पिछले 50 वर्षों से भी अधिक समय से हिन्दी साहित्य, हिन्दी फिल्म गीतों, व आकाशवाणी-दूरदर्शन के सैकड़ों लोकप्रिय कार्यक्रमों के सृजन से जुड़ा एक महारथ अचानक थमकर शांत हो गया है। कही पत्ता भी न खड़का।
अपने मधुर, प्रांजल और सरस ’फिल्मी गीतों के कारण करोड़ों जनमन में बसे पं. नरेन्द्र शर्मा चले गए और उनके ही कार्यक्षेत्र की अन्य गतिविधियां यूं चलती रही जैसे कुछ हुआ ही न हो। उनके निधन पर उनके जीवन भर की साधना का सिर्फ इतना ही मूल्यांकन हो सका कि हिन्दी और कुछेक अंग्रेजी के समाचार पत्रों ने एक कालमा छोटा सा समाचार दे दिया और आकाशवाणी व दूरदर्शन के लिए क्या कहा जाए जिसके लिए उन्होंने छायागीत, स्वर संगम, चित्रहार और हवामहल, अनकानेक संगीत और काव्य सन्ध्याओं जैसे सैकड़ों कार्यक्रमों का वर्षों सफलतापूर्वक संचालन किया वही उनके कृतित्व पर कोई विशिष्ट कार्यक्रम न देकर अपने दायित्व से साफ मुंह चुरा गए।
अब यह अलग बात है कि पंडित नरेन्द्र शर्मा के कृतित्व को किसी भाष्य की अपेक्षा नहीं। अपने मधुर फिल्मी गीतों के कारण पिछले चार दशक से भी अधिक समय से वे करोड़ों हिन्दी फिल्म संगीत प्रेमियों के दिलो पर राज कर रहे हैं। अब से कोई 28 वर्ष पहले निर्मित फिल्म ’भाभी की चूड़ियां’ (1961) में लता के स्वर में गाया गया उनका अत्यन्त मधुर गीत, “जयोति कलश छलके...” उन्हें पहले ही अमरत्व प्रदान कर चुका था। खुद लता इस गीत को हिन्दी सिनेमा का सबसे जीवन्त व मधुरिम गीत मानती हैं।
ऐसे विनम्र, मृदुभाषी और वैद्धिक अहंकार से सर्वथा मुक्त गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे मूलतः हमारे उत्तर प्रदेश के ही थे। उनका जन्म बुलंदशहर (उ.प्र.) जिले की खुर्जा तहसील के जहांगीर पुर गांव में 28 फरवरी सन् 1913 को हुआ था। उनके पिता पटवारी थे और छोटी अवस्था में ही छोड़कर स्वर्ग सिधार गए थे।
घर की आर्थिक स्थिति कोई अच्छी न थी फिर भी किसी तरह खुर्जा के जे.एन. हाईस्कूल से प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की इसके बाद आगे की शिक्षा के लिए वे प्रयाग आ गए जहां स्वयं धनोपार्जन करके 1936 में एम.ए. (हिन्दी) की डिग्री प्राप्त की। विद्यार्थी जीवन में ही उनकी काव्य प्रतिमा प्रस्फुटित हुई।
शब्दों के सुन्दर चुनाव और सुरीले कंठ के कारण कवि सम्मेलनों में उन्हें शीघ्र ही सराहा जाने लगा। उस समय उनकी कविताएं ’माधुरी’, ’चांद’ और ’सरस्वती’ जैसी, प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने लगी थी। 1936-38 में उन्होंने सुमित्रा नन्दन जी के साथ प्रयाग में एक पत्र का सम्पादन भी किया।
1939 में स्वराज्य भवन (इलाहाबाद) जो उन दिनों कांग्रेस का दफ्तर था, में अनुवादक की नौकरी कर ली। उन दिनों दफ्तर के कार्य प्रभारी श्री कृपलानी थे। द्वितीय विश्वयुद्ध में की घोषणा पर जब उक्त दफ्तर भी बंद हो गया तो जीविका चलाने के लिए काशी विद्यापीठ में प्राध्यापक की नौकरी कर ली पर तभी 1942 में ’भारत छोड़ो आंदोलन’ प्रारम्भ हुआ जिसमें उन्होंने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और फलस्वरूप आंदोलनकारियों के एक मुकदमे में छह महीने की उन्हें सजा हुई। उन्हें देवली सेन्ट्रल जेल में रखा गया।
सजा ख्त्म होने पर बाम्बे टाकीज की स्वामी देविका रानी के बुलावे पर बम्बई पहंुचे जहां उन्हें बाम्बे टाकीज की फिल्मों के गीतकार के रूप में चार वर्ष का अनुबंध मिला। फिल्म गीतकार के रूप में उनकी जीवन यात्रा बाम्बे टाकीज की फिल्म ’हमारी बात’ (1943) से प्रारम्भ हुई। इस फिल्म के सभी 9 गीत उन्होंन लिखे थे। जिसमें से पारूल घोष और अनिल विश्वास (जो फिल्म के संगीत नेदेशक भी थे) की आवाज में, ’इंसान क्या जो ठोकरे नसीब की न खा सकें’ और सिर्फ पारूल घोष की आवाज में ’ये यादे सदा इठलाती न आ मेरा ........... लोकप्रिय हुए।
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इसके बाद 1944 में बाम्बे टाकीज की एक अन्य हिट फिल्म ’ज्वार भाटा’ के सभी दस गीत नरेन्द्र शर्मा ने लिखे और सभी लोकप्रिय हुए। खासकर पारुल घोष की आवाज में गाया गया एक गीत ’भूल जाना चाहती हूं भूल पाती ही नहीं’ अत्यन्त लोकप्रिय हुआ। यही वह फिल्म थी जिसने हिन्दी फिल्म जगत की दिलीप कुमार जैसा बेजोड़ अभिनेता दिया था। इन्हीं दिनों एक गुजराती ब्राह्मण लड़की जो स्व्यं भी उच्चकोटि की कलाकार थी से उनका प्रेम हुआ और वे परिणय सूत्र में बंध गए। 1945 में बाम्बे टाकीज की ही फिल्म ’प्रतिमा’ के लिए नरेन्द्र जी ने गीत लिखे और स्वर्ण लता को लेकर बनाई गई यह फिल्म खास नहीं चली।
1946 में बाम्बे टाकीज के चार साल के अनुबंध से मुक्त होकर नरेन्द्र जी ने स्वतंत्र रूप से फिल्म गीतकार के रूप में अपनी जगह बनानी शुरू की। यहां उल्लेखनीय है कि यह वह जमाना था जब बम्बई के फिल्म क्षेत्र में उर्दू दां लोग अपनी गहरी जगह बना चुके थे और हिन्दी विरोधी वातावरण का जहर काफी हद तक फैल चुका था। उन दिनों जिन प्रमुख गीतकारों की धाक जमी हुई थी उनके नाम इस प्रकार है- डी.एन. मधोक, एहसान रिजवी, वाहिद कुरैशी, आरजू लखनवी, पंडित इन्द्र, पी.एल. संतोषी, पं. फानी, वली साहब, डा. सफदर ’आह’ और पं. सुदर्शन ऐसे नामी गिरामी गीतकारों को चुनौती देने के लिए और हिन्दी सिनेमा में हिन्दी के गीतों के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए बम्बई में पं. नरेन्द्र शर्मा के अलावा और जिन लोगों की पौध उठ रही थी उनमें से पहले आने वालों में लखनऊ के अमृत लाल नागर (फिल्म संगम 1941), चम्पारन (बिहार) के गोपाल सिंह नेपाली, राजस्तान से महिपाल (जो बाद में अभिनेता बन गए), भरतव्यास, झांसी से कवि शैलेन्द्र और ग्वालियर के ’प्रदीप’ के नाम उल्लेखनीय हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि बम्बई जैसे गैर हिन्दी भाषी क्षेत्र में हिन्दी का बिरवा रोपने का श्रेय इन्हीं गीतकारों को जाता है। हिन्दी फिल्म गीतों के जरिए इन फिल्मी गीतकारों ने हिन्दी को सारे राष्ट्र भाषा के रूप में समादृत करने में जो उल्लेखनीय भूमिका निभाई वह निःसंदेह अभिनन्दनीय है।
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1954 के आते-आते बम्बई के फिल्म क्षेत्र में हिन्दी विरोधी वातावरण ’जोड़ तोड़’ के स्तर पर उतर आया था जिससे खिन्न होकर नरेन्द्र जी ने फिल्म क्षेत्र को ही छोड़ दिया और आकाशवाणी बम्बई में हिन्दी कार्यक्रमों के प्रोड्यूसर पद नौकरी कर ली। जहां उन्होंने विविध भारती का कुशलता पूर्वक संचालन किया। 1961-62 में वे आकाशवाणी दिल्ली केन्द्र पर आ गए। पर उसी बीच अपने पुराने संगीतकार मित्र सुधीर फड़के की फिल्म ’भाभी की चूड़िया’ (1961) के गीत लिखने के लिए उन्होंने हां करनी पड़ी। इस फिल्म के लगभग सभी गीत हिन्दी फिल्म गीत संगीत के क्षेत्र में अपने विशिष्ट स्थान रखते हैं। इसी फिल्म के एक गीत ’ज्योति कलश छलके’ ने उनकी कीर्ति में चार चांद लगाए।
1 अगस्त 1966 में वे पुनः आकाशवाणी के बम्बई केन्द्र में स्थानान्तरित हो गए। बाद में उन्होंने बम्बई दूरदर्शन के भी .................. किया। सन् 1978 में उन्होंने राजकपूर की महत्वकांक्षी गीत ’सत्यम शिवम सुन्दरम’ और एक अन्य गीत ’यशोमति मैया से बोले नन्दलाला’ बहुत लोकप्रिय हुए। सन् 1982 में एशियाई खेलों के लिए ’शुभ स्वागतम्..’ गीत की स्वर रचना भी पंडित नरेन्द्र शर्मा ने ही की थी जिसे पंडित रवि शंकर से संगीतबद्ध किया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि उनका जीवन सदैव क्रियाशील बना रहा और सभी ने उनके भीतर छिपी अप्रतिम प्रतिभा को श्रद्धाभाव से स्वीकारा।
Part of Krishna Kumar Sharma's K K Talkies Series. The images in the article did not appear with the original and may not be reproduced without permission.
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Krishna Kumar Sharma is a film enthusiast who enjoys researching and writing on old cinema.