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“अयोध्यापति” भगवान राम की पावन नगरी से सम्बन्ध रखने वाली एक पसिद्ध कथा है। रामायण का एक सुनहरा पन्ना है।
बहुत दिन हुए, एक बार देवताओं और राक्षसों का भयंकर युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में सहायता देने के लिए देवराज इन्द्र ने अयोध्यापति दशरथ को निमंत्रण दिया। महारानी कैकेयी भी उनके साथ युद्धक्षेत्र में गयीं। युद्ध में राक्षस शम्बरासुर ने महाराज दशरथ के सारथी को मार डाला। सारथी के बिना रथ डगमगाने लगा। कैकेयी ने देखा, रथ के एक पहिए की कील निकल गयी है, उसने वहां अपनी अंगुली लगा दी। दशरथजी राक्षस की हत्या कर सके। विजय में कैकेयी की सहायता से प्रसन्न होकर दशरथ जी ने उससे दो वरदान मांगने को कहा। कैकेयी ने उन दोनों वरदानों को महाराज के पास धरोहर के रूप में रख दिया।
समय ने अंगड़ाई ली। महाराज दशरथ को सन्तान का मुख देखने की प्रबल इच्छा हुई। राजगुरू वशिष्ठ ने उनको पुत्रेष्टि-यज्ञ करने की सम्मत्ति दी। यज्ञ हुआ। अग्नि देव ने प्रगट होकर रानियों को प्रसाद दिया और कौशल्या ने राम, सुमित्र ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न तथा कैकेयी ने भरत को जन्म दिया। कैकेयी राम को भरत से भी अधिक दुलार करती थी, परन्तु मंथरा को यह व्यवहार प्रिय नहीं था।
राक्षसों के अत्याचारों से दुःखी होकर एक दिन महर्षि विश्वामित्र महाराज दशरथ से राम-लक्ष्मण को मांगने आए। दोनों भाईयों ने राक्षसों को मारकर यज्ञ की रक्षा की और वहाँ से जनकपुरी मुनिराज के साथ-साथ गए। सीता स्वयंवर में राम ने धनुष तोड़ा और सीता ने राम को वरमाला पहना दी। सीता की और बहिनों को विवाह भी तभी राम के भाइयों से हो गया।
एक दिन महाराज दशरथ ने राम को राजतिलक करने का निश्चय किया। सबको प्रसन्नता हुयी परंतु मंथरा का मन में आग लग गयी। उधर, रावण के अत्याचार से देवगण हाहाकार कर रहे थे। देवताओं के बहुत मनाने पर सरस्वती अयोध्या आयी और मंथरा के शरीर में प्रवेश किया।
मंथरा ने क्या किया?
क्या राम का राज्याभिषेक हुआ?
इन प्रश्नों का उत्तर आपको “अयोध्यापति” से मिलेगा।
“अयोध्यापति” शीघ्रही आपके नगर के प्रसिद्ध छविगृह में जाएगा।