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सारे मुल्क में कांग्रेस की तहरीक चल रही थी - सारी कौम बयक आवाज़ क रही थी ’आजादी हमारा पैदायशी हक़ है। उन्हीं दिनों जलियाँवाला बाग़ में हज़ारों सरफरोशाने- वतन एक ग़ैर हकूमत की बन्दूकों की खूराक बना दिये गए। हकूमत की सारी जेलें देश भगतों से भर दी गईं और अब पुरानी जेलों से काम नहीं चला तो नई जेलें तामीर की गई - कैदख़ाने बन रहे थे। कैदख़ाने भरे जा रहे थे लेकिन फिर भी उन लोगों की कमी न थी जो घरबार छोड़कर, अपने बने बनये कारोबार पर लात मारकर जेलों की तरफ बढ़ रहे थे। जल्से करने की इजाज़त न थी लेकिन जल्से हर रोज़ होते थे। अशरफ़ की तक़रीर में भी क्या जादू था। लोग घंटों खामोश बैठे सुनते रहते। अशरफ़ उनके दिल की जो बात कहता था। अशरफ़ की हर तक़रीर सुनने वालों के जज्बात को झिंझोड़ती और उन्हें दावते अमल देती और अशरफ़ जब तक़रीर ख़त्म करके बैठता तो लोग दिवानावार तालियाँ बजाते और जल्सा ख़त्म होने पर एक जलूस सा निकलता जिसमें हज़ारों इन्सान बयक आवाज़ नारे लगाते ’’मुहम्मद अशरफ ज़िन्दाबाद’’। इस दफा भी अशरफ़ ने तक़रीर ख़त्म की तो उसका जलूस निकाला गया। लोगों ने उसे कन्धों पर उठा लिया। वह घर पहुँचा तो बीबी ने खुशी से चमकती हुई आँखों और एक अजीब दिलनवाज मुसकुराहत से उसका खैरमकदम किया। वह कितनी खुशनसीब थी। अशरफ़ की बदौलत उसे कितनी इज्ज़त हासिल थी... खुशी के मारे उसके पाँव जमीन पर न टिकते थे। लेकिन यह खुशी कितनी मुख्तसिर साबित हुई। अशरफ़ खाना खाने बैठा ही था कि दरवाज़े पर पुलिस आ गई। उसके खिलाफ बग़ावत का जुर्म था। अशरफ़ को हथकड़ी लगा कर पुलिस साथ ले गई। अशरफ़ की गिरफ्तारी की ख़बर जंगल की आग की तरह शहर में फैल गई। आन की आन में हज़ारों का मजमा अशरफ़ के घर के बाहर जमा हो गया। आसमान का गुम्बद नारों के शोर से फटा जा रहा था। लोग ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रह थे, ’महुम्मद अशरफ़ ज़िन्दागाद’ ’महुम्मद अशरफ़ ज़िन्दागाद’। अशरफ़ चला गया लेकिन नारों की आवाज़ें बहुत देर तक बेगम के कानों में गूँजती रहीं।
अशरफ़ इसके बाद भी कई दफा जेल गया। उसके अज्म में कभी लोच पैदा नहीं हुआ। दुनिया बदल गई, लेकिन अशरफ़ एक चट्टान की तरह अपनी जगह पर कायम रहा लेकिन बेगम को जब माली मुशकिलात और खानगी परेशानियों की दुश्वार राहों से गुज़रना पड़ा तो वह मुतासिर हुए बग़ैर न रह सकी। उसने देखा कि मौलाना मुहम्मद अकरम जो कभी अशरफ़ के साथ ही काँग्रेस में काम करते थे दिन दुगनी रात चैगनी तरक्क़ी कर रहे हैं। वह कभी जेल नहीं गए लेकिन इस पर भी तकरीर करते हैं तो हज़ारों आदमी जमा होते हैं। वह काँग्रेस छोड़ कर लीग में चले गए फिर भी लोग उन्हें सर आँखों पर बिठाते हैं। सब ही दनकी तकरीर और तदबीर का लोहा मानते हैं। मुसलमानों का बहुत बड़ा तबक़ा उन्हें बहुत मानता है, सरकार भी उनसे नाखुश नहीं है और उनके घर वाले सभी के सभी खूब मज़े कर रहे हैं। और एक रोज़ तो पानी सर से गुज़र गया। बेगम बाज़ार में से गुजर रही थी तो किसी ने कह दिया ’’वह देखा महाश्य मुहम्मद अशरफ़ की पत्नी जा रही हैं...’’ यह सब कुछ हुआ लेिकन अशरफ़ अपी जगह पर क़ायम रहा।
पार्लियामेंट में ’इन्दिया ऐक्ट’ पास किया गया। काँग्रेस के कई रहनुमाओं ने अखबार और तक़रीरों के ज़रिए खुले लफ़जों में कहा कि वह ’इन्डिया ऐक्ट’ को ठुकरा देंगे। अशरफ़ ने इन्हीें तक़रीरों के बल के बूते पर खूब जोर-जोर से कहा ’’हम इन्डिया एंक्ट को ठुकरा देंगे। हम वज़ारतें क़बूल नहीं करेंगे।’’ लेकिन हुआ यह कि काँग्रेस ने आखिरी समय पर वज़रतें क़बूल कर ली। वज़ारतें मंजूर हैं लेकिन ऐक्ट क़बूल नहीं। यह मनतक़ कुछ अशरफ़ की समझ में नहीं आई। लोगों ने कहा यह सयासत है। अशरफ़ सयासन दान नहीं था। वह तो वतन का एक सिपाही था। इसीलिए वह इस सयासत पर खुश नहीं हुआ। पहली बार उसके जहन में एक खला सा पैदा हुआ। मौलाना और दूसरे लीगियों ने मौके का फायदा उठाया। उन्होंने अपनी तमाम ताकतें सर्फ कर दीं। अशरफ़ को काँग्रेस से निकालकर लीग में लाने के लिए कोई दकीका फर्दगुजाश्त न किया। लेकिन अशरफ़ एक ही सवाल पूछता था, ’’लीग के सामने प्रोग्राम क्या ह?’’ उसके लीगी दोस्तों के पास इसका कोई जवाब न था। एक रोज इसी मसले पर गुफ्तगू हो रही थी कि रेडियो पर ख़बर आई कि लाहौर में निन्दुस्तान की तकसीम का रेजोल्यूशन पास किया गया है। अशरफ़ के जहन पर फालिज सा आ गिरा। उसकी आँखों के सामने जैसे धुन्ध सी छा गई। यह अंग्रेज के तरकश का आखरी तीर था जो ठीक निशाने पर बैठा। इसका सबूत यह है कि अशरफ़ जैसा आदमी भी इससे बच न सका।
अशरफ़ काँग्रेस छोड़कर लीग में चला गया, लेकिन वह अपने उसूल भी साथ ले गया। उसूल जो लोचदार नहीं थे। उसूल जो आसानी से बदल नहीं सकते। उसूल जो सयासत की अदना चालों पर कुरबान नहीं किए जा सकते। इसीलिए जब नोआखली, बिहार और पंजाब के कत्लोगारत की ख़बरें अशरफ़ ने पढ़ीं तो वह रो-रो पड़ा। अशरफ़ उन लोगों में से नहीं था जो कहते हैं, ’’अपना मकसद हासिल करने के लिए कोई भी रास्ता अख्तियार कर लो’’ अशरफ़ के ख्याल में रास्ते का सही इन्तख्वाब मकसद के हसूल से कहीं ज्यादा अहम है।
15 अगस्त को जबकि सारे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में जश्ने आजादी मनाया जा रहा था अशरफ़ एक रेलगाड़ी में लाहौर से घर लौट रहा था। रास्ते में दो जगह गाड़ी रोगी गई। एक जगह मुसलमानों और दूसरी जगह हिन्दुओं ने हमला किया। उस दिन अशरफ़ को एहसास हुआ - लीग की तफरत फैलाने वाली पालीसी ने हमारी आज़ादी पर कितना बदनुमा धब्बा लगा दिया है। उस दिन उसने देखा कि लीग के रहनुमाओं ने किस तरह पाकिस्तान की दुनियाद औरतों की लुटी हुई इसमत और बेगुनाहों के कत्ल पर रखी है। उससे कहा गया था पाकिस्तान बन जाने से हिन्दुओं और मुसलमानों के इख्तलाफात कम हो जायेंगे। लेकिन हक़ीक़त कितनी भयानक है। आज हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे से कितनी दूर नजर आते हैं।
अशरफ़ को अब अपनी गलती का एहसास होता है। और वह कहता है, ’’मैं उस कौम को पुकारा चाहता हूँ जिससे दुनिया की तारीख का सबसे बड़ा धोका किया गया’’ वह मुसलमानों के जमीर को आवाज देता है और कहता है, ’’हिन्दुस्तान मुसलमान का उतना ही मुल्क है जितना कि हिन्दू का। मुसलमान यहाँ रहेंगे, लेकिन वह मुसलमान जो हिन्दुस्तान को अपना मुल्क समझेंगे और जो अपने वतन के मुफ़ाद को कभी किसी गैर मुल्क के बाजारों में बेचने की कोशिश नहीं करेंगे।’’
चारों तरफ से नारों कीे आवजें उठ रही हैं- ’’आज़ाद हिन्दुस्तान हिन्दाबाद’’ ’’महात्मा गांधी की जय’’ - अशरफ़ भी कह उठता है ’’आजाद हिन्दुस्तान जिन्दाबाद’’ - ’’महात्मा गांधी की जय’’ - महात्मा गांधी! दुनिया की तारीख का सबसे बड़ा इन्सान। हिन्दी मुसलमानों को मुहाफिज! सबसे बड़ा दोस्त!
[From the official press booklet]