Ashok Kumar and Renuka Devi in Naya Sansar. Image Courtesy: Filmindia 1941
7 जून 1914 को पैदा हुआ. मरने की तारीख अभी मालूम नहीं. तो फिर 59 बरस की जिंदगी में क्या किया? सच बताऊं? झक मारी. 50,000 घंटे दोस्तों के साथ गप्प की. 50,000 चाय की प्यालियां पी. 1,00,000 सफेद कागज के वर्क के वर्क स्याह किये. 15,000 घंटे सिनेमा के अंधेरे में काटे. सवा सौ फाउंटेन खरीदे और खोए. 7 टाइपराइटरों को पीट-पीटकर खटारा कर दिय. पानीपत, अलीगढ़, दिल्ली, मुंबई, हांगकांग, शांगहाई, टोकियो, पीकिंग, लंदन, पेरिस, न्यूयॉर्क और मास्को की सड़के नापी.
ये पंक्तियां ख्वाजा अहमद अब्बास की हैं. अगर आप यूट्यूब पर खोजें तो उनकी आवाज में इसे सुन सकते हैं. आज की पीढ़ी ख्वाजा अहमद अब्बास को अमिताभ बच्चन के हवाले से जानती है. अब्बास ने उन्हें ‘सात हिंदुस्तानी’ में अभिनय का पहला मौका दिया था’ वह पूरा किस्सा अलग है. हम यहां ख्वाजा अहमद अब्बास के फिल्मी जुड़ाव और उनकी पहली स्क्रिप्ट ‘नया संसार’ की बातें करेंगे.
‘नया संसार’ 1941 में आई थी. बॉम्बे टॉकीज की इस फिल्म के निर्माता शशधर मुखर्जी थे. हिमांशु राय के निधन के बाद बॉम्बे टॉकीज को सक्रिय रूप से जारी रखने की जिम्मेदारी उन्हें ही मिली थी. नए-नए विषयों पर फिल्में बनाने और नई प्रतिभाओं को मौका देना उनका शौक और शगल था. ‘नया संसार’ लिखने के पहले से अब्बास का संपर्क बॉम्बे टॉकीज से था. वे वहां की पब्लिसिटी डिपार्टमेंट में काम कर चुके थे. बॉम्बे टॉकीज छोड़ने के बाद भी उनका संबंध वहां के कलाकारों, निर्देशकों और नए कर्ताधर्ता शशधर मुखर्जी से बना हुआ था. एक बार शशधर मुखर्जी को उन्होंने ‘नया संसार’ का बेसिक आईडिया सुनाया तो उन्होंने स्क्रिप्ट लिखने की सलाह दी थी.
‘नया संसार’ लिखने के पहले से अब्बास का संपर्क बॉम्बे टॉकीज से था. वे वहां की पब्लिसिटी डिपार्टमेंट में काम कर चुके थे. बॉम्बे टॉकीज छोड़ने के बाद भी उनका संबंध वहां के कलाकारों, निर्देशकों और नए कर्ताधर्ता शशधर मुखर्जी से बना हुआ था. एक बार शशधर मुखर्जी को उन्होंने ‘नया संसार’ का बेसिक आईडिया सुनाया तो उन्होंने स्क्रिप्ट लिखने की सलाह दी थी.
अबास अलीगढ से ‘मुंबई आकर ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में फिल्म रिव्यू लिख रहे थे. उनके ईमानदार लेखन पर गौर किया जाता था. फिल्म अच्छी न हो तो वे आलोचना करने से नहीं चूकते थे. कई निर्माता उनसे नाराज़ और नाखुश रहते थे. दरअसल. ‘बॉम्बे क्रॉनिकल में ख्वाजा अब्बास के फिल्म रिव्यू का असर उनकी फिल्मों के बिज़नस पर पड़ता था. दर्शक फिल्म देखने नहीं जाते थे. निर्माताओं ने अखबार के मालिक तक यह संदेश भिजवाया कि अगर ख्वाजा अहमद अब्बास फिल्म रिव्यू लिखते रहे तो वे ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में फिल्मों के विज्ञापन देना बंद कर देंगे. फिल्मों से हर महीने ₹15000 का विज्ञापन आ जाते थे. अखबार के मालिक ने संपादक से कहा कि अब्बास से रिव्यू ना लिखवाएं. उनकी जगह किसी नए रिपोर्टर को रख लें. अखबार में ही दूसरी जिम्मेदारी देने के तहत उन्हें ‘बॉम्बे क्रॉनिकल वीकली’ का कार्यभार दे दिया गया. अब्बास के पास अब काफी वक्त रहने लगा था. स्क्रिप्ट लिखने की दबी इच्छा ने आकार लेना शुरू किया. उन्हें फिल्म बिरादरी के ताने याद थे कि ‘दूसरों की कहानियों की आलोचना करना आसान है. आप कुछ लिखकर दिखाओ तो मानें.’ तब वह मन ही मन में प्रण करते थे कि ‘मैं उन्हें एक दिन दिखा दूंगा’.
स्क्रिप्ट लिखने की दबी इच्छा ने आकार लेना शुरू किया. उन्हें फिल्म बिरादरी के ताने याद थे कि ‘दूसरों की कहानियों की आलोचना करना आसान है. आप कुछ लिखकर दिखाओ तो मानें.’ तब वह मन ही मन में प्रण करते थे कि ‘मैं उन्हें एक दिन दिखा दूंगा’.
‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में रिव्यू छपना बंद हो गया तो निर्माताओं को कहानी सुनाने की अड़चन खत्म हो गई थी. उन्होंने अपनी जिंदगी के अनुभवों को ही विषय बनाया और खुद को प्रमुख किरदार. ‘नया संसार’ एक युवा रिपोर्टर की कहानी थी, जिसे अपने संपादक के सिखाए आदर्श और अखबार चलाने के लिए संपादक के किए जा रहे नए समझौतों में से एक को चुनना था. मुख्य कहानी में चलन के मुताबिक रोमांस भी जोड़ दिया गया था. वह संपादक की पसंद की रिपोर्टर आशा से प्रेम करने लगता है. उधर संपादक स्वयं उससे शादी करने का मंसूबा रखता है. फिल्म इसी संघर्ष की कहानी थी, जिसके क्लाइमेक्स में युवा रिपोर्टर खुद का चारपेजी अखबार निकालता है.
बॉम्बे क्रॉनिकल’ में रिव्यू छपना बंद हो गया तो निर्माताओं को कहानी सुनाने की अड़चन खत्म हो गई थी. उन्होंने अपनी जिंदगी के अनुभवों को ही विषय बनाया और खुद को प्रमुख किरदार. ‘नया संसार’ एक युवा रिपोर्टर की कहानी थी, जिसे अपने संपादक के सिखाए आदर्श और अखबार चलाने के लिए संपादक के किए जा रहे नए समझौतों में से एक को चुनना था.
शशधर मुखर्जी को यह आईडिया इसलिए पसंद आया कि तब तक किसी फिल्म का हीरो रिपोर्टर नहीं आया था. उन्हें अशोक कुमार के लिए भी यह विषय उपयुक्त लगा. स्क्रिप्ट लिखने के एडवांस के रूप में उन्होंने ₹200 दिए जबकि ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में अब्बास की सैलरी ₹125 के करीब थी. अब्बास ने एक हफ्ते की छुट्टी ली और स्क्रिप्ट लिख डाली.
अपनी आत्मकथा ‘आई एम नॉट एन आईलैंड’ में उन्होंने ‘नया संसार’ के लेखन और शिल्प का उल्लेख किया है. पटकथा लिखने के लिए उन्होंने सबसे पहले कैरेक्टर स्केच तैयार किए. रिपोर्टर पूरण चेन स्मोकर है. उसके कमरे में सामान बिखरे रहते हैं. कोई सफाई नहीं रहती. अपने कमरे में अलबत्ता उसने जवाहरलाल नेहरू, टैगोर और प्रेमचंद की तस्वीरें लगा रखी हैं. फिल्म की नायिका आशा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से बीए की डिग्री लेकर आती है. रिपोर्टर पूरण पैंट, शर्ट और ढीली टाई पहनता है. सिर पर मुड़ी-तुड़ी टोपी रहती है. संपादक शेरवानी, चूड़ीदार और गांधी टोपी पहनता है. एक हफ्ते में स्क्रिप्ट पूरी हो गई तो सुनाने और जमा करने के बाद ₹550 और मिले. अब्बास खुश थे कि एक हफ्ते की मेहनत में लिखी स्क्रिप्ट के लिए ₹750 कम नहीं है. हालांकि बाद में उसी रकम में उन्हें स्क्रिप्ट में सुधार से लेकर संवाद लिखने तक में मदद करनी पड़ी.
अब्बास इस बात से भी खुश थे कि उन्हें अशोक कुमार और खुर्शीद मिर्जा के साथ काम करने का मौका मिल रहा है. ‘नया संसार’ खुर्शीद मिर्जा(स्क्रीननाम रेणुका देवी) की बतौर नायिका पहली फिल्म थी. इसके पहले वह हिमांशु राय की एक फिल्म में कैमरे के सामने झलक दिखा चुकी थीं.
अब्बास इस बात से भी खुश थे कि उन्हें अशोक कुमार और खुर्शीद मिर्जा के साथ काम करने का मौका मिल रहा है. ‘नया संसार’ खुर्शीद मिर्जा(स्क्रीननाम रेणुका देवी) की बतौर नायिका पहली फिल्म थी. इसके पहले वह हिमांशु राय की एक फिल्म में कैमरे के सामने झलक दिखा चुकी थीं. खुर्शीद मिर्जा अलीगढ़ के मुस्लिम सुधारक और शिक्षा के पैरोकार शेख अब्दुल्ला(पापा मियां) की बेटी थीं. उनकी बड़ी बहन रशीद जहां उर्दू की प्रोग्रेसिव राइटर थीं. खुर्शीद मिर्जा से ख्वाजा अहमद अब्बास की अलीगढ़ के दिनों की पुरानी मुलाकात थी. उन्होंने ‘नेशनल कॉल’ नामक अखबार में उनकी तस्वीर छापी थी. और फिर हिमांशु राय के निमंत्रण पर खुर्शीद मिर्जा जब पहली बार बॉम्बे टॉकीज में आई थीं तो उनके स्वागत और आवभगत का जिम्मा अब्बास को ही सौंपा गया था. खुर्शीद मिर्जा ने अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया है कि अलीगढ़ की उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखते हुए अब्बास फिल्मों में काम करने के उनके फैसले से अधिक खुश नहीं हुए थे. अशोक कुमार से उनकी पुरानी दोस्ती थी.
नया संसार’ में एक और प्रमुख किरदार शर्मा था,जो अखबार का मैनेजर था. इस भूमिका के लिए डेविड अब्राहम का चुनाव किया गया था. वह बाद में अब्बास के गहरे दोस्त बन गए और उनकी फिल्मों में आते रहे. जब डेविड ने अपने किरदार के बारे में पूछा तो अब्बास उन्हें बॉम्बे टॉकीज के जनरल मैनेजर रायबहादुर चुन्नीलाल के केबिन के पास ले गए. पारदर्शी शीशे के केबिन में बैठे रायबहादुर चुन्नीलाल को दिखाते हुए कहा, ‘इन्हें गौर से देख लो. मैं चाहता हूं कि तुम ऐसे ही दिखो.’
अशोक कुमार और खुर्शीद मिर्जा के अलावा संपादक की भूमिका के लिए मुबारक मर्चेंट को चुना गया था. ख्वाजा हम बदमाश ने बॉम्बे क्रॉनिकल’ के संपादक बरेलवी को ध्यान में रखकर ही वह किरदार लिखा था. बरेलवी के स्वभाव और बात-विचार से फिल्म के संपादक का कोई मेल नहीं था. केवल वेशभूषा और चाल-ढाल बरेलवी साहब से ले ली गई थी. शूटिंग से पहले अब्बास मुश्ताक को लेकर बरेलवी से मिलवाने भी ले गए थे. यह दिखाना था कि संपादक कैसे होते हैं और उनका ऑफिस कैसा दिखता है? ‘नया संसार’ में एक और प्रमुख किरदार शर्मा था,जो अखबार का मैनेजर था. इस भूमिका के लिए डेविड अब्राहम का चुनाव किया गया था. वह बाद में अब्बास के गहरे दोस्त बन गए और उनकी फिल्मों में आते रहे. जब डेविड ने अपने किरदार के बारे में पूछा तो अब्बास उन्हें बॉम्बे टॉकीज के जनरल मैनेजर रायबहादुर चुन्नीलाल के केबिन के पास ले गए. पारदर्शी शीशे के केबिन में बैठे रायबहादुर चुन्नीलाल को दिखाते हुए कहा, ‘इन्हें गौर से देख लो. मैं चाहता हूं कि तुम ऐसे ही दिखो.’ रायबहादुर चुन्नीलाल जोर देते थे कि सभी उन्हें रायबहादुर नाम से ही पुकारें. उनकी तरह ही फिल्म में शर्मा भी चाहता है कि सभी उसे मिस्टर शर्मा नाम से ही पुकारें.
अपनी कहानी को फिल्म में तब्दील होते देख उन्हें बेहद खुशी होती थी. आखिरकार फिल्म रिलीज हुई. ख्वाजा अहमद अब्बास रिलीज के दिन और उसके बाद के दिनों में लगभग सौ परिचितों और मित्रों को फिल्म दिखाने ले गए. उनके टिकट अब्बास ने खुद खरीदे. उन्होंने अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है कि स्क्रिप्ट के लिए मिले ₹750 से कहीं ज्यादा खर्च उन्हें टिकट खरीदने, शूटिंग पर आने-जाने और स्क्रिप्ट की अलग-अलग ड्राफ्ट तैयार करने के मद में करने पड़े थे.
‘नया संसार’ की शूटिंग तीन महीनों तक चली. अब्बास ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ के ऑफिस से छूटने पर बॉम्बे टॉकीज जाते थे. अपनी कहानी को फिल्म में तब्दील होते देख उन्हें बेहद खुशी होती थी. आखिरकार फिल्म रिलीज हुई. ख्वाजा अहमद अब्बास रिलीज के दिन और उसके बाद के दिनों में लगभग सौ परिचितों और मित्रों को फिल्म दिखाने ले गए. उनके टिकट अब्बास ने खुद खरीदे. उन्होंने अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है कि स्क्रिप्ट के लिए मिले ₹750 से कहीं ज्यादा खर्च उन्हें टिकट खरीदने, शूटिंग पर आने-जाने और स्क्रिप्ट की अलग-अलग ड्राफ्ट तैयार करने के मद में करने पड़े थे.
‘नया संसार’ की कामयाबी के बाद ख्वाजा अहमद अब्बास ने फटाफट तीन फिल्में साइन कीं. कामयाबी को दोहराने के चक्कर में उन फिल्मों के निर्माताओं ने फिल्म के टाइटल में ‘नया’ और ‘नई’ शब्द जोड़े. इसके बावजूद उन फिल्मों ने कुछ खास प्रदर्शन नहीं किया. ख्वाजा अहमद अब्बास समझ गए थे कि सिर्फ स्क्रिप्ट से ही फिल्म नहीं बनती. बेहतर फिल्म के और भी पहलू हैं.
फिर भी ख्वाजा अंबाद अब्बास खुश थे, क्योंकि उनकी लिखी पहली फिल्म सफल रही और सिल्वर जुबली भी हुई. ‘नया संसार’ से मिली तीन खुशियों का उल्लेख अब्बास ने किया है. पहला, उन्हें अपने पिता की सराहना मिली. दूसरा, बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने उन्हें 1941 की सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार दिया और तीसरा, प्रचारक और लेखक इंदरराज आनंद मिले,जिनसे गहरी दोस्ती हो गयी.
‘नया संसार’ की कामयाबी के बाद ख्वाजा अहमद अब्बास ने फटाफट तीन फिल्में साइन कीं. कामयाबी को दोहराने के चक्कर में उन फिल्मों के निर्माताओं ने फिल्म के टाइटल में ‘नया’ और ‘नई’ शब्द जोड़े. इसके बावजूद उन फिल्मों ने कुछ खास प्रदर्शन नहीं किया. ख्वाजा अहमद अब्बास समझ गए थे कि सिर्फ स्क्रिप्ट से ही फिल्म नहीं बनती. बेहतर फिल्म के और भी पहलू हैं.
‘नया संसार’ की कामयाबी के बाद ख्वाजा अहमद अब्बास ने फटाफट तीन फिल्में साइन कीं. कामयाबी को दोहराने के चक्कर में उन फिल्मों के निर्माताओं ने फिल्म के टाइटल में ‘नया’ और ‘नई’ शब्द जोड़े. इसके बावजूद उन फिल्मों ने कुछ खास प्रदर्शन नहीं किया. ख्वाजा अहमद अब्बास समझ गए थे कि सिर्फ स्क्रिप्ट से ही फिल्म नहीं बनती. बेहतर फिल्म के और भी पहलू हैं.
फिल्म समीक्षक,रिसर्चर और यूट्यूबर अजय ब्रह्मात्मज पॉपुलर फिल्मों से परहेज नहीं करते. अजय की कोशिश है कि पॉपुलर फिल्मों को समझा जाए और उन्हें गहन एवं गंभीर विषय का दर्जा दिया जाए.उनकी दो पुस्तकें 'सिनेमा समकालीन सिनेमा' और 'सिनेमा की सोच' वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी हैं. 'ऐसे बनी लगान',(सत्यजीत भटकल),'जागी रातों के किस्से'(महेश भट्ट) और 'जीतने की ज़िद'(महेश भट्ट) उनकी अनूदित पुस्तकें। नॉट नल से पतली पुस्तक सीरीज में फिल्मों,फिल्मकारों और कलाकारों पर 10 ईबुक प्रकाशित।
फिलहाल स्तम्भ लेखन और समीक्षा में सक्रिय।