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Sati Anasuya (1956)

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महासती अनसूया पृथ्वी पर वह पहली स्त्री-रत्न थी जिसने स्त्री जाति के लिए पतिव्रत धर्म की मर्यादा कायम की और "एकई धर्म एक व्रत नेमा, कायँ बचन मन पति पद प्रेमा" का महान आदर्श उपस्थित किया। उन्होंने ब्रह्मर्षि कर्दम और देवी देवहूति के सुख से संचित परम रूपवती नर्मदा ने जब अपने दुर्भाग्य से दुःखी होकर संदेह स्वर्ग जाने का संकल्प किया और उसके लिए देवी अनसूया की शरण को देखकर देवलोक की महादेवीयाँ लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी तक के मन में अनसूया के प्रति इतनी ईर्षा उत्पन्न हो गई कि वे अनसूया के शील और सदाचार को भ्रष्ट करने के भाँतिभाँति के उपाय करने लगीं।

रूपगर्विणी नर्मदा कामदेव जैसा परम रूपवान पति पाने के स्वप्न देखा करती थी। परन्तु विधाता ने उसके भाग्य में विवाह के उपरान्त तुरन्त वैधव्य का दारूण दुःख लिखा था। ऐसी अभागन कितनी भी सुन्दरी क्यों न हो उससे कोई विवाह करने को कैसे तैयार हो सकता था। स्वर्ग से भी निराश लौट आने पर अनसूया के आदेश से नर्मदा ने संकल्प किया कि सूर्य उदय की प्रथम किरण जिस पुरुष पर पड़ेगी वह उसे ही अपने सौभाग्य का स्वामी मान कर वरमाला पहना देगी और उसे जिस पुरुष के प्रथम दर्शन हुए वह था अन्धा, अपाहिज एवं कुष्ट रोग से पीड़ित कौशिक। ब्रह्माणी ने नर्मदा को अनसूया के ऐसे आदेश का पालन न करने के लिए भड़काने का बहुत प्रयत्न किया, पृथ्वी पर अनसूया की प्रतिष्ठा को कम करने के कई निष्फल प्रयत्न किये परन्तु अनसूया का मान संसार में दिन प्रतिदिन बढ़ता ही गया।

ब्राह्मणी से कुछ न बन पड़ा तब महादेवी पार्वती ने भोलाशंकर के गले के विषधर को अनसूया के सत्यबल को परखने के लिए महर्षि अत्रि के आश्रम में भेजा और उससे भी बढ़कर महादेवी लक्ष्मी ने कामदेव को अत्रिमुनी का वेश बना कर महामुनी की अनुपस्थिति में अनसूया के पास भेजकर उन्हें धर्मभ्रष्ट करने का कुचक्र रचा। कामदेव तो सती को उसके धर्म से तिलभर भी विचलित न कर सके परन्तु इसका अनुचित लाभ ढोंगी पुजारी शिवानन्द ने महासती अनसूया के ऊपर झूठा कलंक लगाकर उठाया। शिवानन्द महर्षि अत्रि और अनसूया के प्रति मन में तीव्र द्वेष रखता था और उनकी पूजनीयता का समाप्त करने के अवसर की ताक में रहता था-तीनों देवियों ने इन्द्र के साथ मिलकर पृथ्वी पर घोर जलसंकट उत्पन्न कर दिया और शिवानन्द ने इस संकट का कारण अनसूया के कलंक को सिद्ध करके लोगों के मन में अनसूया के आवाहान पर गंगा मैया मन्दाकिनी बन कर अवतरित हुई। अनसूया के लिए लोगों के मन में पैदा किया हुआ रोष शिवानन्द पर ही टूट पड़ा... चोट खाया काला साँप और भी भयानक हो उठता है, शिवानन्द ने एक काली रात को अपने हृदय में धधकती प्रति हिंसा की ज्वाला से महर्षि अत्री और अनसूया को आश्रम सहित भस्म कर डालने के लिए आग लगा दी।

अपने अन्धे अपाहिज पति को पवित्र तीर्थों का पुण्यलाभ कराने के लिए निकली हुई नर्मदा को मरूस्थल में फँसी हुई देखकर तीनों महादेवियों ने माया की एक कुटिया का निर्माण करके सन्यासिनी का वेश बनाकर आसन जमा दिया। नर्मदा ने उन तपस्विनियों से अपने प्यास से तड़पते पति देव के लिए एक लोटा जल की याचना की तब उन सन्यासिनी वेशधारिणी देवियों ने नर्मदा से जल के बदले रक्त की माँग की। पतिपरायणा नर्मदा ने प्यासे पति के प्राणों की रक्षा के लिए अपनी टाँगें काट कर रक्त अर्पित किया। इतने ही से उस पतिवता की परीक्षा पूरी नहीं हुई। बद्रीनाथ के हिम शिखर पर अनजाने में कौशिक द्वारा क्रोधी मुनी की तपस्या नष्ट हो गई, और माण्डव्य मुनी ने सूर्य उदय होते ही मृत्यु का शाप दे डाला। नर्मदा ने माण्डव्य मुनी से अपने निर्दोष पति को दिए शाप को वापिस लेने के अनुनय की पर कठोर माण्डव्य विचलित नहीं हुए तो उसने अपने सौभाग्य की रक्षा के लिए सूर्य की गति को रोक दिया, संसार में अन्धकार का हाहाकार मचने लगा। अनसूया ने अपनी पति भक्ति की शक्ति से मृत्यु के मुख में गये नर्मदा के पति को नव जीवन दिया और सूर्यदेव को नर्मदा के वचन बन्धन से मुक्त कराया।

जीवन और मरण तक पर मृत्युलोक की मानवी अनसूया का अधिकार देखकर उमा, रमा और ब्रह्माणी की ईर्षा का ठिकाना न रहा, उन्होंने अपने पति देव ब्रह्मा, विष्णु और महेश को त्रिया हठ करके अनसूया को नीचा दिखाने के लिए जाने को बाध्य कर दिया। सृष्टि के जन्म, मरण और पालन हार तीनों प्रभु सन्यासी के रूप में अनसूया के द्वार पर आकर अलख जगाने लगे। उन्होंने भिक्षा में जो अनोखी माँग पेश की। महासती ने किस प्रकार वह माँग पूरी करके तीनों महादेवियों का मान मर्दन किया। बह्मा, विष्णु, महेश को अपने पुत्र दत्तात्रय के रूप में अपनी ममता के बन्धन में बाँध लिया। यह सारी पवित्र लीला परदे पर देख कर पुण्य का लाभ कीजिये।

(From the official press booklet)