दुनियां का कौनसा देश है जो ’दिल्ली दरबार’ के बारे में न जानता हो। आज का दिल्ली जितनी सुनहरी और शानदार है उतनी ही हसीन कल थी।
दिल्ली के साथ दरबार लग जाने से तो हमें हमें वही समय याद आता है जब दरबारे आम और दरबारे ख़ास में मुग़ल सम्राट किस शानोश़ौकत से इन्साफ़ किया करते थे-जिनकी याद की झांकी आज भी उनके युग की बनी इमारतों को देखकर आंखो के समाने झिलमिल झिलमिल कर उठती है। उस युग के दिन-दिन थे। कौन भूल सकता है बाबर, हुमायूं, अकबर, जहांगीर और शाहजहां को- जिनके युग में हज़ारों, लाखों दरबार लगे जो मिसाल के तौर पे आज अपने भारतवर्ष में ऐतिहासिक दरबार बनकर अपनी जगह चट्टान की तरह अटल खड़े हैं। खूब थे वह शहंशाह और और खूब थे उनके दरबार। अब सवाल इस बात का है कि हमारी कहानी किस काल से शुरू है?
हमारी कहानी उस समय की है जब- शहंशाह शाहजहां के दिल्ली दरबार का दुनिया में बोलबाला था।
एकदिन शहंशाह शाहजहां इन्साफ करते करते अपने दरबारियों से पतिब्रता नारी के जीवन की चर्चा करने लगे। “धन्य है यह देश जहां की औरतें हमेशा प्रतिब्रता रहीं हैं।” जान की अमान मांगकर सिपहसालार मुहब्बतखान ने कहाः- “आलीजाह अब वह ज़माना जा चुका है, आज की औरतें पतिब्रता नहीं हैं।” इस पर बूंदी नरेश दिल्ली दरबार के मुख्य सेनापति अमरसिंह ने फ़ौरन उठकर कहाः- “भूलते हो मुहब्बतख़ान, भारतदेशकी स्त्री जाति ने अपने देश का मस्तक अपने पतिब्रत धर्म की सेवा से सदा ऊंचा रखा है। इस देश की प्रत्येक नारी अपने पति को ईश्वर मानती आई है। पर मुहब्बतख़ान ने ये मानने से इनकार कर दिया। बहस ने झगड़े का रूप धारण कर लिया। मुहब्बतख़ान ने अमरसिंह से कहा कि आज के समय में एक भी औरत का पतिब्रता होना मुमकिन नहीं इस पर अमरसिंह ने भरे दरबार में गर्व के साथ कहा कि, “मेरी पत्नी पतिब्रता है।” “मैं नहीं मानता ये सब बकवास है” मुहब्बतख़ान ने खंडन किया। उधर अमरसिंह की तलवार म्यान से बाहर निकल गई। शहंशाह ने फैसला दिया, अगर मुहब्बतख़ान ये साबित न कर सका कि अमरसिंह की औरत पतिब्रता नहीं है तो उसे फांसी दी जायगी, और अगर साबित कर दिया तो अमरसिंह को फांसी होगी। दोनों ने फैसला स्वीकार किया। मुहब्बतख़ान को दो माह का समय मिल गया- और अमरसिंह को शाही फ़रमान के अनुसार दिल्ली में ही रहने का आदेश हुआ।
बूंदी पहंुचकर मुहब्बतख़ान ने अपनी जिंदगी में पहली मत्र्तबा ये महसूस किया कि झूंठं बोलना तो आसान होता है पर उसे निभाने में कभी कभी मौत का भी सामना करना पड़ जाता है। उसने झूठ को सच साबित कर देने में कोई भी कसर न उठा रखी। पहले वह बूंदीमहल का मेहमान बना, पर दाल न गली। फिर बहरूपिया बना और कई स्वांग रचकर महल में घुसने की कोशिशें फिर भी हाथ ख़ाली के ख़ाली रहे। पतिब्रता किरणमयी का दर्शन तो क्या उसकी झलक तक मपा सका।
एकदिन मुहब्बतख़ान ने एक महफिल में गुनिका सुन्दरी का नाच देखा। जिसकी एक ही नज़र में वह सदा के लिए उसका हो गया। अब कामयाबी उसके सामने थी।
त्रियाचरित्र के आगे देबता भी हार मान चुके हैं फिर मनुष्य की क्या शक्ति है। सुन्दरी ने कुछ ही दिनों में अपने निजी स्वार्थ के लिए भारत की उच्च सती नारी, महाराज अमरसिंह की पतिब्रता स्त्री किरनमयी के सुहाग की डोर, त्रियाचरित्र की नीतिअनुसार, मुहब्बतख़ान के हवाले कर दी।
काम निकल जाने पर मुहब्बतख़ान ने सुन्दरी को दुनियां से ही गोल करने की तरक़ीब सोच निकाली। पर सुन्दरी किसी प्रकार बचकर भाग निकली। जिसका मुहब्बतख़ान को पता भी न चला।
इधर मुहब्बतख़ान ने समय पर पहुंचकर दिल्ली दरबार में ये साबित कर दिया कि अमरसिंह की औरत पतिब्रता नहीं है। और उधर सुन्दरी ने बूंदी पहुंचकर किरणमयी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और सब कुछ कह सुनाया। पर सब व्यर्थ हुआ। समयचक्र ने सुन्दरी को भेजने में थोड़ी देर की। अभी अभी तो अमरसिंह अपना झुका सर लिये अंतिमबार अपनी मातृभूमि बूंदी की रज अपने मस्तक पर धारण कर और पत्नी किरनमयी के माथे का सुहाग सिन्दूर क्रोध और ग्लानि के आवेश में पोंछकर कब के दिल्ली की ओर जा चुके थे। अभाग्यवश रास्ते में अमरसिंह को तूफान ने घेर लिया और अमरसिंह के समय पर दिल्ली न पहुंचने पर शहंशाह ने उसके ज़ामिन शोरख़ान को क़ानून की गिरफ्त में ले लिया।
किरनमयी ने अपने सुहाग सिन्दूर की रक्षा स्वयं किस प्रकार की? भरे दिल्ली दरबार में सब के सामने बिना पति की आज्ञा के उसने अपने पांव में घुंघरू क्यों बांधे? तूफान में घिरे अमरसिंह का क्या हुआ? शहंशाहके इन्साफ की लाठी ने किसपर वार किया ये आप उन्हींके “दिल्ली दरबार” में देखिये।
[from the official press booklet]