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Shirin Farhad (1945)

  • LanguageHindi
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शीरीं फ़रहाद को पर्दे पर पेश करते हुए फ़िल्म निर्माता श्री दलसुख एम. पंचोली ने एक बड़ा अरमान पूरा किया है। इसमें उस दुखान्त कहानी की तस्वीर खींची गई है जिसने सदियों से कहानी और कविता की दुनिया में चकाचैंध कर रखी है। इस अमर कहानी को अनेक कवियों और लेखकों ने अपने अपने तरीके से लिखा है। और हर एक लेखक की कल्पना का रंग कहानी पर चढ़ता रहा है। इतिहास के साथ किवदन्तियां और कल्पनाएं इस तरह शामिल हो गई हैं कि उन्हें अलग करना मुश्किल है। किन्तु पंचोली साहब ने इसे जिस रूप में पेश किया है उसमें न केवल सच्चे रोमान्स की आत्मा है बल्कि प्रथम श्रेणी की कला, सच्चाई, महानता और मार्मिकता है। उन्हें प्रचलित रूप से काफी दूर भी जाना पड़ा है लेकिन इसका शुभ-परिणाम यह हुआ है कि कहानी मानव-हृदय के अति निकट हो गई है। दर्शक को शुरू से आखीर तक आश्चर्यचकित अवाक् और रोमांचित बनाये रखती है।

एक समय (जो इतिहास के कोहरे में खो गया है) ईरान के राज्य में पानी की भयंकर कमी पड़ गई, हजारों लोग प्यासे मर चले। उस समय के शासन ने फ़रहाद नाम के एक शिल्पी और कलाकार को पहाड़ी इलाके में से नहर काट लाने और मुसीबत को दूर करने का काम सौंपा। यह काम बहुत मुश्किल था और इसके लिए महिनों की लगातार मेहनत और बेशुमार दौलत की जरूरत थी। देश की शासन-सभा के कुछ खुदगरज़ लोग जीनमें प्रधान मंत्री भी थे, बेचैन हो उठे और इस काम को बन्द करने की मांग करने लगे। उन्हें सफलता भी मिलती लेकिन मुकद्दस ख़ाक़ान (मुख्य पुजारी) ने फ़रहाद और उसके काम की पैरवी की और खुदगरजों की कुछ न चली। आखिर यह तय पाया कि फ़रहाद राजधानी में हाज़िर होकर अपने काम का ब्योरा दे। रेगिस्तानी रास्ते से अकेले आते हुए फ़रहाद को रेत के तूफान में फंस जाना पड़ा, किसी तरह एक गुफ़ा में उसे शरण मिली। उसी गुफ़ा में और भी एक प्राणी शरण लेने आया - यह थी शीरीं - पास के एक राजा की राजकुमारी। वे उस धुंधली रोशनी में इस तरह मिले मानो दो बिछुड़े प्राण युगों से एक दूसरे की खोज करते आ मिले हों। इसे ’प्रेम का प्रारम्भ’ उतना नहीं कह सकते जितना कि दो समान आत्माओं का मिलन। शीरीं भी ईरान की राजधानी को जा रही थी। जहां बादशाह परवेज ने उसे निमंत्रित किया था। वहां से एक बेचैनी लेकर दोनों जुदा हुए।

शीरीं का शाही ठाठ से स्वागत किया गया। अभिमानी और सनकीं परवेज शीरीं पर मोहित हो गया। जिस समय फ़रहाद अपने काम का ब्योरा देने राजमहल में हाजिर हुआ-उसे मालूम हुआ कि अब बादशाह को नहर में कोई दिलचस्पी नहीं रही। इसके बदले उसे शीरीं के एक पूरे कद की मूर्ति बनाने का हुक्म मिला। कला (शीरीं) और कलाकार रोज़ मिलने लगे और जो प्रेम की चिंगारी रेगिस्तान में सुलगी थी अब ज्वाला की लपटें बन गई। किन्तु प्रेमी हृदयों का यह सुख थोड़े ही काल के लिये था और उनका रंगीन सपना अधुरा ही रहा। परवेज ने शीरीं से विवाह का प्रस्ताव किया जिसे शीरीं ने नम्रता से ठुकरा दिया। इस पर एक दिन अचानक शीरीं के कमरे में पहुंच कर परवेज ने शीरीं फ़रहाद को चकित कर दिया। ज़ल्लाद के कुल्हाड़े की तरह बादशाह का क्रोध फ़रहाद पर गिरा। उस साहसी किन्तु विनम्र प्रेमी को मौत की सज़ा सुनाई गई और शीरीं को एक तरह कहल में कैद कर लिया गया। एक दफ़ा फिर मुकद्दस ख़ाक़ान ने आकर इस अनर्थ को रोकने की कोशिश की। उसने शीरीं से मिलने की इजाजत ली और उसे फ़रहाद के नाम की, ईरान के नाम की और प्यास के कारण धीरे धीरे मौत के मुंह में आनेवाले हजारों, लाखों स्त्री-पुरूष और बच्चों की दुहाई दी। शीरीं के लिये यह वेदना असह्य थी। फ़रहाद को बचाने का सिर्फ एक ही रास्ता था कि वह अपने दिल से उसकी मोहब्बत को निकाल दे जो उसकी जिन्दगी बन चुकी थी। दिल को हिला देनेवाले आंसुओं के साथ उसने काहन की प्रार्थना नामंजूर की लेकिन फिर मान ली। काहन ने फौरन ही बादशाह को खबर दी और उसे मौत के पंजे से छुड़ाकर नहर बनाने के लिए देश सेवा के कार्य पर भेज देने को कहा। न तो शिरीं ने और न काहन ने फ़रहाद को यह बताया कि उसके प्राण बचाने के क्या कीमत शिरीं को देनी पड़ी यानि कि परवेज से शादी करने की मंजूरी। बादशाह के दिल में यह दुष्टता भरा विचार था कि जहां अक्सर भूकम्प उठते रहते हैं ऐसे पहाड़ी इलाके से फ़रहाद जिन्दा नहीं लौट सकता।

एक बार फिर किस्मत ने अपना करिश्मा दिखाया। इधर शिरीं ग़म और दुख से अधमरी हो चली उधर फ़रहाद ने एक चमत्कार कर दिखाया। उसने नहर को पूरा बना लिया और अपने देश से धन्यवाद और अपने प्रेम का पुरष्कार पाने के लिये शीघ्रता से राजधानी को आया। दुष्ट बादशाह ने उसे खबर भेजी कि शीरीं मर गई। निराशा और शोक में डूबे हुए फ़रहाद ने अपने पैरों का रूख उस तरफ कर दिया जहां वह और शीरीं मिला करते थे। पागल की तरह वह शीरीं शीरीं पुकारने लगा और शीरीं आई। किस्मत से वह भी उस पवित्र स्थान पर गई थी। लेकिन शीरीं पर नज़र पड़ने से पहले ही फ़रहाद ने अपने सर पर प्राण-घातक चोट लगा ली। शीरीं लपक कर उसके पास पहुंची और जब उसका प्रेमी मौत की गोद में सोने लगा वो बेतरह आंसू बहाने लगी। फ़रहाद बोला “मेरी शीरीं कहा से बोल रही है?” शीरीं ने कहा- “फ़रहाद मैं तो जिन्दगी की दुनिया में हूं लेकिन तुम मुझे छोड़े जा रहे हो। तब फ़रहाद ने कहा “जब मैं मौत को गले लगा रहा हूं तब तुम्हे ज़िंदगी कैद किये हुए है।” शीरीं बोली- “नहीं, नहीं, मैं तुम्हें पकड़े हुए हूं और हर जगह तुम्हारा साथ दूंगी।” तब उसने हीरे की अंगूठी का जहर खा लिया। इस तरह शरीं और फ़रहाद मर कर अमर हो गए।

(From the official press booklet)