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यह कथा है शताब्दियों पूर्व उस काल की जब आर्यश्रेणी भारत में अपनी सभ्यता व संस्कृति ही स्थापित न करना चाहती थी, वरन् देश की अनार्य जाति को भी आर्यों में सम्मिलित करलेने की युक्तियां उत्पादन कर रही थी।
रतन व उसकी माता भी, जो अनार्य थे, अपने आर्यअधिपति की पूर्ण विश्वास, भक्ति व श्रद्धा के साथ सेवा कर रहे थे। उधर, आर्याधिपति की पुत्री सन्ध्या जन सेवा को प्रभु-सेवा समजती थी। अतः उसने अनाय जाति के मानसिक विकास की ओर अपनी तत्परता दिखलाई। आर्याधिपति ने ऐक यज्ञ का आयोजन किया और निमन्त्रण हेतु रतन को भ्रमणार्थ भेजा गया। बीच में रतन की मां बीमार पड़ी। सन्ध्या ने सेवासुश्रृषा की पर व बच न सकी। रतन ने लौट कर जब देखा की उसकी माता का शब सडा पडा है, वह अपने अधिपति को बुरा भला कहकर नौदो ग्यार हो गया।
पासा और अधिक फिरा। अनार्य श्रेणी की नायिका बिजली ने यज्ञ-समय की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए एक हिरन का शिकार कर डाला। इस पर उसे गिरफतार कर लिया गया। .....रतन जंगल का नायक बना और उसके हृदय में समाई हुई प्रतिशोध की भावना ने आर्यों को देश से निकलने के लिये वाध्य कर दिया। परन्तु रतन का अधिपति इस आशा से छिप निकला कि किसी समय वह रतन को सुधार सकेगा किन्तु रतन का अधिपति स्वयं रतन का शिकार हो गया। अपने अधिपति को मृत्यु के मुख में देखकर रतर की आंखे डबडबा उठीं। वह प्रायश्चित भरे हृदय से प्रभु की प्रार्थना करने लगा और इसी प्रायश्चित ने जन्म दिया महान धर्मग्रंथ "रमायण" को!!
(From the official press booklet)