Kahan lupt ho gayee..... कहां लुप्त हो गई फिल्म की वह शास्त्रीय धारा
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भारतीय शास्त्रीय संगीत को विभिन्न राग-रागनियों से समृद्ध करने और उसे लोकरंजन का माध्यम बनाने में स्वामी हरिदास व तानसेन से लेकर उस्ताद अब्दुल करीम खां, उस्ताद अमीर खां, बड़े गुलाम अली खां, पं. विष्णु नारायण भातखंडे, पलुस्कर व पं. कृष्णराव, आदि संगीतचार्यों का जो योगदान रहा है वह तो स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य है ही किन्तु उसे सुगम संगीत के रास्ते से जन-जन तक पहुंचाने में जो भूमिका हिन्दी सिनेमा ने निभाई है वह भी कम नहीं।
यों तो भारीतय सिनेमा के मूकयुग (1931-1970) में ही संगीत का प्रयोग आरम्भ हो चुका था किन्तु 1931 में ’आलमआरा’ के प्रदर्शन के साथ जैसे ही भारतीय सिनेमा ने ’सवाक युग’ में प्रवेश किया वैसे ही फिल्मों में गति संगीत की महत्वा भी बढ़ गई। खासकर 1936 में ’पाश्र्वगायन’ के प्रयोग से फिल्मों की लोकप्रियता में भी चार चांद लग गए। अब पर्दे पर रूप, आवाज और संगीत का अभूतपूर्व संगम था। पाश्र्वगायन के चलन के यदि आने वाले 35 वर्षों में (यानि 1970 के आसपास तक) हिन्दी फिल्मों ने ’शास्त्रीय रागों’ पर आधारित ऐसे हजारों मधुर सरल और सरल गीतों की सर्जना की जिनकी मिठास और अनुभूति की प्रखरता को युगों तक महसूस किया जाएगा।
इस युग के प्रमुख फिल्म संगीतकारों जैसे झण्डे खां, श्याम सुन्दर, सरस्वती देवी, आर.सी. बोराल, गुलाम हैदर, गुलाम मोहम्मद, खेमचन्द प्रकाश, अनिल विश्वास, हुसनलाल भगतराम, नौशाद, एस.डी. बर्मन, सी. रामचन्द्र, बसंत देसाई, एस.एन. त्रिपाठी, शंकर जयकिशन, मदनमोहन, हेमंत कुमार, रौशन, खैय्याम, ओ.पी. नैयर, रवि, सलिल चैधरी व जयदेव आदि ने जिस प्रकार शास्त्रीय रागों के कहीं विशुद्ध प्रयोग से तो कहीं उनके स्पर्श मात्र से फिल्मी गीतों में मधुरता, प्रभावोत्पादकता और जीवंतता पैदा की वह स्वयं ही उनकी अद्भुत सामथ्र्य का परिचय है।
इसे हिन्दी सिनेमा का सौभाग्य ही कहा जाएगा कि ऐसे महान फिल्म संगीतकारों व गीतकारों के युग में सहगल, पंकजमलिक, के.सी. डे, सी.एच. आत्मा, प्रदीप, दुर्रानी, सुरेन्द्र, चितलकर, रफी, तलत, मन्ना डे, मुकेश, हेमंत कुमार, बर्मन दा, किशोर और मेहेन्द्र कपूर, जैसे गायकों और नूरजहां, शमशाद बेगम, राजकुमारी, सुरैया, गीता दत्त, लता, आशा और सुमन कल्याण्पुर जैसी गायिकाओं का भी उदय हुआ।
1931 से 1970 के इस यादगार दौर में निर्मित कुल 4356 फिल्मों के लगभग 35000 गीतों में से कम से कम 3000 गीत ऐसे चुने जा सकते हैं जो न केवल शास्त्रीय दृष्टि से बल्कि शाब्दिक रचना व काव्यात्मक प्रभाव की दृष्टि से भी उत्कृष्ट साहित्य की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। इन फिल्मों में कुछ संगीत प्रधान फिल्में तो ऐसी थी जिनके मधुर शास्त्रीय गीतों ने आम आदमी को शास्त्रीय संगीत सीखने के लिए प्रेरित किया। तानसेन, संगीत सम्राट तानसेन, बैजू बावरा, शबाब, बसंत बहार, मेरी सूरत तेरी आंखें, नौ बहार, चोरी-चोरी, गूंज उठी शहनाई, भाभी की चूड़ियां, सीमा, ममता व अनुराधा आदि फिल्में इस श्रेणी में रखी जा सकती है।
फिल्म ’स्वर्ण सुन्दरी’ का मधुरतम गीत ’कुहु कुहु बोले कोयलिया’, मुगले आजम का ’प्रेम जोगन बन के’, संगीत सम्राट तानसेन का ’झूमती चल वहा’ जैसे उत्कृष्ट शास्त्रीय गीत राग सोनी के गर्भ से जन्मे। ’मन तड़पत अरि दर्शन को आज’ (फिल्म बैजू बावरा), राग मालकौंस पर ’छम छम नाचत आई बहार (छाया), राग बसंत पर, ’डर लागे गरजे बदरिया’ (रामराज्य) राग मेघ मल्हार पर ’ये री मैं तो प्रेम दिवानी’ (नौबहार) राम भीम पलासी पर ’जिया ले गयो री मीरा सांवरिया (अनपढ़), राग यमन पर ’हाय रे हाय वो दिन क्यों न आए’ (अनुराधा), राग कलावती पर ’पवन दीवानी न माने उड़ावे घुंघटा (डा. विद्या), राग बहार पर ’रसिक बलमा हाय दिल क्यूं लगाया तोसे (चोरी चोरी), राग भूप कल्यान पर मनमोहना बड़े झूठे (सीमा), राग जयवंती पर पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई (मेेरी सूरत तेरी आंखे) और मोहे भूल गए सावारिया (बैजू बावरा) राग वसंत पर ज्योति कलश छलके (भाभी की चूड़ियां) राग भूपाली तेरे नैना तलाश करें (तलाश), राग छायानट पर रूम रूम चाल तिहारी (तानसेन), राग संकटा पर सकल गगन मन पवन चलत पुरवाई (ममता), राग खमाजी बहार, आज गावत मन मेरो झूम के (बैजू बावरा), राग देवी पर और मधुवन में राधिका रे (कोहिनूर), राग हमीर पर आधारित है।
फिल्मी संगीतकारों ने कुछ पुरानी बंदिशों को जिस तरह सरल रूप में पेश करके उन्हें अधिक लोकप्रिय बनाया वह निश्चय ही उनकी विलक्षण सर्जनात्मक शक्ति का प्रमाण है। उदाहरण के तौर पर पं. विष्णु नारायण भातखंडे की एक बंदिश गरजत बरसत भीजत आयो रे को गरजत बरसत सावन आयो रे के रूप में स्वामी हरिदास की रचना सप्त सुरन तीन ग्राम उनचास कोटि तान को फिल्म संगीत सम्राट तानसेन में और उस्ताद अब्दुल करीम खां की प्रसिद्ध ठुमरी कैरो आऊं यमूना के तीर को फिल्म देवता में खूबसूरत धुनों में पिरो कर उन्हें जन-जन तक पहुंचा दिया।
शास्त्रीय धुनों पर आधारित ऐसे सैकड़ों हजारों फिल्मी गीत हैं जिन्हें जितनी बार सुने उनकी मधुरता खत्म नहीं होती। किन्तु इधर पिछले दो दशकों से भारतीय फिल्म संगीत पर पाश्चात्य संगीत का जो प्रभाव बढ़ा है उससे फिल्म संगीत की वह मधुर धारा अवरुद्ध सी हो गई है।
अब समय आ गया है कि इस धारा को एक बार फिर प्रवाहित किया जाए। इसके लिए फिल्मकारों को पाश्चात्य संगीत का मोह त्याग कर एक बार शास्त्रीय और लोक धुनों पर आधारित पुराने संगीत को स्थापित करना होगा। जिस तरह आज टी.वी. पर पुरानी फिल्मों के गीतों पर आधारित अन्ताक्षरी, सरेगम और अन्य कार्यक्रम देखे सुने जाते हैं वे इस बात के प्रमाण हैं कि मधुर संगत के प्रति दर्शकों की रुची न कभी बदली थी न बदली है और न बदलेगी। पर इस सबके बावजूद धन के लोभ और सस्ती लोकप्रियता के मोहजाल में उलझकर यदि हमारे संगीतकार देश के करोड़ों फिल्म संगीत प्रेमियों को भारतीय संगीत से वंचित रेखते हैं तो इसे होने वाले दुष्परिणाम को सेहरा उनके सर पर ही होगा।
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About the Author

Krishna Kumar Sharma is a film enthusiast who enjoys researching and writing on old cinema.