आलमआरा: बोलती हिन्दी फिल्मों के हीरक जयन्ती वर्ष पर विशेष
बम्बई के मेजेस्टिक सिनेमाहाल में 14 मार्च 1931 को न केवल हिन्दी की बल्कि भारत की पहली बोलती फिल्म ’आलमआरा’ का प्रदर्शन हुआ था। अतः वर्ष 1991 को भारतीय सवाक सिनेमा के हीरक जयन्ती वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। किन्तु बड़े दुख एवं आश्चर्य की बात है कि प्रथम सवाक फिल्म आलमआरा का कोई भी प्रिन्त उपलब्ध नहीं है। इतिहास की ऐसी कीमती धरोहर को संभाल कर न रख पाने की जो हमसे यह अक्षम्य गलती हुई है वह निःसंदेह एक ऐसा कांटा है जो अब निकलने का नहीं और जिसका दर्द हमें हमेशा सालता रहेगा।
कुछ साल पहले जब मैं सुप्रसिद्ध फिल्म इतिहासकार श्री फिरोज रंगूनवाला की अप्राप्य पुस्तक ’इंडियन फिल्मोग्राफी’ जिसमें 1897 से 1969 तक की भारत की सभी मूक और सवाक फिल्मों की जानकारी समाविष्ट है और जिसका एकमात्र संस्करण वर्ष 1970 में प्रकाशित हुआ था, को भोपाल, इंदौर, कानपुर, लखनऊ और दिल्ली की बुकस्टालों पर ढूंढते-ढूंढते थक गया तो अन्ततः उसे पाने की गरज से मैं लेखक के निवास (ए-4, दलाल एस्टेट, बाम्बे सेन्ट्रल के समाने, लेमिंग्टन रोड, बम्बई-400008, फोनः 392837) पर पहुँचा। इतनी जद्दोजहद के बाद पुस्तक हासिल होने पर मुझे उस दिन इतनी खुशी नहीं हुई थी जितनी खुशी और रोमांच मुझे उनके पास ’आलमआरा’ फिल्म की मूल गुजराती बुकलेट (प्रचार पुस्तिका) देखने पर हुई थी। हालांकि गुजराती भाषा न जानने के कारण उस दिन उस बुकलेट की जानकारी शब्दशः न उतार पाने का बड़ा पछतावा हुआ था पर किसी तरह रंगूनवाला जी ने मुझे उस बुकलेट में उल्लिखित आलमआरा के सभी छः गीत हिन्दी में नोट करा दिये थे। उन्होंने मेरा पता नोट करके उसकी फोटोस्टेट कापी भेजने का भी वायदा किया था जो संभवतः किन्हीं कारणों से वे न भेज सके।
इस घटना के कोई 5 साल बाद संभवतः मार्च 1987 में मेरी मुलाकात हिन्दी फिल्म गीत कोश के प्रणेता कानपुर के हर मंदिर सिंह ’हमराज’ से उनके घर (13/351, गोविन्द नगर, कानपुर) पर हुई जिन्होंने मुझे आलमआरा फिल्म के संगीतकार फिरोजशाह मिस्त्री के पुत्र श्री केरसी मिस्त्री (निवास ए-2/24, चैथी माला, न्यू खरेघाट कालोनी, बाबुलनाथ, बम्बई-400006 फोनः 8224238) से उसी दौरान प्राप्त आलमआरा की एक अन्य बुकलेट दिखाई जिसमें ’आलमआरा’ के छः नहीं बल्कि सात गीतों का जिक्र था। एक ऐसी स्थिति में जबकि इस फिल्म का कोई प्रिन्त मौजूद नहीं, सिर्फ यही एक बुकलेट रह जाती है जो उस फिल्म के कलाकारों, गीतों, पात्रों और उन पात्रों के इर्दगिर्द रची गई कहानी का वृतान्त बता सकती है। संयोग से हर मंदिर जी इस फिल्म के संगीतकार श्री फिरोजशाह मिस्त्री का अब तक देश की किसी भी पत्र-पत्रिका में अप्रकाशित चित्र भी उनके पुत्र केरसी मिस्त्री से ले आये थे। 1987 में ही अपने बम्बई प्रवास के दौरान वे ’आलमआरा’ की हीरोइन जुबैदा (धर्मपत्नी राजा धनराज गिरि, नरसिंहरजी, ’धनराज महल’, अपोलो बंदर रोड, बम्बई-400039 फोनः 2023185) से मिलकर उनके कुछ नवीनतम चित्र खींचकर ले आये थे। उस रोमांचकारी मुलाकात में जुबैदा से उनकी जो डेढ़ घण्टे लम्बी बातचीत हुई उसका भी जिक्र उन्होंने बड़ी तरतीब से बताया। बुकलेट का हिन्दी रूपान्तर उन्होंने करा लिया था। इस प्रकार मेरे हाथ ’आलमआरा’ के बारे में लगभग सभी उपलब्ध लिखित-अलिखित जानकारी और कुछ महत्वपूर्ण फोटोग्राफ्स हाथ लगे। अब यह जानकारी जो अब तक सिर्फ फिल्म इतिहासकारों और फिल्म के गंभीर अध्येयताओं के पास कुनमुना रही थी आज इस शुभ स्थान पर प्रस्तुत हैः-
भारत की पहली बोलती-गाती फिल्म, इम्पीरियल मुवीटोन, बम्बई कृतः आलमआरा
निदेशकः अर्देशिर एम. ईरानी
संगीतकारः फिरोज शाह एम. मिस्त्री एवं बी. ईरानी
पटकथा, संवाद एवं
गीत लेखकः जोसेफ डेविड
सेंसर सर्टिफिकेट नं. 10043
पारित वर्षः 1931
फिल्म की लम्बाईः 10400 फीट
सेटिंगः मुनव्वर अली
पात्रः
कमरः मास्टर विट्ठल
आलमजाराः जुबैदा
नव बहारः जिल्लो
दिल बहारः सुशील
आदिलः पृथ्वीराज कपूर
बादशाहः एलिजर
फकीरः वजीर मुहम्म्द खान
रूस्तमः जगदीश सेठी
आलमआरा के गीतः
आलमआरा में कुल सात गाने थे। इन गानों का क्रम उनकी ’सिचुएशन’ और उनके गायक-गायिकाओं का उपलब्ध विवरण इस प्रकार है। यहां उल्लेखनीय है कि उन दिनों बड़े हल्के-फुल्के और छोटे गाने लिखे जाते थे। इन गानों के ग्रामोफोन रिकार्ड भी नहीं है क्योंकि रिकार्ड तो सन 1934 से बनने शुरू हुए थे।
पहला गीत
फकीर (वजीर मुहम्मद खान) का गाया वह ऐतिहासिक गीत जिसे भारती रजतपट का पहला गीत होने का रुतबा हासिल है।
दे दे खुदा के नाम पे प्यारं
ताकत हो गर देने की
कुछ चाहे अगर तो मांग ले मुझसे
हिम्मत हो गर देने की।
यह गीत फकीर उस वक्त गाता है जब वह आरम्भ में नवबहार के पास जाता है और नवबहार अपने संतानहीन होने का दुःखड़ा रोती है।
दूसरा गीत
यह गीत बांदिया उस वक्त गाती है जब शहजादे कमर का जन्म होता है और महल में खुखियां मनाई जाती है।
दे दिल का आराम, अय साकी गुलफाम
हो शाहदमान, तू हाथ दिलाराम ।।1।।
भर दे मीना जाम, होगा तेरा नाम
बादल घिर के क्या है आया
लायी नसीम अच्छी शमीम
दे हाय कसम पुरजोश अदा ।।2।।
बहरे अजीम, बार तू करीम
अलसा हो आबाद, दुश्मन हो बर्बाद
हो शादमान तू हय दिलाराम।।3।।
तीसरा गीत
यह गीत महल की बांदिया उस वक्त गाती है जब शहजादे कमर की 18वीं सालगिरह का जश्न मनाया जाता है।
भर भर के जाम पिला जा
सागर के चलाने वाले़
जालिम तेरी अदा ने
जादू भरी निगाह ने
जख्मी हमें बनाया
ओ तीर चलाने वाले।
चैथा गीत
यह गीत गमजदा मलिका नौ बहार उस वक्त गाती है जब नकली हार गले में डालते ही हंसता मुस्कुराता शहजादा कमर मृतप्राय ही जाता है। इस गीत को जिल्लो बाई ने बड़े दर्द भरे स्वरों में गाया था-
रूठा है आसमा, गुम हो गया मेहताब
दुश्मन है अहले जहाँ वीरां मेरा गुलिस्ता।
पांचवां गीत
यह गीत असलम के खेमे में जवान हो चुकी आलमआरा को छेड़ती हुई कुछ आदिवासी लड़कियां गाती है।
तेरी कटीली निगाहों ने मारा
निगाहों ने मारा, अफाओं ने मारा
भवें कमानें, नैना रसीले
इल दोनों झूठे गवाहों ने मारा
छठा गीत
यह फिल्म का वह गीत है जो फिल्म की हीरोइन आलमआरा उस समय गाती है जब उसे अपने निर्दोष पिता आदिल के साथ हुई बेइंसाफी का पता चलता है और वह उसे छुड़ाने के लिये अपने खेमे से चुपचाप निकलकर महल की तरफ जाती है। यह गीत वह रास्ते में गाती है। जुबैदा का गाया यह गीत फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत था, जैसा कि स्वयं केरसी मिस्त्री व जुबैदा ने भेंट के दौरान बताया था।
बदला दिलायेगा रब ते सितमगारों से
तू मदद पर है तो क्या खौफ जफाकारों से
काठ की तेग जो तू चाहे तो काम करे
जो कि मुमकिन नहीं लोहे की तलवारों से
सातवां गीत
फिल्म का अन्तिम गीत पृष्ठभूमि में उस समय आता है जब इशरत मंजिल के बगीचे में आलमआरा और शहजादा कमर की मुलाकात होती है। दोनों में प्यार हो जाता है। लेकिन यकायक सुबह शहजादे के मृतप्राय हो जाने से आलमहारा दुःखी हो जाती है। आलमआरा के गम को उभारने के लिये यह गाना बैक ग्राउंड में बजता है-
दरस बिना मोरे हय तरसे नयना प्यारे
मुखड़ा दिखा मोहे दिखा जा रे
मोरे हय तरसे नयना प्यारे ।।1।।
श्याम तोरे बिना कब तक तरसूँ
मन को अपने मैं यूं तड़पत देखूं
झूठे हैं कौल करार तेरे
मोरे हय तरसे नयता पयारे ।।2।।
इस ख़ूबसूरत गीत को किसने गाया था, इस बारे में बुकलेट में कोई उल्लेख नहीं है। स्वयं जुबैदा (जो अब इस दुनिया में नहीं है) भी काफी याद करने पर इसकी गायिका का नाम बताने में समर्थ न हो सकी थी। इस फिल्म के संगीतकार फिरोज शाह मिस्त्री के पुत्र श्री केरसी मिस्त्री को हालांकि इनमें से ज्यादातर गीतों की धुनें तक याद हैं पर इस गीत की गायिका का प्रमाणिक जानकारी वे भी न दे सके और अब शायद काई दे भी न पाये।
निर्माता निर्देशकः अर्देशिर एम. ईरानी
पांच दिसम्बर 1886 को जन्मे अर्देशिर ईरानी जो पहले रेलवे विभाग में मामूली सी नौकरी करते थे, सन् 1914 में उन्होंने एक प्रसिद्ध फिल्म प्रदर्शक (एग्जीबिटर) के सहयोग से फिल्म व्यवसाय में पदार्पण किया। पहले वह भारत में सिर्फ विदेशी फिल्मों के प्रदर्शन का व्यवसाय ही संभालते रहे किन्तु बाद में उन्होंने दादा फाल्के की मूक फिल्मों से प्रभावित होकर सन् 1921 में शारदा फिल्म कम्पनी के मालिक भोगीलाल दवे की भागीदारी में स्टार फिल्म लिमिटेड स्थापित कर कई पौराणिक फिल्में बनाई। यह सिलसिला कोई सात साल चला। फिर उन्होंने स्वतंत्र रूप से जनवरी 1928 में ’इम्पीरियल फिल्म कम्पनी’ की स्थापना की और तीन साल के भीतर सत्तर से अधिक मूक फिल्मों का निर्माण किया। उसी दौरान उन्होंने ’शो बोट’ नामक विदेशी बोलती फिल्म देखने का मौका मिला और उसके बाद मूक फिल्मों के निर्माण में उनकी दिलचस्पी घटने लगी और जब उन्होंने भारत की पहली बोलती फिल्म का निर्माण करने की ठान ली।
अपने इस इरादे को अमल का रंग देने के लिये अर्देशिर ईरानी ने विदेश से तुरन्त एक रिकार्डिंग मशीन मंगवाई। भारत में जब वह मशीन आई तो उन्होंने बकायदा टाईम्स आफ इंडिया बम्बई में इसका विज्ञापन दिया कि इम्पीरियल फिल्म कम्पनी के पास अब बोलती फिल्म बनाने का साजो सामान भी आ गया है। रिकार्डिंग तकनीक सीखने के लिये उन्होंने इंग्लेंड से एक इंजीनियर मिस्टर डेमिंग को बुलवाया और तीन हजार रुपया माहवार की ऊंची पगार देकर व्वयं उनसे काम सीखा। इस काम को सीखने में उन्हें सिर्फ 30 दिन का समय लगा।
उन्हीं दिनों आलमआरा एक चर्चित नाटक था। अतः उन्होंने इस नाटक को ही अपनी बोलती फिल्म के रूप में रूपान्तरित करने का विचार किया। फिल्म की पटकथा, सम्वाद और गीत लेखन जोसेफ डेविड को ही सौंप दी। फिल्म के संगीतकार के रूप में उन्होंने फिरोजशाह एस. मिस्त्री एवं सहायक संगीतकार के रूप में अपने पुराने सहयोगी बी. ईरानी को रखा। सेट एवं वेशभूषा निर्माण का कार्य मुनव्वर अली को सौंपा। फिल्म के हीरो-हीरोइन के रूप में उन दिनों के दो लोकप्रिय कलाकार मास्टर विट्ठल और जुबैदा का चुनाव किया गया। इनके अलावा उन दिनों थियेटर की दुनिया में नाम कमा रहे पृथ्वीराज कपूर, जगदीश सेठी, एलिजार और वजीर मोहम्मद खान को तथा जिल्लो और सुशीला का भी चुनाव किय गया। चूंकि उन दिनों इम्पीरियल फिल्म कम्पनी रेलवे लाइन (कैनेडी ब्रिज) के पास ही था और फिल्म में साउण्ड छायांकन के साथ भरे जाने की प्रणाली थी इसलिये शूटिंग में ईरानी साहब को बेहद परेशानियों का सामना करना पड़ा। एक आदमी तोसिर्फ इसलिये ऊंचाई पर खड़ा रहता है कि रेल के आने-जाने का इरादा कर सके।
आलमआरा बनने के बाद जब वह बम्बई के मेजेस्टिक सिनेमा हाल में 14 मार्च 1931 को दिखाई गई तो सिनेमा हाल पर इस कदर भीड़ टूट पड़ी थी कि पुलिस को बुलाना पड़ गया था। उस दिन आलमआरा के टिकटों की मांग का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चार आने की टिकट पांच रुपये तक में बिकी।
यहाँ उल्लेखनीय है कि इस फिल्म के आरम्भ होने के पूर्व पर्दे पर आर्देशिर ईरानी आते थे जिसमें उनका आलमआरा के निर्माण और उसकी विशेषताओं के बारे में 2 मिनट का संक्षिप्त भाषण होता था। इसमें वे बताते थे कि इस फिल्म की भाषा नो खास उर्दू नो खास हिन्दी दोनों की मिली जुली हिनदुस्तानी भाषा है।
कथानक
कमरपुर के बादशाह की दो बीबियां थी-नव बहार और दिल बहार लेकिन उसकी कोई औलाद न थी। नव बहार स्वभाव से नेक एवं दयालु थी किन्तु दिल बहार ईर्ष्यालु एवं कपटी थी। एक दिन एक सिद्ध फकीर भिक्षा लेने नव बहार के पास आता है। फकीर की फरियाद पर नव बहार उस दस हजार दिनार देती है। लेकिन फकीर कहता है कि यह भेंट वह सिर्फ उसके बच्चे के हाथों से लेगा। नव बहार यह बताये जाने पर कि वह संतानहीन है, फकीर उसे बताता है कि तुम्हें शीघ्र संतान होगी और महल की झील की एक मछली के गले में पड़े हार के साथ ही बच्चे का भाग्य बंधा रहेगा। संतान के लिये इच्छुक रानी ने मछली के गले का हार लाने का हुक्म दिया, जिस पर फकीर उसे पुनः बताता है कि बच्चे के 18वें जन्मदिन के पूर्व वह मछली किसी को नहीं दिखेगी और यही नहीं यदि 18वें जन्म दिन पर नवबहार उस मछली के गले में पड़े हार को प्राप्त करने में असफल रही तो वह हमेशा के लिये बच्चे को खो देगी।
फकीर की भविष्यवाणी के अनुसार नवबहार ने शहजादे कमर को जन्म दिया। महल के भीतर एवं बाहर खुशियां मनाई गई लेकिन दिलबहार के मन में ईष्र्या भर गई और यह सोचकर कि नवबहार के पुत्र शहजादे कमर के कारण बादशाह का स्नेह उससे कम हो जायेगा, उसने बदला लेने की योजना बनाई।
दिलबहार वास्तव में बादशाह से घृणा और सेना के सिपहसालार आदिल से मुहब्बत करती है, लेकिन अपने बादशाह के प्रति वफादार आदिल उसके मोहजाल में नहीं फंसता। लेकिन एक दिन जबकि वह आदिल को अपने पास बुलाकर उससे अपने प्यार का इजहार कर रही होती है उसी दौरान बादशाह वहाँ आ पहुँचता है। तब दिलबहार निर्दोष आदिल पर यह इल्जाम लगाकर कि ’आदिल उससे अपनी मुहब्बत का इजहार कर रहा था’ उसे कैद में डलवा देती है। उसकी गर्भवती पत्नी मेहरनिगार को घर सम्पत्ति से बेदखल कर रियासत से बाहर चले जाने का हुक्म दे दिया जाता है। गर्भवती मेहरनिगार जंगल में अकेली परेशान हाल भटकती फिरती है। एक दिन दुर्भाग्यवश एक शिकारी रूस्तम के चलाये गये तीर से वह घायल हो जाती है। दुःखी रुस्तम उसे अपने खेमे में ले जाता है जहाँ वह ’आलमआरा’ को जन्म देती है। मृत्यु शैया पर वह रुस्तम से पर्ची में लिख कर एक रहस्य देते हुए कहती है कि इसे वह आलमआरा के बालिग होने पर ही खोले।
18 वर्ष बीत जाने पर शाहजदा कमर बड़ा हो जाता है। फकीर की भविष्यवाणी के अनुसार नवबहार झील में पड़ी मछली के गले से हार निकलवाने का आदेश देती है। लेकिन उधर दिलबहार को अपने एक सेविका से मछली के हार का रहस्य पहले ही पता चल जाता है। फलस्वरूप वह पहले ही मछली के गले में पड़े हीरे के हार को उतार कर खुद पहन लेती है और नकली हीरों का हार मछली के गले में पहनाकर मछली को झील में छुड़वा देती है। इस तरह नवबहार के पास नकली हार पहुँच जाता है जिसे पहनाते ही शहजादा कमर मृतप्राय हो जाता है। एकाएक खुशी का मौका दुःख में बदल जाता है। नवबहार बड़े दुःखी मन से अपने मृतप्राय शहजादे कमर को इशरत मंजिल के एक कमरे में रखवाकर पुनः फकीर को ढूंढ निकालने का आदेश देती है।
उधर जंगल में रुस्तम के संरक्षण में आलमआरा जवान होती है और 18वें जन्म दिन पर उसे संयोग से असलम को दी गई अपनी मां की वह रहस्यमय पर्ची हाथ लग जाती है जिससे उसे पता चलता है कि उसका निर्दोष पिता आदिल बादशाह की कैद में पड़ा है। एक दिन रात में आलमआरा अपने पिता को कैद से आज़ाद कराने और दुष्ट दिलबहार को सजा देने की गरज से चुपचाप खेमे से भाग जाती है। रास्ते में संयोग से उसकी मुलाकात उसी फकीर से हो जाती है जोकि उसे इशरत मंजिल की ओर इशारा करते कहता है कि उसकी शादी एक ऐसे शहजादे से होगी जो कि फिलहाल उस महल में जिन्दगी और मौत से जूझ रहा है।
हीरे के हार के रहस्य के अनुसार हर रात जब दिलबहार हार उतार कर बिस्तर पर सोने को जाती है तो कमर जीवित हो जाता है। इसलिये जब आलमआरा रात में इशरत मंजिल पहुँचती है तो उसे कमर जीवित मिलता है। दोनों एक दूसरे को चाहने लगते हैं। पर ठीक ऐन वक्त पर जब आलमआरा द्वारा अपनी कहानी कमर को बताने ही वाली होती है कि सबेरा हो जाता है और उधर हार को दिलबहार बहन लेती है। कमर फिर मृतप्राय हो जाता है। आलमआरा अपने प्रेमी शहजादे की एकाएक यह हालत देखकर बहुत रोती बिलखती है तभी कमर की देखभाल के लिये तैनात दासी आती है और यह दिलबहार का सारा भेद खोल देती है।
आलमआरा बादशाह के पास पहुँचकर अपनी दलीलें देकर अपने पिता आदिल को छोड़ने की याचना करती है जिसे वह नहीं मानता। लेकिन उसी समय हाजिर हुए फकीर की सलाह मानकर बादशाह आदिल से सही कहानी मालूम करने के लिये अपने साथियों के साथ चल पड़ता है। उधर रुस्तम अपने कई साथियों के साथ आलमआरा की तलाश और साथ ही आदिल को कैद से आजाद कराने के इरादे से महल के भीतर भूमिगत कैदखाने में प्रवेश करता है। उसी समय दिलबाहर भी कैदखाने में प्रवेश करती है जिसे देखकर रुस्तम छिप जाता है। दिलबहार आदिल से आखिरी बार कहती है आदिल तुम्हें मैं आखिरी मौका देती हूँ बताओ तुम्हें मेरी मुहब्बत कबूल है कि नहीं। आदिल कहता है- नहीं कभी नहीं। तभी दिलबहार आदिल पर जैसे ही चाकू से प्रहार करती है, पीछे छिपा रुस्तम उसका हाथ पकड़ लेता है और ऐन इसी वक्त पर बादशाह आलमआरा, फकीर और साथियों के साथ वहाँ पहुँता है। बादशाह जोर से दिलबहार के गाल पर एक थप्पड़ रसीद करता है और उसके गले में पड़े हार को निकालकर उसे कैदखाने में डाल देने का हुक्म देता है। रुस्तम आदिल से उसकी बेटी आलमआरा को मिलाता है और आदिल की आंखों से खुशी के आंसु बह निकलते हैं। फकीर के कहने पर सब लोग उस हार को लेकर हशरत मंजिल की ओर चल पड़ते हैं। जहाँ नवबहार अपने मृतप्राय बेटे का सिर अपनी गोद में रखे बिलख रही होती है। जैसे ही फकीर हीरों का वह असली हार कमर के गले में डालता है कमर हंसता मुस्कराता उठ खड़ा होता है। नवबहार और बादशाह की आंखों में खुशी तैर जाती है। आलमआरा, शहजादे कमर को देखकर शरमा जाती है। अन्त में फकीर आलमआरा और कमर का हाथ एक दूसरे के हाथों में देता है और इस तरह फिल्म समाप्त हो जाती है।
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Krishna Kumar Sharma is a film enthusiast who enjoys researching and writing on old cinema.