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Mera Salam (1957)

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किश्वर मुग़ल साम्राज्य के पंचहज़ारी सेनापति नवाब अख़तर मीर्ज़ा की लाडली बेटी थी-और सलीम एक अनाथ जिसका संसार में एक बूढ़ी माता के सिवा कोई न था। सलीम कवि था-होते होते एक दिन उसके भाग्य ने उसे सम्राट जहाँगीर के पास पहुँचा दिया। सम्राट उसकी कविता सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि उसका नाम सलीम है तो और भी प्रसन्न हुए।

सम्राट ने मलिका नूरजहाँ से सलीम की कविता की तारीफ़ की। मलिका ने अपनी कवित्री किश्वर की तारीफ़ की। सम्राट ने कहा हमारे कवि से तुम्हारी कवित्री का कोई मुक़ाबिला नहीं। एक दिन दोनों का मुक़ाबिला हुआ।

मृत्यु और प्रेम के लिये एक छोटासा बहाना बहुत होता है। किश्वर की सुन्दर प्रतिमा उसके हृदय में समा गई। न जाने वह कौनसा आकर्षण था जिसने सलीम को भरे दरबार में लूट लिया। प्रेम कभी सौन्दर्य को जीतना नहीं चाहता। जान बूझकर हारता है और वही उसकी जीत होती है। सौन्दर्य की बदनामी न हो, यह सोचकर प्रेम ने सिर झुका दिया। भरे दरबार में हार मान ली और हुआ यह कि दोनों एक दूसरे को प्रेम करने लगे।

छुप छुप के मिलने लगे। प्रेम और कस्तूरी छुपाये से नहीं छुपते। एक दिन भेद खुल गया।

अख़तर मिर्ज़ा की क्रोधाग्नि से लपटें निकलीं और उनका सपनों का महल जलने लगा। दोनों एक दूसरे से सदा के लिये बिछड़ने के लिये अंतिम बार मिले।

सलीम ने रुँधे कंठ से कहा- जब भी किसी पतंगे के जलें हुए पर देखना तो मुझ अभागे को याद कर लेना।

किश्वर ने सलीम की आँखों में देखते हुए कहा- जब भी किसी पिघलती हुई शमा को देखना तो अपनी किश्वर को याद कर लेना। दोनों बिछुड़ गये।

फिर क्या हुआ? अख़तर मिजाऱ् की क्रोधाग्नि शान्त हुई। वह अपनी बेटी का विवाह सलीम से करने पर तैयार हो गये। क्या विवाह हुआ? हाँ जी हुआ मगर बेटी को विदा नहीं किया। सलीम की बूढ़ी माता ने न्यायी सम्राट के सामने दुहाई दी- जहाँ अत्याचारी का सिर कुचला जाता था और दुखियों के आँसू पोंछे जाते थे।

फिर क्या हुआ? यह तो कथानक का प्रारंभ है। इसका अंत देखना है तो रजत पट पर देखिये- याद रखिये- मेरा सलाम-मेरा सलाम-मेरा सलाम।

(From the official press booklet)