- गोस्वामी तुलसीदास को कौन नहीं जानता? जिस समय संस्कृत भाषा जनता जनार्दन की भाषा न रहकर केवल पंडितों की भाषा रह गई थी, उस समय तुलसीदासजी ने सरल लोकभाषा अवधी में रामायण की रचना की।
- तुलसीदासजी जन्म से ही अशुभ बालक माने गये। न माँ की ममता मिली, न पिता का प्यार। उनका बचपन दरबदर की ठोकरों में बीता। गुरु नरहरिदास उन्हें अपने आश्रम में ले गये। वहां वे तुलसी की विलक्षज बुद्धि से अति प्रभावित हुए। परन्तु तुलसी के जवान होते ही, उन्होंने उसे गृहस्थाश्रम के मायाजाल में ढकेल दिया।
- अपनी पत्नि रत्ना को तुलसीदास अत्यधिक प्रेम करते थे। हर पल, हर क्षण उन्हें रत्ना ही रत्ना पड़ी रहती। प्रेम में वे पागल हो गये। एक दिन जब उनकी पत्नी अपने पीहर चली गई तो उनका बुरा हाल हुआ। आंधी, जूफान और बरसात में वे घर से निकल पड़े। एक सांप का पकड़ कर ससुराल की मंजिल पर चढ़े। इससे गांव भर में बदनामी हुई। रत्ना ने खरी खरी सुनाई। उसके ये वचन-“इतना ही प्रेम यदि श्रीराम से करते तो बेड़ा पार जो जाता” तुलसीदास पर रामबाण का असर कर गये। उन्होंने घर छोड़ा, गृहस्थ छोड़ा, संसार छोड़ा।
- तुलसीदास भगवान श्रीराम की खोज में भटकते रहे। अन्त में उन्हें एक प्रेत मिला जिसन उन्हें काशी भेजा जहां हनुमानजी कोढ़ी के भेष में रामकथा सुनने आते थे। हनुमानजी ने तुलसीदास को बताया कि उन्हें चित्रकूट में श्रीराम के दर्शन होंगे। और हुआ भी यही-
चित्रकट के घाट पर, भई संतन की भीर।
तुलसीदास चन्दन घिसै, तिलक करे रघुवीर।।
- जहां पुण्य है, वहां पाप। तुलसीदासजी की लोकप्रियता से पंडित रविदत्त मिश्र अति क्रद्ध थे। उन्हें रामायण से ईर्षा थी। उन्होंने रामायण को नष्ट करने के अनेकों प्रयत्न किये परन्तु सब निष्फल हुए। उधर तुलसीदासजी के चमत्कारों से देवलोक तक मुग्ध हो गया। स्वयं श्रीराम लक्ष्मण तुलसी आश्रम का पहरा देते। हनुमान रामायण को रक्षा करते। अपने शत्रुओं को अपनी पवित्रता का प्रमाण देने के हेतु, तुलसीदासजी ने भगवान शंकर द्वारा रामायण पर हस्ताक्षर करवाये। परन्तु तब भी जब अधर्मियों ने पीछा न छोड़ा तो, रत्ना की इच्छा पर, तुलसीदासजी ने विनयपत्रिका लिखी। मृत्यु के पश्चात् रत्ना की अमर आत्मा ने अपने पति की विनय पत्रिका स्वर्ग में श्रीराम को समर्पित की। भगवान राम ने प्रसन्न होकर रामायण को अक्षय पद प्रदान किया। तब से रामायण कलियुग में अमर हो गई। राम का नाम अमर हो गया, और साथ ही अमर हो गये- “गोस्वामी तुलसीदास”।
[From the official press booklet]