इस फिल्म की कहानी पाण्डवों के जूवे में राज-पाट हार जाने के बाद, बनवास में बिताने के समय की घटनाओं से भरी हुई है। पाण्डवों ने जब अपने राजसूय यज्ञ में सफलता प्राप्त कर ली, तो उनके बढ़ते हुये मान-आदर-और यश को देख कर दुर्योधन और उसके कौरव भाई उनसे जलने लगे। एक दिन पाण्डवों ने दुर्योधन को अपना नया राज महल देखने के लिये बुलाया। दुर्योधन पहुँचा तो उसे पानी की जगह सूखा और सूखे की जगह पानी, दीवार की जगह दर्वाजा दिखाई दिया और वह दीवार से अपना सिर टकरा बैठा। यह देख पाण्डव पत्नि पांचालीयाने द्रौपदी खिलखिलाकर हँस पड़ी कह और उठी "अन्धे का बेटा अन्धा ही निकला"।
द्रौपदी के इन शब्दों ने जलन की आग में जलते हुये दुर्योधन पर घी का काम किया। जब वह पाण्डवों का कुछ न बिगाड़ सका तो उसे अपनी लाचारी और बेबसी पर बेहद गुस्सा आया और उसने आत्महत्या करने का फैसला कर लिया। भाईयों और दूसरे लोगों ने समझाया मगर वह टस से मस न हुआ। मामा शकुनी उसके दर्द को समझते थे। उन्होंने कहा- भानजे, प्राण क्यों देते हो, पाण्डवों को बल से नहीं, दिल से हराया जा सकता है, नीचा दिखाया जा सकता है। दुर्योधन को यह बात समझ में आई। पाण्डवों को दावत दी गई। शकुनी मामा ने भरी राज सभा में दिल बहलाने के लिये पाण्डवों को जूआ खेलने का न्योता दिया। मामा शकुनी पक्का हुआरी और पासे नक़ली। कौरवों और पाण्डवों में जुआ शुरू हुआ। पाण्डवों में सबसे बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर जने में राज-पाट, अपने चारों भाई और खुद को भी हार बैठे। और तो और अपनी पत्नि द्रौपदी को भी जूऐ में हार गये, भिखारी बन गये। दुर्योधन ने अपने अपमान का बदला लेने और द्रौपदी के साथ पाण्डवों को जलील करने के लिये, दुःशासन के हाथों द्रौपदी को भारी राज सभा में घसीट मंगवाया। सबके सामने दुःशासन ने द्रौपदी को नंगा करने के लिये उसका चीर हरण करना शुरू कर दिया। द्रौपदी की करूण पुकार सुन कर भगवान श्री कृष्ण ने उसके चीर बढ़ा दिया। दुःशासन चीर खींचता रहा मगर साड़ी के छोर का अन्त न हुआ और दुःशासन थक कर हार गया। भक्तवत्सल कृष्ण ने द्रौपदी को नंगा न होने दिया।
एक बार फिर से जूआ खेला। धर्मराज युधिष्ठिर फिर से सब कुछ हार गये और उन्हें भाईयों और पत्नि सहित बारह वर्ष को बनवास और एक साल का अज्ञात वास भुगतने के लिये बन में जाना पड़ा।
(From the official press booklet)