भरी दोपहर में सूर्यास्त : स्मिता पाटिल
31 Aug, 2020 | Archival Reproductions by Jeetendra Muchhal
बंबई का विख्यात ब्रेवोर्न स्टेडियम खचाखच भरा था। फिल्म उद्योग की प्रतिष्ठित हस्तियों ने 'होप 86' नामक समारोह का आयोजन किया था तथा सभी सितारे और सुपर सितारे उसके आयोजन से जुड़े थे। चहल-पहल के बीच राजेश खन्ना ने मंच पर राजबब्बर को आमंत्रित किया। काफी बार घोषणा दोहराई गई मगर राजबब्बर का पता नहीं चला। सभी विस्मित थे। उनके मौजूद न होने पर क्योंकि इस समारोह के आयोजन में बब्बर ने जी जान से मेहनत की।
राजबब्बर इन क्षणों में अपनी पत्नी तथा विख्यात सिने-तारिका स्मिता पाटिल के पास मौजूद थे, जो जिन्दगी तथा मौत के बीच एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही थी। प्रसव के पश्चात 27 नवम्बर 86 से उसे तेज बुखार ने जकड़ रखा था। हालत लगातार बिगड़ रही थी। 12 दिसम्बर को अन्दरूनी हेमरेज के कारण नाक तथा मुँह से खून तेजी से निकलने लगा था। असलोक अस्पताल की गहन चिकित्सा इकाई में डॉक्टरों का दल इलाज में व्यस्त था। दरअसल डॉक्टरों ने जिसे पहले प्रसव पश्चात की आम शिकायत तथा बुखार समझा था वह घातक निकला। 'ओ पाजिटिव' ग्रुप का रक्त लगातार शरीर में डाला जा रहा था ताकि नाक एवं मुँह से निकलने वाले खून की पूर्ति हो सके। यह सब कार्यवाईयाँ चल रही थी कि तारीख बदलकर 13 से 14 दिसम्बर 86 हो गई और रात 12.40 पर स्मिता पाटिल ने आखिरी साँस ली।
भरी जवानी याने सिर्फ 31 साल की उम्र में दुनिया छोड़ कर जाने वाली इस महान अभिनेत्री ने सिर्फ उम्र ही कम पाई थी वरना उपलब्धियों के मामले में वह इतना कुछ अर्जित कर चुकी थी जो आम लोग सौ साल जीकर भी पाने को तरसते हैं। अभिनेत्री के रूप में उसकी छवि कालजयी की श्रेणी में आ चुकी थी। महान नगर कम उम्र की यह नायिका महाराष्ट्र के सम्पन्न परिवार से जुड़ी थी। महाराष्ट्र राज्य के पूर्व मंत्री शिवाजी राव पाटिल की तीन बेटियों में से यह दूसरी बेटी 17 अक्टूबर 1944 को पूना में जन्मी थी। स्मिता की माताजी श्रीमती विद्या पाटिल ने उन दिनों का जिक्र करते हुए कहा था- ’उसे बचपन से ही मन की बात कहने की आदत थी। यदि उसके साथ या उसके सामने किसी अन्य के साथ अन्याय होता था तब वह फौरन प्रतिकार करती थी।’ अन्याय के विरूद्ध प्रतिकार की यह भावना स्मिता के व्यक्तित्व का अंग बन गई, जब फिल्मकारों ने सरकारी नीतियों के विरूद्ध एकजूट होकर प्रदर्शन किया तब प्रसवकाल के आखिरी दिनों में होने के बावजूद स्मिता ने काली सलवार कमीज पहन कर 'प्रोटेस्ट मार्च’ में भाग लिया। स्मिता की जिन्दगी में साहस, संघर्ष तथा न्याय की रक्षा के लिए सर्वस्व दाँव पर लगाने की क्षमता ही खास विशष्टता थी।
स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उसने पूना के फर्ग्यूसन कॉलेज में प्रवेश लिया तथा इसी दौरान शुरू हुआ फिल्मी जीवन का पहला अध्याय। अपने मित्र अरूण - की फिल्म 'तीसरा माध्यम' में उसने अभिनय किया। यह एक वृत्त चित्र था। जब परिवार बम्बई शिफ्ट हुआ तब स्मिता ने पहले एलफिंस्टन कॉलेज में प्रवेश लिया मगर बाद में उसने सेन्ट जेवियर कॉलेज में प्रवेश ले लिया। अपने मित्र के बार-बार जोर देने पर उसने दूरदर्शन के लिए स्क्रीन टेस्ट दिया तथा पहले मराठी उद्घोषिका तथा बाद में समाचार वाचिका के रूप में कार्य करना शुरू किया। समाचार वाचिका के रूप में 1974 में उसका चेहरा विख्यात फिल्मकार श्याम बेनेगल ने देखा। देखते ही उन पर जो प्रतिक्रिया हुई उसे उन्होंने इस प्रकार व्यक्त किया - ’परदे पर उसके चेहरे ने मुझे बेहद प्रभावित किया। उसमें आत्म विश्वास के साथ भाव प्रदर्शन की नैसर्गिक क्षमता थी। मुझे लगा कि इस लड़की में निपुण कलाकार बनने की अपार संभावनाएँ हैं।’
श्याम बेनेगल ने स्मिता के सामने 'चरणदास चोर' में काम करने का प्रस्ताव रखा। थोड़ी हिचकिचाहट के बाद स्मिता ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया। श्याम बेनेगल की अगली फिल्म 'निशान्त' ने स्मिता के कैरियर को नया मोड़ दिया। इस फिल्म में स्मिता के काम की शैली का उल्लेख करते हुए श्याम बेनेगल कहते हैं, 'तब स्मिता कैशोर्य वय की लड़की थी। उसने अभिनय की कोई औपचारिक शिक्षा भी नहीं पाई थी। इसके बावजूद अपनी नैसर्गिक अभिनय क्षमता एवं पात्र में स्वयं व्यक्तित्व को डुबो देने की योग्यता से लगता ही नहीं था कि वह अभिनय कर रही है। लगता था कि पात्र ही जीवन्त हो उठा हो।'
स्मिता की उसी विशिष्टता ने उसे नसीरूद्दीन, शबाना आज़मी तथा ओमपुरी से अलग उँचाई दी। वैसे इन चारों ने ही अभिनय को नए अर्थ तथा आयाम दिए मगर स्मिता की विशिष्टता यही थी कि वह अभिनय नहीं करती थी पात्र को जीवन्त कर देती थी।
'निशान्त' कें बाद 'भूमिका' में स्मिता ने निहायत उलझे चरित्र को परदे पर साकार किया। इस फिल्म में उसे अभिनय का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इस तरह सिर्फ दूसरी फिल्म में ही वह राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो गई।
इसके बाद स्मिता के लिए पीछे मुड़कर देखने का कोई मौका ही नहीं था। 'अर्थ' का मनोरोगी पात्र, 'चक्र' की झोपड़पट्टी वाली महिला तथा अपनी पहचान खोजती 'सुबह' की नायिका और 'मिर्च मसाला' की शोले जैसी ग्रामीण महिला के रूप में स्मिता जितनी सशक्त रही वैसी ही नैसर्गिक रही 'बाजार' और 'मण्डी' की देह बेचने वाली नारी के रूप में। दरअसल स्मिता के कैरियर ग्राफ में आने वाले उतार-चढ़ाव तथाकथित सार्थक/कला/गैर व्यावसायिक सिनेमा से गहरा रिश्ता है। यह कहना मुश्किल है कि स्मिता का असर इस सिनेमा पर पड़ा या इस सिनेमा ने स्मिता के कैरियर को प्रभावित किया। यह बेशक कहा जा सकता है कि दोनों के मिलन ने दर्शकों को बेहद प्रभावित एवं आनन्दित किया। स्मिता का कैरियर सिर्फ बारह साल के विस्तार में फैला है। आकर में छोटा यह कैरियर गुणवत्ता की दृष्टि से ऐतिहासिक रहा है। लगभग आधा दर्जन भारतीय भाषाओं में उसकी 60 फिल्म बनीं तथा अपने समय के सभी प्रतिष्ठित निर्देशकों के साथ उसने काम किया। बेनेगल/गोविन्द निहलानी/जब्बार पटेल/केतन मेहता/जी. अरविन्दन आदि बीसियों नाम गिनाए जा सकते हैं। इन सभी निर्देशकों ने स्मिता की प्रतिमा को मुक्त कंठ से सराहा। 'मिर्च मसाला' एवं 'भवनी भवाई' के निर्देशक केतन मेहता कहते हैं, उसका व्यक्तित्व उस तार की तरह है जिसमें अभिनय विद्युत की भाँति प्रवाहित रहता है, जो अनुभव करने का अवसर पाता है। वह अभिनय की गहराई से अभिभूत हो जाता है। 'आक्रोश' तथा 'अर्द्धसत्य' के निर्देशक गोविन्द निहलानी के अनुसार- 'वह जन्मजात अभिनेत्री थी। खुशदिल लड़की थी और नेक इंसान थी।' सच तो यह है कि स्मिता पाटिल की उपलब्धियों का विवरण ही भारतीय समानान्तर सिनेमा का इतिहास है। भारतीय नारी की छवि को नया अन्दाज देने वालों में स्मिता तथा शबाना का नाम प्रमुख है। इन दोनों ने ही फिल्मों में भारतीय नारी की छवि को नया रूप दिया है। यदि कल्पना करें कि श्याम बेनेगल नहीं बल्कि मनमोहन देसाई या प्रकाश मेहरा स्मिता को फिल्मों में पहला अवसर देते तब क्या होता। यदि ऐसा होता तब शायद स्मिता उनकी कसौटी पर खरी नहीं उतरती क्योंकि वे कमसिन, खूबसूरत, गदराए बदन वाली नायिकाओं को ही चाहते ताकि सिनेमा हॉल में दर्शक गुदगुदी महसूस करते रहे। स्मिता पारम्परिक कसौटी पर कभी सुन्दर नहीं रही। यह कमी उनके लिए वरदान बन गई। उसे अपनी आंतरिक प्रतिमा दिखाने का मौका मिला, जो तन के आकर्षण से कहीं ज्यादा खूबसूरत थी। स्मिता की आँखों की भाषा, भावनाओं को हावभाव से प्रदर्शित कर सकने की क्षमता अद्वितीय थी। सच तो यह है कि नायिकाएँ आती-जाती रहेंगी मगर स्मिता का प्रभाव अमर रहेगा।
स्मिता पाटिल कला फिल्मों में ही सफल रही हो ऐसा नहीं है, अपने कैरियर के उतरार्द्ध में उसने व्यावसायिक फिल्मों में काफी काम किया और लोकप्रियता पाई। 'शक्ति'/'वारिस'/'अमृत'/आदि फिल्मों के माध्यम से वह व्यावसायिक सिनेमा में स्थापित हो गई। यहाँ भी उसे श्रेष्ठ अभिनेत्री के रूप में स्वीकारा एवं सराहा गया। मेरी दृष्टि में स्मिता उन सम्मानों तथा पुरस्कारों से ऊँची थी जो उसे मिले। उसने तो लोगों के हृदय को आन्दोलित कर पाने का सामर्थ्य पाया था। उसे तीन बार में राष्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित किया गया तथा मद्मश्री की उपाधि दी गई। राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अन्तरराष्ट्रीय फिल्म दर्शकों एवं समीक्षकों ने भी इसकी प्रतिभा को मुक्त कंठ से स्वीकारा। जब उसकी चुनिन्दा फिल्में फ्रांस में दिखाई गईं तब हॉल खचाखच भरे रहते थे। अपनी पंशंसा से अभिभूत होकर- स्मिता ने यहाँ कहा था- 'मैं यह सम्मान पाकर गौरवान्वित महसूस कर रही हूँ। यह मेरी निजी उपलब्धि का सम्मान नहीं है बल्कि उन भारतीय परम्पराओं तथा विशिष्टताओं का सम्मान है जिनकी रचना भारत में हुई।' राजबब्बर तथा स्मिता दाम्पत्य सूत्र में बंधे। यह जोड़ी 'जवाब', 'अवाम', 'आज की आवाज' तथा 'दहलीज' में परदे पर आईं। स्मिता ने पहले से ही विवाहित राजबब्बर से व्याह क्यों रचाया। मई 85 में सम्पन्न हुए इस बहुचर्चित विवाह के बारे में स्मिता ने कहा था "दुनिया में ऐसी बहुत सी चीज़ें होती है, जिन्हें समझना कठिन होता है। जिनकी व्याख्या नहीं की जा सकती। वे घटनाएँ तो बस अनायास घट जाती है। वैसे मुझे परवाह नहीं है कि लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं।"
स्मिता ने दुनिया की परवाह नहीं की मगर किस्मत के सामने वह विवश थी। यह एक विचित्र संयोग ही कहा जाएगा कि स्मिता के जीवन में हूबहू वही घटा जो - उसकी एक फिल्म का घटनाक्रम था। 'पेट प्यार और पाप' नामक फिल्म में उसने एक झोपड़पट्टी में रहने वाली ऐसी युवती की भूमिका की थी जो एक ड्राइवर (राजबब्बर) की दूसरी पत्नी बन जाती है। फिल्म के अंत में वह एक नवजात शिशु को छोड़कर मर जाती है। लगभग ऐसा ही स्मिता के असली जीवन में घटा।
The article was published in Bhartiya Film Varshiki, 1993.
The film posters used are from Cinemaazi archive and was not part of the original article
राजबब्बर इन क्षणों में अपनी पत्नी तथा विख्यात सिने-तारिका स्मिता पाटिल के पास मौजूद थे, जो जिन्दगी तथा मौत के बीच एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही थी। प्रसव के पश्चात 27 नवम्बर 86 से उसे तेज बुखार ने जकड़ रखा था। हालत लगातार बिगड़ रही थी। 12 दिसम्बर को अन्दरूनी हेमरेज के कारण नाक तथा मुँह से खून तेजी से निकलने लगा था। असलोक अस्पताल की गहन चिकित्सा इकाई में डॉक्टरों का दल इलाज में व्यस्त था। दरअसल डॉक्टरों ने जिसे पहले प्रसव पश्चात की आम शिकायत तथा बुखार समझा था वह घातक निकला। 'ओ पाजिटिव' ग्रुप का रक्त लगातार शरीर में डाला जा रहा था ताकि नाक एवं मुँह से निकलने वाले खून की पूर्ति हो सके। यह सब कार्यवाईयाँ चल रही थी कि तारीख बदलकर 13 से 14 दिसम्बर 86 हो गई और रात 12.40 पर स्मिता पाटिल ने आखिरी साँस ली।
भरी जवानी याने सिर्फ 31 साल की उम्र में दुनिया छोड़ कर जाने वाली इस महान अभिनेत्री ने सिर्फ उम्र ही कम पाई थी वरना उपलब्धियों के मामले में वह इतना कुछ अर्जित कर चुकी थी जो आम लोग सौ साल जीकर भी पाने को तरसते हैं। अभिनेत्री के रूप में उसकी छवि कालजयी की श्रेणी में आ चुकी थी। महान नगर कम उम्र की यह नायिका महाराष्ट्र के सम्पन्न परिवार से जुड़ी थी। महाराष्ट्र राज्य के पूर्व मंत्री शिवाजी राव पाटिल की तीन बेटियों में से यह दूसरी बेटी 17 अक्टूबर 1944 को पूना में जन्मी थी। स्मिता की माताजी श्रीमती विद्या पाटिल ने उन दिनों का जिक्र करते हुए कहा था- ’उसे बचपन से ही मन की बात कहने की आदत थी। यदि उसके साथ या उसके सामने किसी अन्य के साथ अन्याय होता था तब वह फौरन प्रतिकार करती थी।’ अन्याय के विरूद्ध प्रतिकार की यह भावना स्मिता के व्यक्तित्व का अंग बन गई, जब फिल्मकारों ने सरकारी नीतियों के विरूद्ध एकजूट होकर प्रदर्शन किया तब प्रसवकाल के आखिरी दिनों में होने के बावजूद स्मिता ने काली सलवार कमीज पहन कर 'प्रोटेस्ट मार्च’ में भाग लिया। स्मिता की जिन्दगी में साहस, संघर्ष तथा न्याय की रक्षा के लिए सर्वस्व दाँव पर लगाने की क्षमता ही खास विशष्टता थी।
स्मिता पाटिल कला फिल्मों में ही सफल रही हो ऐसा नहीं है, अपने कैरियर के उतरार्द्ध में उसने व्यावसायिक फिल्मों में काफी काम किया और लोकप्रियता पाई
स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उसने पूना के फर्ग्यूसन कॉलेज में प्रवेश लिया तथा इसी दौरान शुरू हुआ फिल्मी जीवन का पहला अध्याय। अपने मित्र अरूण - की फिल्म 'तीसरा माध्यम' में उसने अभिनय किया। यह एक वृत्त चित्र था। जब परिवार बम्बई शिफ्ट हुआ तब स्मिता ने पहले एलफिंस्टन कॉलेज में प्रवेश लिया मगर बाद में उसने सेन्ट जेवियर कॉलेज में प्रवेश ले लिया। अपने मित्र के बार-बार जोर देने पर उसने दूरदर्शन के लिए स्क्रीन टेस्ट दिया तथा पहले मराठी उद्घोषिका तथा बाद में समाचार वाचिका के रूप में कार्य करना शुरू किया। समाचार वाचिका के रूप में 1974 में उसका चेहरा विख्यात फिल्मकार श्याम बेनेगल ने देखा। देखते ही उन पर जो प्रतिक्रिया हुई उसे उन्होंने इस प्रकार व्यक्त किया - ’परदे पर उसके चेहरे ने मुझे बेहद प्रभावित किया। उसमें आत्म विश्वास के साथ भाव प्रदर्शन की नैसर्गिक क्षमता थी। मुझे लगा कि इस लड़की में निपुण कलाकार बनने की अपार संभावनाएँ हैं।’
श्याम बेनेगल ने स्मिता के सामने 'चरणदास चोर' में काम करने का प्रस्ताव रखा। थोड़ी हिचकिचाहट के बाद स्मिता ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया। श्याम बेनेगल की अगली फिल्म 'निशान्त' ने स्मिता के कैरियर को नया मोड़ दिया। इस फिल्म में स्मिता के काम की शैली का उल्लेख करते हुए श्याम बेनेगल कहते हैं, 'तब स्मिता कैशोर्य वय की लड़की थी। उसने अभिनय की कोई औपचारिक शिक्षा भी नहीं पाई थी। इसके बावजूद अपनी नैसर्गिक अभिनय क्षमता एवं पात्र में स्वयं व्यक्तित्व को डुबो देने की योग्यता से लगता ही नहीं था कि वह अभिनय कर रही है। लगता था कि पात्र ही जीवन्त हो उठा हो।'
स्मिता की उसी विशिष्टता ने उसे नसीरूद्दीन, शबाना आज़मी तथा ओमपुरी से अलग उँचाई दी। वैसे इन चारों ने ही अभिनय को नए अर्थ तथा आयाम दिए मगर स्मिता की विशिष्टता यही थी कि वह अभिनय नहीं करती थी पात्र को जीवन्त कर देती थी।
'निशान्त' कें बाद 'भूमिका' में स्मिता ने निहायत उलझे चरित्र को परदे पर साकार किया। इस फिल्म में उसे अभिनय का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इस तरह सिर्फ दूसरी फिल्म में ही वह राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो गई।
इसके बाद स्मिता के लिए पीछे मुड़कर देखने का कोई मौका ही नहीं था। 'अर्थ' का मनोरोगी पात्र, 'चक्र' की झोपड़पट्टी वाली महिला तथा अपनी पहचान खोजती 'सुबह' की नायिका और 'मिर्च मसाला' की शोले जैसी ग्रामीण महिला के रूप में स्मिता जितनी सशक्त रही वैसी ही नैसर्गिक रही 'बाजार' और 'मण्डी' की देह बेचने वाली नारी के रूप में। दरअसल स्मिता के कैरियर ग्राफ में आने वाले उतार-चढ़ाव तथाकथित सार्थक/कला/गैर व्यावसायिक सिनेमा से गहरा रिश्ता है। यह कहना मुश्किल है कि स्मिता का असर इस सिनेमा पर पड़ा या इस सिनेमा ने स्मिता के कैरियर को प्रभावित किया। यह बेशक कहा जा सकता है कि दोनों के मिलन ने दर्शकों को बेहद प्रभावित एवं आनन्दित किया। स्मिता का कैरियर सिर्फ बारह साल के विस्तार में फैला है। आकर में छोटा यह कैरियर गुणवत्ता की दृष्टि से ऐतिहासिक रहा है। लगभग आधा दर्जन भारतीय भाषाओं में उसकी 60 फिल्म बनीं तथा अपने समय के सभी प्रतिष्ठित निर्देशकों के साथ उसने काम किया। बेनेगल/गोविन्द निहलानी/जब्बार पटेल/केतन मेहता/जी. अरविन्दन आदि बीसियों नाम गिनाए जा सकते हैं। इन सभी निर्देशकों ने स्मिता की प्रतिमा को मुक्त कंठ से सराहा। 'मिर्च मसाला' एवं 'भवनी भवाई' के निर्देशक केतन मेहता कहते हैं, उसका व्यक्तित्व उस तार की तरह है जिसमें अभिनय विद्युत की भाँति प्रवाहित रहता है, जो अनुभव करने का अवसर पाता है। वह अभिनय की गहराई से अभिभूत हो जाता है। 'आक्रोश' तथा 'अर्द्धसत्य' के निर्देशक गोविन्द निहलानी के अनुसार- 'वह जन्मजात अभिनेत्री थी। खुशदिल लड़की थी और नेक इंसान थी।' सच तो यह है कि स्मिता पाटिल की उपलब्धियों का विवरण ही भारतीय समानान्तर सिनेमा का इतिहास है। भारतीय नारी की छवि को नया अन्दाज देने वालों में स्मिता तथा शबाना का नाम प्रमुख है। इन दोनों ने ही फिल्मों में भारतीय नारी की छवि को नया रूप दिया है। यदि कल्पना करें कि श्याम बेनेगल नहीं बल्कि मनमोहन देसाई या प्रकाश मेहरा स्मिता को फिल्मों में पहला अवसर देते तब क्या होता। यदि ऐसा होता तब शायद स्मिता उनकी कसौटी पर खरी नहीं उतरती क्योंकि वे कमसिन, खूबसूरत, गदराए बदन वाली नायिकाओं को ही चाहते ताकि सिनेमा हॉल में दर्शक गुदगुदी महसूस करते रहे। स्मिता पारम्परिक कसौटी पर कभी सुन्दर नहीं रही। यह कमी उनके लिए वरदान बन गई। उसे अपनी आंतरिक प्रतिमा दिखाने का मौका मिला, जो तन के आकर्षण से कहीं ज्यादा खूबसूरत थी। स्मिता की आँखों की भाषा, भावनाओं को हावभाव से प्रदर्शित कर सकने की क्षमता अद्वितीय थी। सच तो यह है कि नायिकाएँ आती-जाती रहेंगी मगर स्मिता का प्रभाव अमर रहेगा।
स्मिता पाटिल कला फिल्मों में ही सफल रही हो ऐसा नहीं है, अपने कैरियर के उतरार्द्ध में उसने व्यावसायिक फिल्मों में काफी काम किया और लोकप्रियता पाई। 'शक्ति'/'वारिस'/'अमृत'/आदि फिल्मों के माध्यम से वह व्यावसायिक सिनेमा में स्थापित हो गई। यहाँ भी उसे श्रेष्ठ अभिनेत्री के रूप में स्वीकारा एवं सराहा गया। मेरी दृष्टि में स्मिता उन सम्मानों तथा पुरस्कारों से ऊँची थी जो उसे मिले। उसने तो लोगों के हृदय को आन्दोलित कर पाने का सामर्थ्य पाया था। उसे तीन बार में राष्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित किया गया तथा मद्मश्री की उपाधि दी गई। राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अन्तरराष्ट्रीय फिल्म दर्शकों एवं समीक्षकों ने भी इसकी प्रतिभा को मुक्त कंठ से स्वीकारा। जब उसकी चुनिन्दा फिल्में फ्रांस में दिखाई गईं तब हॉल खचाखच भरे रहते थे। अपनी पंशंसा से अभिभूत होकर- स्मिता ने यहाँ कहा था- 'मैं यह सम्मान पाकर गौरवान्वित महसूस कर रही हूँ। यह मेरी निजी उपलब्धि का सम्मान नहीं है बल्कि उन भारतीय परम्पराओं तथा विशिष्टताओं का सम्मान है जिनकी रचना भारत में हुई।' राजबब्बर तथा स्मिता दाम्पत्य सूत्र में बंधे। यह जोड़ी 'जवाब', 'अवाम', 'आज की आवाज' तथा 'दहलीज' में परदे पर आईं। स्मिता ने पहले से ही विवाहित राजबब्बर से व्याह क्यों रचाया। मई 85 में सम्पन्न हुए इस बहुचर्चित विवाह के बारे में स्मिता ने कहा था "दुनिया में ऐसी बहुत सी चीज़ें होती है, जिन्हें समझना कठिन होता है। जिनकी व्याख्या नहीं की जा सकती। वे घटनाएँ तो बस अनायास घट जाती है। वैसे मुझे परवाह नहीं है कि लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं।"
स्मिता ने दुनिया की परवाह नहीं की मगर किस्मत के सामने वह विवश थी। यह एक विचित्र संयोग ही कहा जाएगा कि स्मिता के जीवन में हूबहू वही घटा जो - उसकी एक फिल्म का घटनाक्रम था। 'पेट प्यार और पाप' नामक फिल्म में उसने एक झोपड़पट्टी में रहने वाली ऐसी युवती की भूमिका की थी जो एक ड्राइवर (राजबब्बर) की दूसरी पत्नी बन जाती है। फिल्म के अंत में वह एक नवजात शिशु को छोड़कर मर जाती है। लगभग ऐसा ही स्मिता के असली जीवन में घटा।
The article was published in Bhartiya Film Varshiki, 1993.
The film posters used are from Cinemaazi archive and was not part of the original article
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