1945 में, फ़िल्मिस्तान स्टूडिओ में, नीतिन बोस की फ़िल्म, मज़दूर की शूटिंग देखते हुए नासिर, नीतिन बोस की निगाह की तलाश बन पायेंगे - सोचा भी न होगा। बहरहाल यही हुआ, जिसके नतीजे में नासिर खान को, उसी फ़िल्म में इन्दुमती के साथ काम करने का सुनहरा मौक़ा भी हासिल हुआ।
नासिर, दिलीप कुमार के भाई थे - यह न सिर्फ उसके चेहरे की गवाही की बिनह पर कहा जा सकता था, बल्कि शुरुआती उस दौर में नासिर की अदाकरी के अंदाज़ से भी बयां हो रहा था। यह कोई अजीब बात नहीं थी। इतने मक़बूल, और हरदिल अज़ीज़ दिलीप कुमार के दीवानों में जहां, हिन्दुस्तां का हर नौजवान शुमार हो रहा हो, वहां भाई का भाई की आदतों से मुतासिर होना, या हमशक्ल दिखना, कौनसी अचरज वाली बात हो सकती थी? फिर भी एक शै तो दोनों भाईयों की अलग-अलग थी और वह थी उनकी आवाज़, और जहां तक आवाज़ का सवाल था, यह कहते हुए झिझक नहीं महसूस हो रही, कि नासिर खान की आवाज़, दिलीप की आवाज़ से ज्यादह भारी, साफ़ और पुरअसर थी। फ़िल्म ’मज़दूर ’ ने यूं तो कोई खास हंगामा बर्पा नहीं किया लेकिन मोतीलाल की झलक, कई देखनेवालों ने महसूस की। कुछ का कहना था नासिर खान तजुर्बे के साथ एक और बलराज साहनी भी बन सकते हैं। हालांकि बलराज, नासिर के बाद मकबूल हुए थे फिर भी लोग अपने मश्वरों से खाली बैठना पसंद नहीं करते थे।
देवलाली में स्कूल से रफ़ूचक्कर होकर फुटबॉल में जी लगानेवाले नासिर, फ़िल्मों में अपना मकाम बना लेंगे, यह बात उस वक्त काफ़ी अजीब, मगर दिलचस्प रही।
फ़िल्मीस्तान की फ़िल्म ’शहनाई’ आई। रेहाना की क़ातिलाना अदाओं और नासिर खान की आशिक़ाना वफ़ाओं ने फ़िल्म को ढेर सारी कामयाबी दिला दी। सी. रामचन्द्र साहब की मौसिक़ी, उस पर एक और सही निशाना साबित हुई।
देखा जाय तो नासिर खान की बुनियाद हिन्दुस्तानी फ़िल्मों में बन ही चुकी थी लेकिन 1947 के बंटवारे के बाद नासिर पाकिस्तान जा बसे। दो पाकिस्तानी फ़िल्मों में भी काम किया जिनका नाम था मेरी याद और शाहिदा लेकिन अपनों से दूर, पाकिस्तान में तनहा जीना, नासिर को ज्यादह दिन रास नहीं आ सका, और जल्द ही हिन्दुस्तान लौटने के मनसूबे तैयार होने लगे। काफ़ी दिक्कते पेश आई। पाकिस्तान सरकार की खिलाफ़तें, उनके इस मनसूबे को पूरा नहीं होने दे पा रही थी लेकिन ज़िद और तड़प, नासिर खान को सरहद पार करने पर आमादा कर चुकीं, और हिन्दुस्तान लौटने के बाद बड़ी मेहनत और मुश्किल के साथ उनका भारत में बस जाना मुमकिन हो सका।
मार्च 1950 में वे हिन्दुस्तान लौट आए। होली का खेल यू ही होना था। नासिर और नूतन की जोड़ी को फ़िल्मी दुनिया की सबसे कम उम्र वाली और मशहूर जोड़ी साबित होना था। बहरहाल दो दूसरी ज़िंदगानियों का आग़ाज हुआ। ज़ाती और फ़िल्मी। फ़िल्मी ज़िंदगी में, नासिर खान की हमसफ़र अदाकाराएं बनीं।
खज़ाना और नाज़नीन में मधुबाला। नखरे और फूलों के हार में गीताबाली। इनाम और लालकुंवर में सुरैया। आस्मान और श्रीमतीजी में श्यामा। शहनाई और सौदागर में रेहाना। और नूतन के साथ शीशम - नगीना - हंगामा और आग़ोश।
कितनी अनोखी हक़ीक़त है कि नूतन ने नासिर खान के साथ एक बेमिसाल जोड़ी कायम की, जब कि नासिर के भाई दिलीप कुमार के साथ फ़िल्म ’शिकवा’ में काम भी किया, लेकिन फ़िल्म पर्दे पर नहीं आ सकी। दो साल के अर्से में, नासिर खान की 16 फ़िल्मों ने, यक़ीनन उसे हंगामाखेज़ अदाकार बना दिया। पुराने अदाकार नज़ीर, जिसने बाद में स्वर्णलता से दूसरी शादी की थी, नासिर खान ने उसकी बेटी सुरैया से पहली शादी की और बाद में दूसरी शादी की मशहूर अदाकारा बेग़मपारा से, जो अपने ज़माने की, नई हवा की खातून की हैसियत से, अफ़सानों की सुर्खी बनकर रही।
आज भी फ़िल्म गंगा-जमुना दिखाई जाने पर, लोग नासिर खान की याद, फिर से ताज़ा कर लेते हैं। कुछ उसे दिलीप कुमार का भाई कहते दिखाई देते हैं, तो कई जमना को दिलीप कुमार का डबल रोल समझकर नासिर खान को दिलीप कुमार समझ लेते हैं।
नासिर, दिलीप कुमार के भाई थे - यह न सिर्फ उसके चेहरे की गवाही की बिनह पर कहा जा सकता था, बल्कि शुरुआती उस दौर में नासिर की अदाकरी के अंदाज़ से भी बयां हो रहा था। यह कोई अजीब बात नहीं थी। इतने मक़बूल, और हरदिल अज़ीज़ दिलीप कुमार के दीवानों में जहां, हिन्दुस्तां का हर नौजवान शुमार हो रहा हो, वहां भाई का भाई की आदतों से मुतासिर होना, या हमशक्ल दिखना, कौनसी अचरज वाली बात हो सकती थी? फिर भी एक शै तो दोनों भाईयों की अलग-अलग थी और वह थी उनकी आवाज़, और जहां तक आवाज़ का सवाल था, यह कहते हुए झिझक नहीं महसूस हो रही, कि नासिर खान की आवाज़, दिलीप की आवाज़ से ज्यादह भारी, साफ़ और पुरअसर थी। फ़िल्म ’मज़दूर ’ ने यूं तो कोई खास हंगामा बर्पा नहीं किया लेकिन मोतीलाल की झलक, कई देखनेवालों ने महसूस की। कुछ का कहना था नासिर खान तजुर्बे के साथ एक और बलराज साहनी भी बन सकते हैं। हालांकि बलराज, नासिर के बाद मकबूल हुए थे फिर भी लोग अपने मश्वरों से खाली बैठना पसंद नहीं करते थे।
देवलाली में स्कूल से रफ़ूचक्कर होकर फुटबॉल में जी लगानेवाले नासिर, फ़िल्मों में अपना मकाम बना लेंगे, यह बात उस वक्त काफ़ी अजीब, मगर दिलचस्प रही।
फ़िल्मीस्तान की फ़िल्म ’शहनाई’ आई। रेहाना की क़ातिलाना अदाओं और नासिर खान की आशिक़ाना वफ़ाओं ने फ़िल्म को ढेर सारी कामयाबी दिला दी। सी. रामचन्द्र साहब की मौसिक़ी, उस पर एक और सही निशाना साबित हुई।
देखा जाय तो नासिर खान की बुनियाद हिन्दुस्तानी फ़िल्मों में बन ही चुकी थी लेकिन 1947 के बंटवारे के बाद नासिर पाकिस्तान जा बसे। दो पाकिस्तानी फ़िल्मों में भी काम किया जिनका नाम था मेरी याद और शाहिदा लेकिन अपनों से दूर, पाकिस्तान में तनहा जीना, नासिर को ज्यादह दिन रास नहीं आ सका, और जल्द ही हिन्दुस्तान लौटने के मनसूबे तैयार होने लगे। काफ़ी दिक्कते पेश आई। पाकिस्तान सरकार की खिलाफ़तें, उनके इस मनसूबे को पूरा नहीं होने दे पा रही थी लेकिन ज़िद और तड़प, नासिर खान को सरहद पार करने पर आमादा कर चुकीं, और हिन्दुस्तान लौटने के बाद बड़ी मेहनत और मुश्किल के साथ उनका भारत में बस जाना मुमकिन हो सका।
मार्च 1950 में वे हिन्दुस्तान लौट आए। होली का खेल यू ही होना था। नासिर और नूतन की जोड़ी को फ़िल्मी दुनिया की सबसे कम उम्र वाली और मशहूर जोड़ी साबित होना था। बहरहाल दो दूसरी ज़िंदगानियों का आग़ाज हुआ। ज़ाती और फ़िल्मी। फ़िल्मी ज़िंदगी में, नासिर खान की हमसफ़र अदाकाराएं बनीं।
खज़ाना और नाज़नीन में मधुबाला। नखरे और फूलों के हार में गीताबाली। इनाम और लालकुंवर में सुरैया। आस्मान और श्रीमतीजी में श्यामा। शहनाई और सौदागर में रेहाना। और नूतन के साथ शीशम - नगीना - हंगामा और आग़ोश।
कितनी अनोखी हक़ीक़त है कि नूतन ने नासिर खान के साथ एक बेमिसाल जोड़ी कायम की, जब कि नासिर के भाई दिलीप कुमार के साथ फ़िल्म ’शिकवा’ में काम भी किया, लेकिन फ़िल्म पर्दे पर नहीं आ सकी। दो साल के अर्से में, नासिर खान की 16 फ़िल्मों ने, यक़ीनन उसे हंगामाखेज़ अदाकार बना दिया। पुराने अदाकार नज़ीर, जिसने बाद में स्वर्णलता से दूसरी शादी की थी, नासिर खान ने उसकी बेटी सुरैया से पहली शादी की और बाद में दूसरी शादी की मशहूर अदाकारा बेग़मपारा से, जो अपने ज़माने की, नई हवा की खातून की हैसियत से, अफ़सानों की सुर्खी बनकर रही।
आज भी फ़िल्म गंगा-जमुना दिखाई जाने पर, लोग नासिर खान की याद, फिर से ताज़ा कर लेते हैं। कुछ उसे दिलीप कुमार का भाई कहते दिखाई देते हैं, तो कई जमना को दिलीप कुमार का डबल रोल समझकर नासिर खान को दिलीप कुमार समझ लेते हैं।
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This article is a reproduction of the original that appeared in Maazi Magazine, January, 1988 ( pp. 47-49).
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