अमृतमन्थन! गम्भीर गर्जना करता हुआ श्रीरसागर, मेरू पर्वत की रइं, वासुकी नाग की नेती (रस्सो) देवता और दानबों का अतुल पराक्रम।
समुद्रमन्थन से दूसरे रत्नों के साथ असृत भी निकला उसे पाने के लिये देवता और दानव आपस में झगड़ने लगे।
भगवान विष्णु कच्छपावतार छोड़कर समुद्र से बाहर निकल आये। उन्होंने देवताओं को अमृत और दानवों को मदिरा पिलाने के लिये मोहनी रूप धारण किया तथा नृत्य करते हुए संगीतमय स्वर से कहा-
समुद्र से निकलते हुए दूसरे रत्नों को बंटवारा होने के बाद लक्ष्मी को स्वयम्बर होना निश्चित हुआ, किन्तु लक्ष्मी को बड़ी बहिन दरिद्र (अवदशा) रूकावट के रूप में आकर खड़ी हुई। लक्ष्मी के हृदय में जलती हुई दुःख की ज्वाला ओठों के द्वारा बाहर निकलने लगी।
दयालु भगवान विष्णु ने प्रकट होकर देवी लक्ष्मी के साथ अपुर्व उत्साह से विवाह किया। देवता अमर पद को पाकर प्रसन्नत हो रहे थे। इन्द्र दरबार में परियां नाच रही थी।
इसी समय चोट खाये हुए सांप की तरह दानवों ने इन्द्रसभा पर आक्रमण किया। दानवों की विजय हुई। समय का फेर, परियों विजयी दानवराज हिरण्याक्ष की सभा में नाच कर रही।
पापी हिरनयाक्ष पृथ्वी को लेकर पाताल में चला गया भागवान विष्णु ने बाराहावतार लेकर उसका बध किया और पृथ्वी का उद्धार किया।
हिरनयाक्ष के बाद हिरण्य कशिपु सिंहासन की अधिकारी हुआ, यह भगवान विष्णु को युद्ध कें लिये ललकार रहा था। और उसका पुत्र प्रहलाद त्राहि त्राहि कह कर भगवान विष्णु को पुकार रहा था।
श्रीमती के सामने विकट समस्या थी- उलझन पर उलझन बढ़ती ही गई आगे क्या हुआ यह सब परदे पर देखिये।
(From the official press booklet)