एक बार पार्वतीजी ने शिवजी से प्रार्थना की कि पृथ्वीलोक में तीर्थ और मंदिरों का महत्व क्षीण होता जा रहा है। लोगों में नास्तिकता बढ़ती जा रही है। अतएव संसार में तीर्थयात्रा के गुण गौरव को पुनः स्थापित करने के हेतु भगवान शंकर ने रतनपुर की धरती पर पुजारी गोविन्ददास के घर पूर्णमाशी नामक एक गुणवती कन्या को जन्म दिया। पूर्णमाशी के यौवन प्राप्त करते करते ही उसके चमत्कारों तथा सेवाओं से सारा गांव आकर्षित हो गया। गांव का महंत इस आकर्षण को सह न सका। पूर्णमाशी के प्रभाव को नष्ट करने के लिये उसने ऐसा षडयन्त्र रचा की उसका विवाह न हो सके। किन्तु मोहन नामक एक ब्राह्मण भक्त ने पूर्णिमा का संबन्ध स्वीकार कर लिया। महंत और भी जल उठा। उसने नई चाल चली। हलाहल विष तैयार करवाया गया और धोखे से शादी के दिन मोहन को पिला दिया। विवाह तो शांतिपूर्वक सम्पन्न हो गया किन्तु सुहाग रात को ही मोहन की आंखें चली गई और धीरे धीरे उसके सारे शरीर में कोढ प्रवेश कर गया। मोहन को स्वस्थ करने के सब उपाय जब निष्फल हो गये तब पूर्णमाशी उसे तीर्थयात्रा को ले गई।
महंत ने निश्चय कर लिया कि वह उनकी यात्रा भंग कर डालेगा। उसने कई प्रयत्न किये किंतु पूर्णमाशी के सत्य और संयम के सामने किसी की कुछ न चली। लोखों कष्ट सहन करते हुए, भूखे-प्यासे, बिलखते-लडखडाते पूर्णमाशी अपने पतिदेव को साथ लिये सब तीर्थों का भ्रमण करती रही। कुरूक्षेत्र, द्वारका, उज्जैन, नासिक, पंढरपुर, तिरूपति, रामेश्वरम्, जगन्नाथ, बदरीनाथ आदि 300 तीर्तों के दर्शन करते हुए उसने मार्ग के सभी कष्टों को पार किया। अंतिम तीर्थ कैलास की सीढ़ियों पर चढ रहे थे वे दोनों कि यमराज ने मोहन के प्राण हरण कर लिये क्योंकि उसका आयुकाल समाप्त हो चुका था। सती पूर्णमाशी ने अपने पति के प्राण पुनः कैसे प्राप्त किये? क्या गाँव के महंत का अभिमान चूर हुआ? क्या मोहन अपने असली स्वरूप को प्राप्त कर सका? इन सब प्रश्नों का उत्तर आदर्शलोक द्वारा प्रस्तुत "तीर्थयात्रा" में मिलेगा।
(From the official press booklet)