंजन जैसा विद्वान और कलात्मकता से भरा सुकुमार व्यक्तित्व हमेशा-हमेशा के लिए उस लोक में चला गया जिसे परलोक कहते हैं। उन्हें गुजरे हुए पूर 9 साल बीत चुके हैं लेकिन इस बीच (बल्कि पिछले 25 सालों में) शायद कभी किसी पत्र-पत्रिका में उन्हें याद किया गया हो। दूरदर्शन भी उनकी किसी फिल्म या गीत दृश्य का प्रसारण करता नजर नहीं आया। उनकी कई फिल्मों के गाने रेडिया पर अवश्य सुनने को मिल जाते हैं। ’सखी राबिन’ (1962) में पर्दे पर (मन्ना डे व सुमन कल्याणपुर की आवाज में) शालिनी के साथ गया गया उनका लोकप्रिय गीत- तुम जो आओ तो प्यार आ जाए, जिन्दगी में बहार छा जाए। रेडिया पर जब भी सुनता हूं तो आज भी वी.एम. व्यास, तिवारी, हीरालाल, श्याम, उल्हास और जीवन जैसे खलनायकों को अपनी तलवार से नचाते रंजन की याद ताजा हो उठती है।
Ranjan and Mukri in Shahenshah (1953). Image courtesy: Pinterest.

तभी एक मौत और हुईः अखबारों में ’यूनियन पार्क’ के बारे में सुनकर नवाब पालनपुर (जो यूनियन पार्क में शिफ्ट होने का मन बना चुके थे और कुछ सामान भी वहां पहुंचा चुके थे) मारे दहशत के फिर वहां आए ही नहीं। बल्कि एक ज्योतिषी के मशवीरे पर उसी हफ्ते उन्होंने उस कोठी को बेचने के लिए ’टाइम्स आफ इंडिया’ में विज्ञापन प्रकाशित करवाया। पर उस इलाके की जो ’शोहरत’ पूरी बम्बई में फैल चुकी थी उससे कोई भी उसे वास्तविक लागत दाम पर भी खरीदने के लिए तैयार नहीं हुआ। बल्कि विज्ञापन छपने के आठवें दिन एक खौफनाक हादसा उन्हीं की कोठी पर हो गया। उस भव्य और खूबसूरत कोठी की देखभाल करने वाला चैकीदार एकरोज मरा पाया गया। मृत्यु के बाद भी उसका चेहरा खौफ और दहशत से भरा लगता था। ऐसा प्रत्यक्षदर्शी सज्जन ने बताया।

रंजन की वह खौफनाक मौतः ’यूनियन पार्क’ कालोनी में अन्य कलाकारों की दहशत भरी मौत ने अभिनेता को भी ’पैशाचिक अभिशाप’ के अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ा। उन्होंने दक्षिण भारत और बंगाल के सुविख्यात तांत्रिकों और कापालिकों को यूनियन पार्क में आकर वहां व्याप्त ’पैशाचिक अभिशाम’ को शांत करने के लिए अनुष्ठान करने को कहा। कई महीने तक क्रमवार ये अनुष्ठान चलते रहे। इसी दौरान खुद रंजन (जो पहले कई जादू वाली फिल्मों में नायक की भूमिका अदा कर चुके थे) भी इन तांत्रिकों और कापालिकों के निर्देशन में परलोक विद्या और अशरीरी तत्वों (भूत-प्रतों) से बात करने जैसी तंत्र विद्या सीखने लगे और धीरे-धीरे उनमें इस कदर रुचि आग्रत हो गयी कि वे बम्बई श्मशान घाटों में रात डेढ़-दो बजे पहुंच जाते और वहां से थैले में खोपड़ियां और हड्डियां भर लाते। उनका एक कमरा ऐसी खोपड़ियों और हड्डियों से भर गया था। शतरंज खेलने और विदेशी सिगरेटों को फूंकने आदि के शौक एकाएक एकदम खत्म हो चुके थे। रंजन के स्वभाव में आए इस बदलाव के कारण उनके घनिष्ठ मित्र सज्जन ने भी घर आना-जाना कम कर दिया था फिर सज्जन को उनके घर जमा खोपड़ियों और वहां हमेशा जमा रहने वाले तांत्रिकों और कापालिकों को देखकर ही डर लगता था।

पर रंजन की इन रुचियों की भयावह परिणति एक रोज उस समय पैदा हुई जब अपने बंद कमरे के दोनों कपाट बड़ी तेजी से खोलकर वे कमरे की बालकानी में आ गए और अपने दोनों हाथ हवा में लहरा कर जोर-जोर से अट्टहास करने लगे। यह घटना अगस्त 1983 की एक शाम की थी।

रंजन के दोनों हाथों में एक-एक नरमुंड था जिनकी आंखों की जगह चमकदार कौड़ियां लगी थीं। रंजन सिर्फ एक जांघिया पहने थे और शेष बदन नंगा था। उनकी दोनों आंखें मानो जल रही थी और वे जोर-जोर से चीत्कार कर रहे थे- ’सब लोगों को मार डालो................सबको’ मार डालो उन सबको जिन्होंने यहां आकर मेरी शांति भंग की है’.... मार डालो सालों को.....

रंजन जैसे शांतप्रिय व्यक्ति के मुंह से ऐसे अनर्गल प्रलाप और चीत्कारों को सुनकर आजू-बाजू के लोग अपने-अपने घरों से निकल आए लेकिन उनकी उस भयावह छवि को देखकर किसी की हिम्मत उन तक जाने की नहीं हुई। अन्ततः उनके घनिष्ठ मित्र सज्जन उन्हें संभालने को आगे बढ़े। लेकिन रंजन ने सज्जन को जोर से धक्का देकर ढकेला दिया और दांट किटकिटाकर बोले - तुम्हे भी देख लूंगा मैं, तुम्हें भी। तुमने भी मेरे अमन-चेन में खलल डाला है।

सज्जन मुस्करा कर बोले- “यह किस फिल्म की रिहर्सल कर रहे हो रंजन”।

सब पता चल जाएगा सब कुछ रंजन चिल्लाएं। तुम मुझे जानते नहीं हो पर अब जल्दी पता चल जायेगा कि मैं कौन हूं।

सज्जन ने घर वापस आकर टेलीफोन करके डाक्टर बुला लिया तो लोकूमल बुधरानी ने घबराहट में पुलिस थाने फोन कर पुलिस बुला ली।

बेकाबू उग्र और हिंसक हो उठ रंजन को किसी तरह एंबुलेंस में लाद कर अस्पताल ले जाया गया। वहां डाक्टरों ने उन्हें ठीक ’सुशील’ की तरह ’पागल’ घोषित कर दिया। उसी मानसिक अस्तव्यस्तता में उनके घर के लोग उन्हें मद्रास ले गए और फिर मद्रास से न्यूयार्क। पर अन्ततः ’यूनियन पार्क’ के कुख्यात ’पैशाचिक अभिशाप’ ने 5 सितम्बर 1983 को रंजन जैसे महान अभिनेता को हमेशा की नींद सुला दिया।

बाद में खुद सज्जन ने भी इन लगातार हादसे से घबराकर और यूनियन पार्क में मंडराती मौत की छाया से बचने के लिये अपना भव्य और आलीशान मकान सैयां छोड़ दिया और वे मलाड में किराये के एक मकान में रहने आ गए। पर यूनियन पार्क में आने से पहले सैयां जैसी सुपरहिट फिल्म का यह नायक तमाम प्रतिभा के बावजूद बदकिस्मती का ही शिकार रहा। नायक के रूप में जैमिनी की दो दुल्हे (1955) उनकी आखिरी फिल्म साबित हुई। यहां तक फिल्मों में सहायक अभिनेता के रूप में भी उन्हें कोई ज्यादा काम न मिल सका और अन्तिम दिनों में इस महान प्रतिभाशाली अभिनेता को दूरदर्शन के ’वैताल पच्चीसी’ और धारावाहिक में विक्रमादित्य (अरूण गोविल) की पीठ पर चढ़े रहने वाले ’वैताल’ की भूमिका निभानी पड़ी।

यहां उल्लेखनीय है कि जिस कोठी में अभिनेत्री पूर्णिमा और उनके पति भगवान दास वर्मा रहते थे विजय आनन्द (निर्माता निर्देशक) ने खरीद लिया लेकिन यहां आने के दो महीने के भीतर ही उनकी पत्नी उन्हें छोड़कर चली गई। विजय आनन्द का यहां सिर्फ सुखी दाम्पत्य जीवन ही बर्बाद नहीं हुआ बल्कि उनका फिल्मी कैरियर भी चैपट हो गया।

क्या इन तमाम घटनाओं को महज संयोग कहा जा सकता है?

Part of Krishna Kumar Sharma's K K Talkies Series. The images in the article did not appear with the original and may not be reproduced without permission.
 

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