फिल्म और आलू बेचने में कुछ तो बुनियादी फर्क हो
04 Sep, 2021 | K K Talkies by Krishna Kumar Sharma
कितनी सदियां और कितने युग बीत गए, लेकिन मनुष्य के संघर्षमय जीवन की कहानी खत्म नहीं हुई। यह जानते हुए भी कि श्रेष्ठता का कोई बिन्दु अंतिम नहीं, कला की कोई ऊंचाई सबसे ऊचाई नहीं, वह आज भी किसी अनछुई ऊचाई को छूने की चाह में आगे और आगे बढ़ा ही चला जा रहा है।
ऐसी दुर्गम जीवन यात्रा में मनुष्य ने भोजन और विश्राम के बाद जिस अन्य वस्तु की कामना की है वह है- मन बहलाने की। उसने चाहा है कि अपनी व्यस्त दिनचर्या में कुछ क्षण हंस-मुस्करा ले, मनो-विनोद कर ले ताकि यात्रा के थके हुए हाथ-पैर और भारी मन कुछ हल्के हो जाएं। मनोरंजन के प्रति इस सहज आकर्षण के फलस्वरूप ही उसने मनबहलाव के नये-नये साधन ढूंढे।
नाट्यकला के भीतर चूंकि साहित्य संगीत, चित्रकला, शिल्प और अभिनय जैसी विभिन्न श्रेष्ठ कलाओं का अद्भुत समागम था, इसलिए इस बहुरंगी कला ने भारतीय जनमानस के भीतर अपना सहज और रागात्मक असर घोला। संभवतः इसीलिए यह कला बहुत लम्बे समय तक विभिन्न कलात्मक स्वरूपों के बीच सिरमौर बनी रही।
लेकिन सृष्टि ने जैसे ही वैज्ञानिक युग में प्रवेश किया, मनुष्य की सारी मान्यताएं और रुचियां भी सहसा बदल गई। इस अपूर्व युग में पुराने ढंग के नाटकों, नौटंकियों और रासलीलाओं आदि के प्रति उसका आकर्षण कम होने लगा था। इसीलिए अब वह अपने पहले से अधिक व्यस्त जीवन के लिए ऐसे साधन जुटाने में मशगूल हो गया जो उसे कम से कम समय में अच्छे से अच्छा और शिक्षाप्रद मनोरंजन देने में समर्थ हो। अन्ततः वह सिनेमा, रेडियो टेलीविजन और वीडियो जैसे साधन के रूप में समादृत हुई। इसकी विशालता और प्रभावोत्पादकता हमें भारतीय नाट्यशास्त्र के आचार्य भरत मुनि की उस उक्ति का स्मरण कराती है जिसमें उन्होंने कहा था कि,
न तज्ज्ञानम् न तत्शिल्पम्
न सा विद्या न सा कला।
न सा योगा न तत्कर्म
नाट्येस्मिन्न दृश्यते।।
अर्थात - ’न कोई ऐसा ज्ञान, न कोई ऐसी कला, न कोई ऐसा शिल्प और न कोई ऐसी विद्या है, जिसका नाट्यकाला में प्रयोग न किया जाता हो।’
जिस जमाने में सिनेमा आया उस जमाने में हमारे यहां पेशेवर थिएटर काफी शोहरत और नाम कमा चुके थे। हालांकि इन पेशेवर थिएटरों में तब कोई ऐसी बात नहीं दिखाई देती थी जो उन्हें ज्यादा दिन जिंदा रख पाती। इनमें से ज्यादातर थिएटर कम्पनियों का सामूहिक जीवन तो खोखला था ही, इनके पेश किए गए नाटकों में भी ऐसी कोई बात न थी जिसके आधार पर उन्हें कलात्मक कहा जा सकता। इन नाटकों में ज्यादातर अलिफ-लैला के किस्से थे जिनका जीवन की असलियत से दूर-दूर तक सम्बन्ध न था। पर उन दिनों मनोरंजन के अच्छे साधनों के अभाव में लोगों के पास थिएटर हाल में शाम गुजारने के अलावा कोई दूसरा चारा भी न था। सो तमाम कमजोरियों के बाद भी ये थिएटर चल रहे थे। लेकिन चौथे दशक में पर्दे की चलती-फिरती गूंगी तस्वीरे बोल उठीं तो थिएटर की सारी भीड़ सिनेमाहालों में जुटना शुरू हो गई और देखते ही देखते सिनेमा ने इस कदर लोकप्रियता हासिल कर ली कि आने वाले सालों में हमारे देश में थिएटर का अस्तित्व ही डगमगा गया।
वास्तव में यह थिएटर कला की नहीं बल्कि समय के साथ उसमें आई कुछ कमजोरियों की पराजय थी। जिन मुल्कों में थिएटर की बुनियादी मनोरथ को समझा गया वहां सिनेमा की असाधारण लोकप्रियता भी उसका कुछ न बिगाड़ सकी। उदाहरण के तौर पर इंग्लेण्ड में आज भी थिएटर अपनी जगह अटल है। इतना ही नहीं बल्कि वहां की फिल्मी दुनिया अच्छे अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और कथानकों के लिए थिएटर की मोहताज रहती हैं। आखिर क्यों? इसके सबके पीछे एक ही कारण है कि वहां के थिएटर वहां के सामाजिक जीवन की असलियत से बहुत गहराई तक जुड़े हैं। वे अखबार और सिनेमा की तरह ही जन सामान्य की पीड़ाओं को उजागर करते हैं। नाटक के मामूली से मामूली पहलू को भी जिस गंभीरता और कलात्मकता से निभाया जाता है, उसका हमारे यहां सर्वथा अभाव दिखाई देता है। पर यहां विदेशी थिएटर के इस गुणगान का यह अर्थ कदापि न लिया जाए कि हमारे यहां का थिएटर निष्प्राण है। बंगाल और महाराष्ट्र जहां थिएटर की मूल भावना को समझने की कोशिश की गई वहां थिएटर आज भी जिंदा है। शंभू मित्रा, उत्पल दत्त, पृथवीराज और बलराज साहनी जैसी फिल्मी हस्तियां इस थिएटर की ही देन हैं। बहरहाल....।
बम्बई! यहां के सेन्ट्रल, बी.टी. और दादर स्टेशनों पर न जाने कितने युवक-युवतियां हिन्दी सिनेमा के ग्लेमर के मोहजाल में फंसकर देश के कोने-कोने से आकर उतरते हैं। इनके सामने होते हैं- दिलीप कुमार, राज कपूर, देवनान्द, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन बनने के सपने। साथ होते हैं संघर्ष के जांबाज किस्से और सितारों की चमक की झूठी कहानियां।
यहां इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि इस भीड़ में से ही कुछ नौजवान अपने जीवन संघर्ष, अपने आत्मविश्वास और अपनी प्रतिभा के बल पर नसीरूदद्दीन शाह, ओमपुरी और अनुपम खेर जैसे अप्रितम कलाकार के रूप में उभर कर सामने आते हैं।
इस फिल्मी दुनिया में ऐसे सैकड़ों पुराने कलाकार काम ढुंढते मिल जाएंगे, जिन्होंने अपने जमाने में बेमिसाल अभिनय से सैकड़ों लोगों का दिल जीता। पर बाद में जिनकी अप्रतिम प्रतिभा का सार्थक उपयोग हमारा हिन्दी सिनेमा नहीं कर सका। जहां इस उद्योग को जीवन देने वाले इन पुराने कलाकारों के साथ यह सलूक हो, वहां इन नए आए युवक-युवतियों के प्रति इस चतुर-चालाक और मायावी दुनिया से दया ममता की क्या उम्मीद की जा सकती है? सिनेमा जैसी महान कला को व्यापार बनाने वाले इन आज के रईसजादों में ज्यादातर चेहरे उन लोगों के हैं जो कुछ कर गुजरने के जज्बों से भरे इन मासूम युवकों और खासकर युवतियों को सुनहरे सपनों का संसार दिखाकर उनका भरपूर शोषण करते हैं।
इस सबके बावजूद सिनेमा इस युग की एक महानतम कला है। ऐसी कला है जिसकी मूल भावना गंगा की तरह निर्मल और पवित्र है। यदि इसे अभीष्ट सक्षम नहीं बनाया जा सका तो इसके लिए वह दृष्टिकोण ही उत्तरदायी है जिसने सिनेमा को व्यावसायिक सिनेमा और कला सिनेमा जैसे दो मूर्खतापूर्ण हिस्सों में बांट दिया। यह सही है कि एक फिल्म बनाने में लाखों करोड़ों रुपया फंसाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में इसे व्यवसाय से दूर नहीं रखा जा सकता। पर फिल्म और आलू बेचने में कुछ तो बुनियादी फर्क हो। महज तात्कालिक सफलताओं और धन बटोरने की खातिर मनमोहन देसाइयों और प्रकाश मेहराओं जैसे सिनेकला के सफल व्यापारियों ने भारतीय सिनेमा को आज उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से समाज के लिए खरतनाक परिणामों के अलावा और कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है।
दूसरी तरफ हिन्दी सिनेमा में आज अलग राह बनाकर खड़े कला या सार्थक सिनेमा से जुड़े लोगों की जमात है। मैंने ’सारा आकाश’, ’भुवनसोम’ से लेकर 'अंकुर’, ’आक्रोश’, ’गमन’, ’चक्र’, ’अर्थ’, ’अल्बर्ट पिन्टो को गुस्सा क्यो आता है’, ’सतह से उठता आदमी’, ’मंडी’, ’पार्टी’, ’खण्डहर’, ’स्पर्श’ ’मोहन जोशी हाजिर हो’, ’गिद्ध’ ’एक पल’, ’पार’, ’दामुल’, ’सारांश’ और ’मैसी साहब’ तक वे फिल्में देखी हैं जो कला फिल्मों के प्रभा मण्डल के भीतर आती हैं। इसमें कोई शक नहीं इन फिल्मों में से अधिकांश ने बेहद आंदोलित और प्रभावित किया है। उच्चकोटि के कलाकारों, निर्देशकों और तकनीशियनों की एक जबरदस्त पीढ़ी हिन्दी सिनेमा को इस धारा से मिली है। पर कुल मिलाकर देखा जाए तो इतनी सारी विशिष्टताओं के बावजूद ये कला फिल्में भारतीय सिनेमा की मूल धारा नहीं बन सकीं। दरअसल ये कला फिल्में अब विरूद्ध उठाई गई आवाज आज तक बेमतलब ही साबित हुई है।
कला फिल्मों की इस पराजय का मुख्य कारण है - इनकी जटिल, सुस्त और नीरस संरचना। जो वास्तव में कला फिल्मकारों के बौद्धिक अहंकार की दुःखद परिणिति है। तमाम गुणात्मक विशेषताओं और उत्कृष्ट अभिनय के बावजूद इन फिल्मों के माध्यम से कही गई बात सामान्य दर्शक के सिर पर से गुजर जाती है। इसीलिए सरकार भी ’आक्रोश’ और ’दामुल’ जैसी फिल्मों को कतई खतरनाक नहीं समझती पर दूसरी तरफ ’मेरी आवाज सुनो’ जैसी विशुद्ध फार्मूला फिल्म पर वह रोक लगा देती है।
गर्ज यह है कि जब जन साधारण के बीच सिनेमा का असर इतना सामाजिक अनुभव किया जा रहा है तो सिनेमा में सामाजिक पक्षधरता की बात क्यों न उस भाषा में की जाए जो जटिल प्रतीकों और सामाजिक बेहूदगियों को मोहताज न हो।
राजकपूर की ’आवारा’, गुरुदत्त की ’प्यासा’ और महबूब साहब की ’मदर इण्डिया’ यदि कला फिल्मों के प्रभामंडल में नहीं गई तो सिर्फ इसलिए कि वे बौद्धिक अभिजात्य के अहंकार और महानता के आडम्बर से पूरी तरह मुक्त है। इन फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों में कला के बुनियादी मकसद को कभी नहीं भुलाया।
ऐसी दुर्गम जीवन यात्रा में मनुष्य ने भोजन और विश्राम के बाद जिस अन्य वस्तु की कामना की है वह है- मन बहलाने की। उसने चाहा है कि अपनी व्यस्त दिनचर्या में कुछ क्षण हंस-मुस्करा ले, मनो-विनोद कर ले ताकि यात्रा के थके हुए हाथ-पैर और भारी मन कुछ हल्के हो जाएं। मनोरंजन के प्रति इस सहज आकर्षण के फलस्वरूप ही उसने मनबहलाव के नये-नये साधन ढूंढे।
नाट्यकला के भीतर चूंकि साहित्य संगीत, चित्रकला, शिल्प और अभिनय जैसी विभिन्न श्रेष्ठ कलाओं का अद्भुत समागम था, इसलिए इस बहुरंगी कला ने भारतीय जनमानस के भीतर अपना सहज और रागात्मक असर घोला। संभवतः इसीलिए यह कला बहुत लम्बे समय तक विभिन्न कलात्मक स्वरूपों के बीच सिरमौर बनी रही।
लेकिन सृष्टि ने जैसे ही वैज्ञानिक युग में प्रवेश किया, मनुष्य की सारी मान्यताएं और रुचियां भी सहसा बदल गई। इस अपूर्व युग में पुराने ढंग के नाटकों, नौटंकियों और रासलीलाओं आदि के प्रति उसका आकर्षण कम होने लगा था। इसीलिए अब वह अपने पहले से अधिक व्यस्त जीवन के लिए ऐसे साधन जुटाने में मशगूल हो गया जो उसे कम से कम समय में अच्छे से अच्छा और शिक्षाप्रद मनोरंजन देने में समर्थ हो। अन्ततः वह सिनेमा, रेडियो टेलीविजन और वीडियो जैसे साधन के रूप में समादृत हुई। इसकी विशालता और प्रभावोत्पादकता हमें भारतीय नाट्यशास्त्र के आचार्य भरत मुनि की उस उक्ति का स्मरण कराती है जिसमें उन्होंने कहा था कि,
न तज्ज्ञानम् न तत्शिल्पम्
न सा विद्या न सा कला।
न सा योगा न तत्कर्म
नाट्येस्मिन्न दृश्यते।।
अर्थात - ’न कोई ऐसा ज्ञान, न कोई ऐसी कला, न कोई ऐसा शिल्प और न कोई ऐसी विद्या है, जिसका नाट्यकाला में प्रयोग न किया जाता हो।’
जिस जमाने में सिनेमा आया उस जमाने में हमारे यहां पेशेवर थिएटर काफी शोहरत और नाम कमा चुके थे। हालांकि इन पेशेवर थिएटरों में तब कोई ऐसी बात नहीं दिखाई देती थी जो उन्हें ज्यादा दिन जिंदा रख पाती। इनमें से ज्यादातर थिएटर कम्पनियों का सामूहिक जीवन तो खोखला था ही, इनके पेश किए गए नाटकों में भी ऐसी कोई बात न थी जिसके आधार पर उन्हें कलात्मक कहा जा सकता। इन नाटकों में ज्यादातर अलिफ-लैला के किस्से थे जिनका जीवन की असलियत से दूर-दूर तक सम्बन्ध न था। पर उन दिनों मनोरंजन के अच्छे साधनों के अभाव में लोगों के पास थिएटर हाल में शाम गुजारने के अलावा कोई दूसरा चारा भी न था। सो तमाम कमजोरियों के बाद भी ये थिएटर चल रहे थे। लेकिन चौथे दशक में पर्दे की चलती-फिरती गूंगी तस्वीरे बोल उठीं तो थिएटर की सारी भीड़ सिनेमाहालों में जुटना शुरू हो गई और देखते ही देखते सिनेमा ने इस कदर लोकप्रियता हासिल कर ली कि आने वाले सालों में हमारे देश में थिएटर का अस्तित्व ही डगमगा गया।
वास्तव में यह थिएटर कला की नहीं बल्कि समय के साथ उसमें आई कुछ कमजोरियों की पराजय थी। जिन मुल्कों में थिएटर की बुनियादी मनोरथ को समझा गया वहां सिनेमा की असाधारण लोकप्रियता भी उसका कुछ न बिगाड़ सकी। उदाहरण के तौर पर इंग्लेण्ड में आज भी थिएटर अपनी जगह अटल है। इतना ही नहीं बल्कि वहां की फिल्मी दुनिया अच्छे अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और कथानकों के लिए थिएटर की मोहताज रहती हैं। आखिर क्यों? इसके सबके पीछे एक ही कारण है कि वहां के थिएटर वहां के सामाजिक जीवन की असलियत से बहुत गहराई तक जुड़े हैं। वे अखबार और सिनेमा की तरह ही जन सामान्य की पीड़ाओं को उजागर करते हैं। नाटक के मामूली से मामूली पहलू को भी जिस गंभीरता और कलात्मकता से निभाया जाता है, उसका हमारे यहां सर्वथा अभाव दिखाई देता है। पर यहां विदेशी थिएटर के इस गुणगान का यह अर्थ कदापि न लिया जाए कि हमारे यहां का थिएटर निष्प्राण है। बंगाल और महाराष्ट्र जहां थिएटर की मूल भावना को समझने की कोशिश की गई वहां थिएटर आज भी जिंदा है। शंभू मित्रा, उत्पल दत्त, पृथवीराज और बलराज साहनी जैसी फिल्मी हस्तियां इस थिएटर की ही देन हैं। बहरहाल....।
बम्बई! यहां के सेन्ट्रल, बी.टी. और दादर स्टेशनों पर न जाने कितने युवक-युवतियां हिन्दी सिनेमा के ग्लेमर के मोहजाल में फंसकर देश के कोने-कोने से आकर उतरते हैं। इनके सामने होते हैं- दिलीप कुमार, राज कपूर, देवनान्द, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन बनने के सपने। साथ होते हैं संघर्ष के जांबाज किस्से और सितारों की चमक की झूठी कहानियां।
यहां इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि इस भीड़ में से ही कुछ नौजवान अपने जीवन संघर्ष, अपने आत्मविश्वास और अपनी प्रतिभा के बल पर नसीरूदद्दीन शाह, ओमपुरी और अनुपम खेर जैसे अप्रितम कलाकार के रूप में उभर कर सामने आते हैं।
इस फिल्मी दुनिया में ऐसे सैकड़ों पुराने कलाकार काम ढुंढते मिल जाएंगे, जिन्होंने अपने जमाने में बेमिसाल अभिनय से सैकड़ों लोगों का दिल जीता। पर बाद में जिनकी अप्रतिम प्रतिभा का सार्थक उपयोग हमारा हिन्दी सिनेमा नहीं कर सका। जहां इस उद्योग को जीवन देने वाले इन पुराने कलाकारों के साथ यह सलूक हो, वहां इन नए आए युवक-युवतियों के प्रति इस चतुर-चालाक और मायावी दुनिया से दया ममता की क्या उम्मीद की जा सकती है? सिनेमा जैसी महान कला को व्यापार बनाने वाले इन आज के रईसजादों में ज्यादातर चेहरे उन लोगों के हैं जो कुछ कर गुजरने के जज्बों से भरे इन मासूम युवकों और खासकर युवतियों को सुनहरे सपनों का संसार दिखाकर उनका भरपूर शोषण करते हैं।
इस सबके बावजूद सिनेमा इस युग की एक महानतम कला है। ऐसी कला है जिसकी मूल भावना गंगा की तरह निर्मल और पवित्र है। यदि इसे अभीष्ट सक्षम नहीं बनाया जा सका तो इसके लिए वह दृष्टिकोण ही उत्तरदायी है जिसने सिनेमा को व्यावसायिक सिनेमा और कला सिनेमा जैसे दो मूर्खतापूर्ण हिस्सों में बांट दिया। यह सही है कि एक फिल्म बनाने में लाखों करोड़ों रुपया फंसाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में इसे व्यवसाय से दूर नहीं रखा जा सकता। पर फिल्म और आलू बेचने में कुछ तो बुनियादी फर्क हो। महज तात्कालिक सफलताओं और धन बटोरने की खातिर मनमोहन देसाइयों और प्रकाश मेहराओं जैसे सिनेकला के सफल व्यापारियों ने भारतीय सिनेमा को आज उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से समाज के लिए खरतनाक परिणामों के अलावा और कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है।
दूसरी तरफ हिन्दी सिनेमा में आज अलग राह बनाकर खड़े कला या सार्थक सिनेमा से जुड़े लोगों की जमात है। मैंने ’सारा आकाश’, ’भुवनसोम’ से लेकर 'अंकुर’, ’आक्रोश’, ’गमन’, ’चक्र’, ’अर्थ’, ’अल्बर्ट पिन्टो को गुस्सा क्यो आता है’, ’सतह से उठता आदमी’, ’मंडी’, ’पार्टी’, ’खण्डहर’, ’स्पर्श’ ’मोहन जोशी हाजिर हो’, ’गिद्ध’ ’एक पल’, ’पार’, ’दामुल’, ’सारांश’ और ’मैसी साहब’ तक वे फिल्में देखी हैं जो कला फिल्मों के प्रभा मण्डल के भीतर आती हैं। इसमें कोई शक नहीं इन फिल्मों में से अधिकांश ने बेहद आंदोलित और प्रभावित किया है। उच्चकोटि के कलाकारों, निर्देशकों और तकनीशियनों की एक जबरदस्त पीढ़ी हिन्दी सिनेमा को इस धारा से मिली है। पर कुल मिलाकर देखा जाए तो इतनी सारी विशिष्टताओं के बावजूद ये कला फिल्में भारतीय सिनेमा की मूल धारा नहीं बन सकीं। दरअसल ये कला फिल्में अब विरूद्ध उठाई गई आवाज आज तक बेमतलब ही साबित हुई है।
कला फिल्मों की इस पराजय का मुख्य कारण है - इनकी जटिल, सुस्त और नीरस संरचना। जो वास्तव में कला फिल्मकारों के बौद्धिक अहंकार की दुःखद परिणिति है। तमाम गुणात्मक विशेषताओं और उत्कृष्ट अभिनय के बावजूद इन फिल्मों के माध्यम से कही गई बात सामान्य दर्शक के सिर पर से गुजर जाती है। इसीलिए सरकार भी ’आक्रोश’ और ’दामुल’ जैसी फिल्मों को कतई खतरनाक नहीं समझती पर दूसरी तरफ ’मेरी आवाज सुनो’ जैसी विशुद्ध फार्मूला फिल्म पर वह रोक लगा देती है।
गर्ज यह है कि जब जन साधारण के बीच सिनेमा का असर इतना सामाजिक अनुभव किया जा रहा है तो सिनेमा में सामाजिक पक्षधरता की बात क्यों न उस भाषा में की जाए जो जटिल प्रतीकों और सामाजिक बेहूदगियों को मोहताज न हो।
राजकपूर की ’आवारा’, गुरुदत्त की ’प्यासा’ और महबूब साहब की ’मदर इण्डिया’ यदि कला फिल्मों के प्रभामंडल में नहीं गई तो सिर्फ इसलिए कि वे बौद्धिक अभिजात्य के अहंकार और महानता के आडम्बर से पूरी तरह मुक्त है। इन फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों में कला के बुनियादी मकसद को कभी नहीं भुलाया।
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This article was first published in the Navbharat Times on 1st October, 1997.
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