जग उजियारा छाए : जागते रहो
दरअसल जीवन में हम फ़िल्में तो सैकड़ों हजारों देख डालते हैं लेकिन कुछ फिल्में और खासतौर पर उनके कुछ दृश्य ऐसे होते हैं जो फिल्म समाप्त हो जाने के बाद ख़त्म नहीं होते ! वो हमारे साथ हमारे ज़हन में घर तक साथ आते हैं और वो कब अपने रागात्मक असर के साथ हमारे दिल में एक अमिट जगह बना लेते हैं हमें खुद मालूम नहीं चलता! एक बार हम जीवन में मिले मान अपमान तक भले भूल जाएँ लेकिन एक लम्बा अरसा गुजर जाने के बाद भी फिल्मों के कुछ दृश्य भुलाये नहीं भूलते ! अपनी बाल स्मृतिओं में संचित ऐसे ही दृश्यों को इस श्रंखला के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ मैं !
आज मैं इस शुभ स्थान पर हिंदी सिनेमा की श्रेष्ठतम दस कलात्मक फिल्मों में दर्ज़ा हासिल करने वाली फिल्म "जागते रहो " की और उसके अविस्मरणीय दृश्य की चर्चा करूँगा !
जागते रहो (1956 ), आर के बैनर की पूर्ववर्ती फिल्मों बरसात (1949 ), आवारा (1951 ), बूट पॉलिश (1954 ) और श्री 420 (1955 ) की तरह व्यावसायिक सफलता अर्जित नहीं कर सकी थी ! और ऐसा भी नहीं है कि राज कपूर ने इसकी व्यावसायिक सफलता को लेकर मन में कोई भ्रम पल रखा था या बहुत आशावान थे ! ठीक है सिनेमा एक व्यवसाय है लेकिन इस धंधे में सभी महज़ रोजगारिये नहीं हैं ! अगर ऐसा होता तो दो बीघा जमीन, बंदिनी, सुजाता, सीमा, परख, मुसाफिर, अनुराधा, सत्यकाम, आशीर्वाद, कागज़ के फूल, और तीसरी कसम जैसी कलात्मक और खूबसूरत फिल्मों से हम महरूम ही रह जाते ! वी.शांताराम, महबूब खान, सोहराब मोदी, नितिन बोस, विमल रॉय, गुरुदत्त की तरह राज कपूर के भीतर भी किसी कोने में कलात्मक बोध पल रहा था और वो उसे पूरी दुनिया के सामने उजागर करने का सपना देख रहे थे ! सपने आदमी की सबसे बड़ी ताकत होते हैं ! सपने जो न हों तो आदमी भले ही रहे, उसकी आँखों में उजाला और होंठों पर मुस्कान कभी न रहे। सपने सच करने के लिए आदमी जिंदगी के तमाम तूल अरज, तल्खियां, शिकस्तों, मुश्किलों और बड़े से बड़े नुकशान को भी झेलने के लिए तैयार हो जाता है। ऐसे ही सपने राजकपूर की भी सबसे बड़ी मिल्कियत थी।
"जागते रहो" भी "बूट पॉलिश" की तरह कम लागत की फिल्म थी। 1956 की शुरुवात में जब ये फिल्म रिलीज़ हुई तो बिल्कुल नहीं चली बल्कि अपनी आधी लागत तक नहीं निकल पाई। लेकिन सम्पूर्ण भारतीय फिल्म जगत उसके तमाम जाने माने निर्माता निर्देशक तब यह सुनकर दंग रह गए जब "जागते रहो" को कार्लोरावेरी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में वर्ष 1956 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का "ग्रैंड प्री" पुरस्कार मिला ! उस समय तक अंतराष्ट्रीय स्तर पर किसी हिंदी फिल्म को इतना बड़ा सम्मान और पुरस्कार नहीं मिला था। यहां उल्लेखनीय है कि उसी साल सत्यजित राय की कालजयी कृति "पाथेर पांचाली" (1955) को भी कांस फिल्म फेस्टिवल में इसी तरह सम्मानित किया गया । देश की सभी फिल्म समीक्षकों ने "पाथेर पांचाली" और " जागते रहो " को भारतीय सिनेमा की महानतम उपलब्धि माना ! राज कपूर जी ने सत्यजित राय को और सत्यजित राय ने राज कपूर को बधाई दी । इन दोनों पुरस्कारों ने भारतीय सिनेमा को पहली बार अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज में मान्यता दिलाई । आखिर यही सपना तो देखा था राजकपूर ने अपने कलात्मक मन में । इस पुरस्कार के फ़ौरन बाद राज कपूर ने "जागते रहो" को दोबारा 1957 में प्रदर्शित किया और इस बार दर्शकों ने निराश नहीं किया और जो घाटा शुरू में हुआ था वो ब्याज सहित वसूल लिया ! यहाँ उल्लेखनीय है कि "जागते रहो" के 15 साल बाद कला सिनेमा का आंदोलन शुरू हुआ था। इस दृष्टि से देखे तो राजकपूर जी ने 1956 में ही समय से बहुत पहले झांक लिया था।
कलकत्ता महानगरी की पृष्ठभूमि में बनी "जागते रहो" का निर्देशन राज कपूर जी ने शम्भू मित्रा और अमित मित्रा जी को सौपा था ! संगीत की जिम्मेदारी अपनी स्थाई जोड़ी शंकर जय किशन की जगह सलिल चौधरी को सौपी थी। इसका मुझे एक कारण यह भी लगता है कि राज कपूर ने इस फिल्म को हिंदी के साथ बंगला भाषा में भी बनाया था ! बांग्ला भाषा में यह फिल्म "एक दिन रात्रे " के नाम से रिलीज़ की गई थी और कलकत्ता में ठीक ठाक चली थी , कम से कम हिंदी संस्करण से तो बेहतर रही थी ! फिल्म में कुल 5 गीत थे इनमें से 4 शैलेन्द्र ने और एक प्रेम धवन ने लिखा था ! इनमें से कुछ गीत जैसे मुकेश की आवाज़ में गाया गया गीत -" ज़िंदगी ख्वाब है , ख्वाब में सच है क्या और भला झूठ है क्या, और लता की आवाज़ में गाया गया गीत -"जागो मोहन प्यारे " बेहद लोकप्रिय हुए और लोग आज भी इन दोनों खूबसूरत गीतों को सुनना पसंद करते हैं ! ख्वाजा अहमद अब्बास के लिखे अर्थपूर्ण संवाद फिल्म की सबसे बड़ी ताकत लगी मुझे। मुख्य भूमिका में राजकपूर का ह्रदय स्पर्शी अभिनय इस फिल्म में अपने चरम पर देखा और महसूस किया जा सकता है ! लेकिन इसके साथ मोती लाल , पहाड़ी सान्याल , प्रदीप कुमार , रशीद खान , नाना पलसीकर , इफ़्तेख़ार , सुमित्रा देवी , सुलोचना चटर्जी , कृष्ण धवन , भूडो आडवाणी , कृष्णकांत , एस बनजी , रतन गौरांग , परशुराम , मोनी चैटर्जी , डेजी ईरानी और नरगिस आदि ने अपनी छोटी छोटी भूमिकाओं में कमाल कर दिखाया है इस फिल्म में । खासकर शराबी की भूमिका में मोतीलाल अप्रतिम हैं और नरगिस तो सिर्फ एक दृश्य में आती हैं फिर भी लगता है जैसे वो पूरी फिल्म की आत्मा में ही प्रविष्ट कर है । तो ऐसे बेमिसाल अभिनय और गीत संगीत के अवगुंठन से सजी थी "जागते रहो" ।
"जागते रहो" फिल्म की जो मुझे खासियत नज़र आती है वो ये है कि इसकी कलात्मकता बनाये रखने के लिए इसमें किसी भी तरह की व्यावसायिकता की चासनी में डूबे नुस्खों और फार्मूलों को लेशमात्र भी जगह नहीं दी गई है। जैसे इस फिल्म की कहानी में किसी तरह के प्रेम प्रसंग और अश्लीलता को नहीं जोड़ा गया । इस फिल्म में उस सफेदपोश सभ्यता की आड़ में पनपने वाली कालिख को उजागर किया गया है जिसका विकराल रूप आज सर्वथा व्याप्त है। सबसे बड़ी बात यह अपील करती है की फिल्म में कहीं भी आदर्श और यथार्थ एक दूसरे के प्रतिद्वंदी नहीं दिखाई देते हैं बल्कि वो एक दूसरे के पूरक बनकर उभरते हैं। निर्देशकों ने विसंगतियों और सामाजिक बुराइयों पर कटाक्ष करने के लिए कई जगहों पर सहज हास्य का सहारा लिया है।
फिल्म की कहानी एक इमारत और उसके भीतर एक रात में होने वाले कई दिलचस्प घटनाक्रमों के इर्द गिर्द घूमती है। फिल्म का मुख्य पात्र कलकत्ता महा नगरी में गाँव से रोजी रोटी की तलाश में आया एक गरीब , मेहनतकश और ईमानदार नवयुवक (राज कपूर ) है। बढ़ी हुई दाढ़ी , घुटनों तक धोती , और फटे हुए कोट में वह 'माटी का बेटा" लगता है। इतनी बड़ी महानगरी में कोई उसका अपना नहीं। भोजन तो दूर पानी तक को पूछने वाला कोई नहीं। रात एक बजे का शगल है ! प्यास बुझाने की खातिर पानी तलाशता गांव का वह युवक इधर उधर भटक रहा है ! तभी उसे एक बड़ी ईमारत के अहाते में लगे नल से पानी की कुछ बूँदे टपकती दिखाई देती है ! गेट के भीतर जाकर जैसे ही वह पानी पीने के लिए हाथ बढाता है, अचानक एक कुत्ता भोकना शुरू कर देता है और उसी के साथ चौकीदार की भी नज़र भी दौड़ती है और वह चोर चोर का शोर मचा देता है। दहशत में वह माटी का हाल ईमारत की सीढ़ियों से भागता हुआ एक फ्लैट से दूसरे फ्लैट जहाँ जैसे घुसने की जगह मिलती है , बस घुसता चला जाता है !और यहीं से शुरू होता है उसके भटकाव का अंतहीन सिलसिला जो पूरी रात चलता है ! इस दौड़ भाग में उसे हर घर में एक से बढ़कर एक वास्तविक चोर मिलते हैं। ऐसे सफेदपोश चोर जिनकी समाज में बड़ी प्रतिष्ठा है। इन दृश्यों से ये बताया गया है कि हमारे नैतिक मूल्यों का आधार कितना बनावटी है। नैतिकता को हम ढाल की तरह इस्तेमाल करते हैं लेकिन वास्तव में वो हमारे आचरण में शामिल नहीं होती।
"जागते रहो" में राज कपूर पूरी फिल्म में सिर्फ एक जगह जुबान खोलता है बाकि पूरी फिल्म में वो सिर्फ आँखों से बोलता है। अपनी लाचारी , बेबसी ,और अपनी व्यथा सब कुछ अपनी भावपूर्ण आँखों से व्यक्त करता है। आज भी ये फिल्म देखिये तो राज कपूर अपने अभिनय से विस्मित नहीं मुग्ध करते नजर आते हैं। राजकपूर ने हिंदी सिनेमा को अपने लोकप्रिय "आर के बैनर" के तले एक से बढ़कर खूबसूरत फ़िल्में दी हैं ! और सिर्फ अपनी फिल्मों में ही नहीं दूसरे निर्माता निर्देशकों जैसे ऋषिकेश मुखर्जी की "अनाडी ", एल वी लक्ष्मण की "चोरी चोरी "और शैलेन्द्र की "तीसरी कसम" में भी बतौर अभिनेता उनकी अभिनय कला का उत्कर्ष देखा जा सकता है । यह बात हैरान करने वाली लगती है कि राजकपूर को कभी अपनी फिल्मों के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार नहीं मिला । जिस फिल्म के लिए मिला भी वो ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित फिल्म "अनाड़ी" थी । लेकिन व्यावसायिक सफलता , लोकप्रियता और इस तरह के पुरस्कारों से परे जब बात आती है अभिनय के लिहाज़ से राज कपूर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म चुनने की तो सभी फिल्म समीक्षक और उनके चाहने वालों की जुबान पर बस एक ही नाम आता है --"जागते रहो "!
अब अंत में इस फिल्म के उस अविश्मरणीय "क्लाइमेक्स " दृश्य की मैं चर्चा करना चाहूंगा जो 55 साल का एक लंबा अरसा गुजर जाने के बाद भी मेरी बाल स्मृतियों में ऐसे विराजमान है जैसे बस कल की बात है और जिसकी कुनमुनाती याद ने मुझे आज ये लेख लिखने के लिए विवश कर दिया।
नरगिस जी राजकपूर की फिल्मों की आत्मा रही हैं। जब "जागते रहो" फिल्म बन रही थी तो वो राज कपूर की निजी जिंदगी से बहुत दूर जा चुकी थी। राज कपूर जी चाहते तो फिल्म के आखिरी दृश्य की यह छोटी सी भूमिका किसी भी अभिनेत्री से कराके काम चला सकते थे ! फिल्म के कलात्मक स्तर में उससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता ! फिर भी राजकपूर चाहते थे कि उनके जीवन की इस सबसे महत्वकांक्षी कलात्मक फिल्म में नरगिस अवश्य हों। नरगिस जी ने तमाम पारिवारिक विरोध के बाबजूद राजकपूर के इस अनुरोध को स्वीकारा और फिल्म के इस आखिरी दृश्य में वो एक बहुत छोटी सी लेकिन अविस्मरणीय भूमिका में दिखाई दी। दुनिया जहान से पूरी रात जूझता हुआ वह "माटी का लाल" (राज कपूर) सुबह के धुंधलके में अपनी किस्मत पर रो रहा है ।घर की एक छोटी प्यारी बच्ची ( डेजी ईरानी ) उसके प्रति सहानुभूति जताते हुए उसे निडरता से बाहर जाने को कहती है ! ठीक उसी वक़्त एक दूसरे दृश्य के पार्श्व में एक मधुरिम स्वर यूं गूंजता है जैसे यह आवाज़ उसे अपने पास बुला रही है। इस तरह वो स्वत: प्रेरणा से उस पूजा स्थल में पहुंच जाता है जहां पर स्नान और पूजा अर्चना के फ़ौरन बाद उस पूजा स्थल में लगी तुलसी और पुष्पों से आच्छादित और हरे भरे पेड़ पौधों को अपने कलश से सिंचित करती हुई धवल (सफ़ेद) साड़ी पहने बला की खूबसूरत एक नवयोवना (नरगिस) के कंठ से ये बेहद खूबसूरत प्रभाती गीत भोर के स्निग्ध वातावरण में गुंजायमान है --
जग उजियारा छाये---
मन का अँधेरा जाये----
किरणों की रानी गाये
जागो हे मेरे मोहन प्यारे
जागो मोहन प्यारे जागो
जागो मोहन प्यारे जागो
नवयुग चूमे नैन तिहारे
जागो जागो मोहन प्यारे
जागो रे जागो रे जाग कलियन जागी
नगर नगर सब गलियां जागी
जागो रे जागो रे जागो रे
जागो रे जागो रे
भीगी भीगी अँखियों से मुस्काये
यह नयी भोर तोहे अंग लगाए
भीगी भीगी अँखियों से मुस्काये
यह नयी भोर तोहे अंग लगाए
बहें फ़ैलाओ दुखियारे
जागो मोहन प्यारे जागो
जागो मोहन प्यारे जागो
नवयुग चुमे नैन तिहारे
जागो जागो मोहन प्यारे
जिसने मन का दीप जलाया
दुनिया को उसने ही उजला पाया
जिसने मन का दीप जलाया
दुनिया को उसने ही उजला पाया
मत रहना अँखियों के सहारे
जागो मोहन प्यारे जागो
जागो मोहन प्यारे जागो
नवयुग चुमे नैन तिहारे
जागो जागो मोहन प्यारे
किरण परी गगरी छलकाये
ज्योत का प्यासा प्यास बुझाए
किरण परी गगरी छलकाये
ज्योत का प्यासा प्यास बुझाए
फूल बने मन के अंगारे
जागो मोहन प्यारे जागो
जागो मोहन प्यारे जागो
नवयुग चूमे नैन तिहारे
जागो जागो मोहन प्यारे
(संगीतकार : सलिल चौधरी , गीतकार : शैलेन्द्र
स्वर : लता मंगेशकर और साथी )
अपने इस बेहद खूबसूरत प्रभाती गीत को गाने में और साथ साथ पूजा स्थल के पेड़ पौधों को बड़े प्यार से अपने कलश के पानी से सिंचित करने में निमग्न अब इस नायिका की नज़र उस किनारे खड़े अजनबी पर पड़ती है। अपनी कातर आंखों से वह इस युवती को देखता है । युवती के खुशनुमा और बला के खूबसूरत चेहरे पर यकायक कुछ संकुचित और कसैलेपन की रेखाएं खिंचती दिखाई देती है । लेकिन जैसे ही वह गरीब फटेहाल युवक हाथ के इशारे से एक प्यासे और याचक इंसान के रूप में युवती से थोड़ा सा जल पिलाने की विनती करता दिखाई देता है तो वह द्रवित होकर एक अपृतिम प्रेम और स्नेह की देवी की तरह अपने कलश से उसे पानी पिलाती है । उफ्फ ! सच में ऐसा लगता है जैसे इस दृश्य को अविस्मरणीय बनाने के लिए कोई दैविक आत्मा आकाश से अवतरित हो गई है। तो ऐसी सूक्ष्म संवेदनाओं से स्पंदित थी "जागते रहो"। दर्शकों के दिलों में ऐसा रागात्मकअसर घोलने के कारण ही " जागते रहो " का यह अंतिम दृश्य हमें यह भी आभास दिलाकर जाता है कि नरगिस जी , क्यों थी राज कपूर की फिल्मों की आत्मा। और इस आत्मा की अनुपस्थिति में क्यों श्रीविहीन लगी उनकी बाद की फिल्में।
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Krishna Kumar Sharma is a film enthusiast who enjoys researching and writing on old cinema.