K.L. Saigal..... स्व. के.एल. सहगल कभी लखनऊ में टाइपराइटरर्स बेचते थे
जब दिल ही टूट गया (शाहजहां), करूं क्या आस निराश भई (दुश्मन), बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए (स्ट्रीटशिंगर), इक बंगला बने न्यारा (प्रेसिडेंट), दो नैना मतवारे तिहारे हम पर जुल्म करे (मेरी बहन), मैं क्या जानू क्या है जादू है (जिंदगी), बालम आये बसो मोरे मन में (देवदास), रूम झुम रूम झूम... और दिया जलाओ... (तानसेन), जैसे मधुर गीतों को गाने वाले अमर गायक स्व. के.एल. सहगल को भला कौन नहीं जानता। पर यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि वे फिल्मों में जाने से पहले दो साल तक लखनऊ में टाइपराइटर्स के व्यवसाय से जुड़े रहे थे।
आज जहां नारंग बिल्डिंग (हजरतगंज, अशोक मार्ग, लखनऊ) में रैमिंगटन टाइपराइटर कम्पनी का दफ्तर है कभी ठीक इसी दफ्तर की ऊपरी मंजिल में ’रेमिंगटन’ का विशाल दफ्तर हुआ करता था, जहां साठ से ऊपर कर्मचारी काम करते थे। सहगल साहब ने सबसे पहले रैमिंगटन में बतौर ’टाइपराइटर मैकेनिक’ काम किया। बाद में वे यहां ’सेल्स रिप्रजेंटेटिव’ के रूप में पदोन्नत हुए। दिन भर रेमिंगटन दफ्तर के लिए काम करते और शाम होते ही शंभू महाराज जी के यहां गाने के रियाज के लिए पहुंच जाते। यह बात मुझे उनके समकालीन गायक जगमोहन से मालूम हुई जो आज भी हमारे बीच में है और कोन नगर (कलकत्ता) में एक गुमनाम जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं। कई साल पहले (1979 के आसपास) वे दूरदर्शन के किसी कार्यक्रम के सिलसिले में दिल्ली आए थे और अब मुझे ’हिन्दुस्तान समाचार’ के लिए उनसे एक भेंटवार्ता करने का अवसर मिला था। ’दिल को है तुमसे प्यार क्यों, ये न बता सकूंगा मैं...’ जैसे अमर गीत के गायक, जगमोहन जी को सुगम संगीत गाने की प्रेरणा लखनऊ में के.एल. सहगल से ही (संभू महाराज के घर हुई पहली मुलाकात में) प्राप्त हुई थी।
इस तरह संगीत का रियाज हासिल करने के साथ के.एल. सहगल जिन दिनों लखनऊ के रैमिंगटन टाइपराइटर्स के दफ्तर में कार कर रहे थे, उनके एक सहकर्मी ने टाइपराइटर्स स्पेयर पार्ट्स की चोरी का इल्जाम में सहगल जी को फंसा दिया और इस तरह रैमिंगटन दफ्तर की नौकरी से उन्हें हाथ धोना पड़ा। पर एक प्रकार से यह अच्छा ही हुआ क्योंकि यहीं से उन्हें नौकरी-चाकरी से नफरत हो गई और वे यहां से सीधे कलकत्ता पहुंचे, जहां ’न्यू थियेटर्स’ के जरिए उनका फिल्मों में पदार्पण हुआ। समय का फेर देखिए कि जिन महाशय ने सहगल जी को (पता नहीं किस दुर्भावना से) चोरी के इल्जाम में फंसवाया था, बाद में वे (सेल्स मैनेजर हो जाने पर) खुद इस दफ्तर की एक बेशकीमती चीज चुराने का मोह संवरण न कर सके। वह चीज थी - सहगल जी की रैमिंगटन के अन्य कर्मचारियों के साथ खींची गई एकमात्र ग्रुप फोटा, जो शीशे के फ्रेम में लगी थी।
शायद इसलिए कि तब तक सहगल फिल्म संगीत की दुनिया में इतना नाम कमा चुके थे कि उन महाशय का रैमिंगटन जैसी विश्व विख्यात कम्पनी के सेल्स मैनेजर के रूप में कार्य करना इतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया था जितना महत्व उनके लिए सहगल के साथ करने का था। वह सहगल जो कभी यहां 80 रुपहल्ली की तनख्वाह में टाइपराइटर सुधारता और बेचता था।
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Krishna Kumar Sharma is a film enthusiast who enjoys researching and writing on old cinema.