आर्यसमाजी अध्यापक का बेटा, मैं... Dharmendra

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अस्सी रुपये महीना? मैंने देखा, बाबूजी को यह सुन कर सदमा पहुँचा। उनका बेटा जवान था, तंदुरुस्त था, खूबसूरत था। उनके कहने पर ही उसने सूट पहना था, टाई लगायी थी। जब शहर में आयी ट्यूबवैल कंपनी के अधिकारियों ने कह दिया कि उनके पास मजदूरी का काम है और उसमें अस्सी रुपये से ज्यादा नहीं मिल सकते, तो बाबूजी को सचमुच बुरा लगा।
और उनसे ज्यादा बुरा मुझे लगा। मैंने सोच कर देखा तो लगा कि मैंने उनके साथ बहुत ज्यादती की है, उनकी उम्मीदों पर पानी फेरा है, तमन्नाओं पर ठेस लगायी है। वे पक्के आर्यसमाजी, तिस पर अध्यापक। दुनिया भर की सेवा करना और कुछ समाजहित कर गुजरना उनका एक मात्र ध्येय था; कहीं पाठशाला, कहीं धर्मशाला, कहीं गुरुद्वारा, कहीं समाज-भवन, जहाँ जो सुधार हो सके, वे करने को तैयार थे और आज उन्हें लगता होगा कि सब किया-धरा व्यर्थ है, अपने बेटे को तो सुधार नहीं पाये... दो कौड़ी का लड़का निकला। मुझे याद आया कि हाई स्कूल तक तो मैं भी आर्यसमाज के मंदिर में सुबह-शाम प्रार्थना करता था, झाड़ू-बुहारी तक बड़ी श्रद्धा से कर आता था। फिर पढ़ने बाहर गया और फिल्म का भूत सर चढ़ गया। इंटर और बी.ए. में फिर फेल, फिर फेल, फिर फेल..., और अब काम मिल रहा है तो मजदूरी का! ... मैं यह काम करूंगा?
मैंने एक बार बाबूजी की तरफ देखा, एक बार अधिकारियों की तरफ। कोट टाई निकाल दी, कहा, ’’मुझे मंजूर है। मैं मजदूरी का काम करूंगा।’’
उस एक पल जो चमक बाबूजी की आंखों में आयी, मैं उससे धन्य हो गया। खुश-खुश काम पर चला गया। दूसरे दिन मैंने ट्यूब-वेल लगाये जाते देखा। तीसरे दिन मैंने खुद एक ट्यूब-वेल फिट कर दिखाया। अधिकारी बहुत खुश हुए। बोले, ’’मजदूरों का काम करने के लिए बहुत से हैं। तुम फिटिंग में लगो। हमारे साथ साथ जगह-जगह चलोगे और काम सुपरवाइज करोगे। तंदुरुस्त हो, खूबसूरत हो! ...आं...तुम्हारी तनख्वाह तीन सौ रुपये होगी। मंजूर?’’
मैं फिर कोट-टाई पहन कर बाबूजी के पास आया। उनके पाँव छुए। बताया कि मुझे तीन सौा महीना मिलेगा। बाबूजी हैरत से देखते रहे- कौन सा जादू जानता है उनका लड़का, जो तीन दिन में तीन सौ की तरक्की ले आया? उस पल उनके चेहरे पर संतोष नहीं भूलता। मेरी वह पहली तरक्की जिंदगी की सबसे बड़ी तरक्की थी, आज के लाखों की तरक्की से भी बड़ी।
मगर फिर बाबूजी ने ही मुझे रोक लिया, वे लोग बहुत तरक्की देने को तैयार हो गये थे और अपने साथ विदेश ले जाने को कहते थे। उनके घरों में मेरा आना-जाना था। बाबूजी डरते होंगे, कहीं विदेश जाकर उनका आर्यसमाजी बेटा (हा हा!) कोई मेम ले लाया, तो?

फिर कुछ और काम किया, फिर कुछ और। जिस पल असंतोष मन में आता, फिल्म के सपने करवटें बदलने लगते। बाबूजी को नहीं पसंद था यह सब। अपनी जान उन्होंने मेरा नशा उतारने की तरकीब निकाल ली- मेरी शादी कर दी। एक बार मुझे भी लगा कि अब स्थिर होना चाहिए, घर-गृहस्थी है, जिम्मेदारियाँ हैं, जुआ खेल पाने का वक्त गया। बहुतेरी कोशिश की कि कहीं जम जाऊँ, पर तभी ’फिल्मफेयर’ - यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स’ के प्रतिमा चुनाव की घोषणा पढ़ी। एक बार फिर मन उछला। एक स्टूडियो में जाकर फोटो खिंचवा आया, भेज दिये। बाबूजी को अच्छा नहीं लगा और माँ को भी शायद, क्योंकि उनके लिए सब अच्छा-बुरा वही था, जो बाबूजी के लिए था। एक बार सोच में पड़ा, इन्हें दुःख पहुँचा कर क्या अच्छा कर रहा हूँ? ...मगर मुझ पर मेरा बस न था। साक्षात्कार के लिए बुलाया गया, तो चला गया। चुन लिया गया तो खुशी से फूला न समाया। पर जल्दी ही लगने लगा कि वह खुशी झूठी थी।
जिन लोगों ने चुना था, उन्हीं ने काम नहीं दिया। कितना तो वक्त और कितना सारा आत्मविश्वास गल गया, गलता गया। निराशा ने घेरा और काली छाया चहूँ ओर नजर आने लगी। चक्कर काटते चेहरा हताश और बदन फीका होने लगा। एक बार और आखिरी बार फैसला कर लिया- यह दुनिया मेरे लिए नहीं है, मैं वापस खेतों में चला आऊँगा। तभी वह मोड़ आ गया, जिसने मेरा रास्ता तय कर दिया, जिस पर अब तक चल रहा हूँ। मुझे 'दिल भी तेरा, हम भी तेरे' (1960) के लिए बुलाया गया और वह काम मिल गया। फिर बिमल दा ने 'बंदिनी' (1963) के लिए बुला लिया।
खैर, यह सारा किस्सा पहले ही आपको मालूम होगा। क्यों न किस्से को किस्से की तरह कहूँ, जो सुनने में मजेदार लगे? तब एक बात है, किस्से में नाम नकली होते हैं, इसलिए आगे से मैं सब नाम नहीं लूंगा, माफी चाहता हूँ।
शुरू-शुरू का एक वाकया सुनिए। एक फिल्म के तीन भागीदार निर्माता थे। मुझे बुला कर साक्षात्कार किया।
एक बोला, ’’लड़का तो अच्छा है।’’
दूसरा बोला, ’’हीरा है हीरा।’’
तीसरा बोला, ’’लाखों का।’’
एक बोला, ’’तो अनुबंध कर लो, साइनिंग पैसा दे दो- एक हजार एक रुपया’’
दूसरा बोला, ’’क्या करते हो! एक हजार एक? नहीं, नहीं, पाँच सौ एक ठीक है।’’
तीसरा बोला, ’’साइनिंग में क्या धरा है, एक सौ एक दो, खत्म करो!’’
पहला बोला, ’’चलो, निकालो पैसे।’’
दूसरा बोला, ’’मेरे पास तो इतने नहीं है!’’
तीसरा बोला, ’’सब मिल कर निकालो।’’
सबने पैसे निकाले, कुल एकावन रुपये। हीरो साइन हो गया- एकावन रुपये में।
जिनके यहाँ पेईंग गेस्त था वे उकता गये थे। अच्छा लड़का है! खाता-पीता है और धेला देता नहीं! कुछ भी करके इसे अब तो जाना चाहिए। या काम पा कर पैसा देना चाहिए। कायदे की बात है!
तभी बिमल दा का बुलावा आया। जाकर मिला। वे बोलते बहुत कम थे, मुझे धर्मेंद्र की जगह धर्मंदु पुकारते थे। उस दिन भी कुछ न बोले। आते वक्त एक वाक्य कहा, ’’जो काम किया है, उसकी रीलें दिखाओ।’’
निर्माता से कहूँगा तो बिगड़ जायेगा! लैबोरेटरी में जाकर एडीटर के मक्खन लगाया। किसी तरह स्मगल करके अपने काम की रीलें ले जा कर बिमल दा को दिखायीं। उन्होंने देख लीं, बोले कुछ नहीं।
फिर एक दिन बुलावा आया। वे मिले, वैसे ही चुपचाप। कहा, ’’बाहर बैठो।’’ दिन भर बैठा रहा। शाम हताश होकर लौट रहा था कि वे नीचे उतरे। बोले, ’’तुम को हीरो लिया है, साइनिंग एक हजार एक। ऊपर से चैक ले लो।
क्रास चैक लेकर उड़ा-उड़ा घर पहुँचा। मालूम हुआ, इसके पैसे भुनाने के लिए बैंक में खाता चाहिए। वो तो नहीं। फिर...?
फिर तो ’बंदिनी’ के बनते-बनते मैं चल निकला। एक छोटी ’फिएट’ गाड़ी ले ली, रंग हरा, नंबर एम.आर.एक्स-9144. भागा-भागा स्टूडियो आया, बिमल दा से कहा, ’’दादा, मैंने गाड़ी ली है!’’
वे कुछ नहीं बोले। बाहर चले गये। दिल दुखा। लगा कि न मेरे दुःख का कोई हिस्सेदार है, न सुख का। पहली बार गाड़ी ली है, कितने चाव से बताने लगा था और वे सुने बिना ही चले गये? घंटों उदास फिरता रहा। तभी किसी ने कंधे पर हाथ रखा, बिमल दा थे, ’’तुम कुछ कह रहे थे धर्मेंद्र?’’
’’जी, नहीं तो!’’
’’झूठ, तुम कह रहे थे, गाड़ी ली है? कहाँ है? दिखाओ!’’
मैंने उन्हें गाड़ी दिखायी और उन्होंने इतना उत्साह दिखाया, जैसे उन्होंने पहली बार गाड़ी देखी हो... इसके बाद मालूम हुआ कि इन कुछ घंटों में वे कितने बड़े मानसिक तनाव में से गुजर कर आये थे- वह मैं कहना नहीं चाहता। पर तब बिमला दा के आगे सर झुक गया था। वे छोड़ गये, तो मैं फूट-फूट कर रोया था। इधर-उधर देखा, सब तो नहीं रो रहे! क्या केवल मुझ से ही उनका नाता था, या मैं ही अति भावुक हूँ?
बहरहाल, मैं चल निकला। लोगों ने मुझे बहुत बधाइयाँ दी थीं, कहा था कि मुझ में कुछ अलग है, तेजी, मर्दानगी, तल्खी, पैनापन, न जाने क्या-क्या! वह दिन भी याद है, जब एक फिल्मी कार्यक्रम में एक अभिनेत्री ने मुझे एक पत्र पकड़ाया था- प्रेम-पत्र और दूसरी हाथ पकड़ कर मुझे अपने घर ले गई थी, मैं लोकप्रिय था और व्यस्थ था, लाखों का हीरो था! छोड़िए...
एक किस्सा और सुना कर बात पूरी करता हूँ। एक दिन सुबह-सुबह दरबान एक चिट्ठी दे गया, लिखा था- ’’शाम सात बजे सात लाख रुपये थैली में रख कर अपने दरवाजे पर मिलो। बंगले की बत्तियाँ बुझी हों। मैं गाड़़ी में आऊँगा और थैली ले जाऊँगा। जरा भी इधर-उधर हुआ या पुलिस को खबर की तो सारे परिवार को इसका फल भुगतना पड़ेगा।’’
मैंने चिट्ठी अपने सहयोगी को दी कि पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवा दे। होना-हवाना तो क्या है? फिर भी एहतियात के तौर पर इतना करना चाहिए। पुलिस वालों ने भी इसे गंभीर नहीं समझा। मैं तो, सच मानिए, इसे भूल ही गया था।
...और रात कोई फिल्म देख कर देर में लौटा तो एक सरदार जी दरवाजे पर मिले। बोले, ’’एक मिनट आपसे बात करनी है।’’
’’हाँ, हाँ, कीजिए।’’ मैंने कहा।
बोले, ’’उस तरफ आइए।’’
मै चला गाया, इधर-उधर देख कर बोले, ’’मेरी चिट्ठी मिली?’’
ओह, तो ये महाशय है! मैं ठहरा जाट आदमी। घुमा कर एक हाथ दिया तो वे नाली में। घर से और लोग आ गये। लगे बेचारे को पीटने। मैं कहता रहा कि मत मारो, मैंने एक हाथ दिया है, वही बहुत हो गया, पर कौन सुनता? बेचारे को पुलिस में दे आये।
वह बेवकूफ इतना कि वहाँ भी कह दिया कि चिट्ठी उसी ने लिखी थी। ’इसकी नकल करो’ कहा गया तो हूबहू उसी लिपी में फिर लिख दी। मारा गया! बराबर कहता रहा कि ’मेरे साथ पूरी पूरी टोली है, ठीक नहीं होगा!’’
पता लगा कर उसके बाप को बुलाया। भला आदमी! मुझ से कहने लगा, किसी तरह मुंडे को छुडवा दो। अब पुलिस मेरे कहने पर भी उसे नहीं छोड़ती थी। बड़ी मुश्किल से मैंने उसकी जमानत की और नेकचलनी के वादे पर छुड़ाया।
खूब ऊँच-नीच देखे, अब सब यादे रोचक लगती है। फिल्मी-दुनिया रास भी आ गई है- क्या नहीं है यहाँ? अच्छे लोग हैं, प्रतिभा है, जोश है। अशोक कुमार, दिलीप, राज, शशि, राज कुमार, मीना कुमारी, शर्मिला, लीना जैसे कलाकार हैं। (लीना का नाम लिखने पर चौंकिए मत, आगे-आगे देखिए..., मुझे यकीन है।) और मैं नाचीज भी हूँ, जैसा भी हूँ, जिसे आप इतना प्यार दे रहे हैं! मैं कैसे आपका शुक्रिया अदा करूँ?
This article was published in 'Madhuri' magazine's 6 March 1970 edition (pg 40)
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