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यहां नेटवर्किंग से काम मिलता है आपको, सिर्फ अपने टेलेन्ट से नहीं-इरफान

14 Aug, 2020 | Interviews by Ajay Brahmatmaj
Image Courtesy: nbcnews

इरफान खान से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत

अजय: आपके चर्चा में होने की जो ट्रायोलॉजी बन गई है...

इरफान: ट्रायोलॉजी...?

अजय: हां, मतलब लोग फिल्मों की ट्रायोलॉजी करते हैं आपके चर्चा में होने की है, तो इसके जो 'हासिल' हैं उसके बारे में...

इरफान: जी मेरे लिए भी ये ट्रायोलॉजी है, उम्मीद करता हूं कि ऐसे कुछ प्रोजेक्ट मिलते रहेंगे आगे भी-क्योंकि इस तरह के प्रोजेक्ट लिखे नहीं जाते, 'हासिल' जैसा रोल तो मुझे लगता है रेयरली लिखा जाता है। इत्तेफाक से एक के बाद एक मुझे मिल गया, मेरी इसमें कोशिश इतनी ही है कि इतने सालों का मेरा जो इंतजार था शायद वह जस्टीफाई हुआ... और मेरा मानना है कि अगर आपकी कोई इंटेंस डिजायर है और आप उस तरफ काम कर रहे हैं तो एक प्वाइंट के बाद चीजें अपने आप शायद ठीक होने लगती हैं...

अजय: लेकिन क्या ऐसा लगता है कि दस साल पहले जा फिल्मों में आपका चुनाव हुआ था, वो भी बड़ी फिल्में थीं 'एक डाक्टर की मौत' या... गोविंद जी के साथ और जो आपकी दो-एक फिल्में थीं...

इरफान: असल में वो जो मूवमेंट था पूरा आर्ट सिनेमा का मूवमेंट। जब वो थोड़ा डिक्लाइन की तरफ था, लास्ट स्टेज थी उसकी, उसमें मेरी इंट्री हुई। लोगों ने कहा कि वो जो ब्रेक था वो खराब ब्रेक था मेरे लिए, लेकिन मैं नहीं मानता, क्योंकि मेरे पास कोई च्वाइस थी नहीं और एक्टिंग शैली को लेकर मेरी अपनी जद्दोजहद चल रही थी, मेरा थिएटर से वो ट्रांजिशन पीरियड था और कैमरे को समझने में टाइम लगता है पर मुझे इस बात का अफसोस नहीं है क्योंकि उस समय अगर मैं कुछ बड़ी फिल्में करता और अधकचरेपने से करता तो आज मुझे उसे देखकर जरा ज्यादा अफसोस होता। हो सकता है उस समय मेरा कुछ स्लॉट डिसाइड हो जाता और मैं उसमें घुस जाता। अभी इतना समय इंडस्ट्री में रहने के बाद जो इतना लेट ब्रेक मिला तो उस लेट होने में मेरी समझ कुछ बढ़ गई कि कैसे जाना है। 'वारियर' में ऐसी बहुत सारी चीजें क्लीयर हुईं। 'वारियर' के पहले जो मेरा ट्रैक चल रहा था लाइफ का, 'वारियर' के बाद एकदम से चेंज हो गया। समझ को लेकर कि क्या करना है, क्‍या नहीं करना है, कैसी फिल्में करनी हैं?

अजय: ऐसा नहीं लगता कि बीच के जो 8-10 साल गए, जिनको सीरियल में आपने डिवोट किया, भले मजबूरी में आपने किया हो, उसमें बहुत कुछ मिस कर दिया आपने?

इरफान: मुझे नहीं लगता। अगर उस इंतजार का कोई रिजल्ट नहीं मिलता तो मुझे लगता कि मैंने मिस किया। लेकिन उस दौर ने मुझे बहुत प्रैक्टिस दी। मतलब अपनी टेकनीक तय करने में, कैसे मुझे अपना रोल करना चाहिए इसके लिए, क्राफ्ट पर काम करने के लिए मुझे मौका मिल गया।

अजय: आपको एक्टर बनना है और मुंबई में जाकर, यह क्या आपने पहले से सोचा था?

इरफान: यह मेरे दिमाग में क्लियर था। जब मैं एन.एस.डी. आया था तो फिल्में करने के लिए आया था। फिल्में देखकर मेरे भीतर एक्टिंग करने की इच्छा पौदा हुई और थिएटर से मैं बिल्कुल एक्सपोज नहीं था। थिएटर मैंने इस लिए शुरू किया कि मुझे एनएसडी जाना था। बचपन में फिल्में देखने की इजाजत नहीं थी, लेकिन जब भी देखता था फिल्में, जैसे जादू हो जाता था। याद आती रहती थी वह कहानी, वे कैरेक्टर, तो वो जो जादू था सिनेमा का, उसी ने मुझे यहां खींचा था।

अजय: यानी एनएसडी सिर्फ एक जरिया बना। कहानी और कैरेक्टर के अलावा और क्या था जो आपको हॉण्ट करता था?

इरफान: ग्लैमर वाला पार्ट था और आपके भीतर जो काम्प्लेक्स होते हैं उनसे लड़ने का जरिया, और फिर आपको इज्जत चाहिए, पैसा चाहिए। शुरू में वो भी मोटिवेशन था एक। एनएसडी में आने के बाद अपने को देखने का तरीका थोड़ा बदला क्योंकि वहां पहली बार पता चला कि आप जो भी बने हुए हैं, बहुत सारी चीजों से मिलकर बने हैं। अपने को डिटैच होकर देखने की एक आदत एनएसडी में पड़ी। तो वहां से सिर्फ पैसा या ग्लैमर वह बात कट हो गई। आप कितना कुछ लेते हैं, एक्टिंग करते हुए, अपनी पर्सनैलिटी के लिए, यह थोड़ा इम्पोर्टेंट होने लगा। रोल आप करते हैं, एक दूसरे आदमी को समझते हैं, उसके सिचुएशंस डील करते हैं तो वो जो आपकी शख्सियत पर एक एडीशन होता है वह मेरे लिए महत्वपूर्ण हो गया।

अजय: सामान्यत: मिडिल क्लास में जब भी यह बात आती है कि मुझे एक्टर बनना है या डिप्लोमेट बनना है या राजनीति में जाना है, यानी कोई भी महत्वाकांक्षा सामने आती है तो माता-पिता कहते हैं कि बेटा, उतना ही पांव फैलाओ जितनी बड़ी चादर हो, यानी डिस्करेज वाली बात... आपके साथ भी कुछ ऐसा हुआ था?

इरफान: हां, मेरे साथ ऐसा रहा। मेरे पिता की तो मृत्यु हो गई थी, मां नहीं चाहती थी कि मैं जाऊं, और दसवीं से ही मैं कुछ करना चाहता था। पढ़ने-वढ़ने में मेरा मन लगता था नहीं, हालांकि मैं पढ़ता रहता था, सिर्फ इसलिए कि मां को अच्छा लगता था, सुनने में कि बेटा ग्रेजुएट है। कई चीजों के बारे में मुझे लगा कि मैं ये कर नहीं सकता। मैं खेलता था और मुझे एक्टिंग का शौक था। ये लगा कि मैं वही कर सकता हूं जिसमें मेरा दिल लगे। सिर्फ पैसे के लिए काम करना मेरे लिए पॉसिबल नहीं था। वैसे मैंने काफी टाइम इन्वेस्ट किया, मुंबई आया, ट्रेनिंग की टेकनिक, और फिर प्रैक्टिकली जब उसे करने लगा तो इट बिकम इम्पॉसिबल। मां को तो शुरू से ही एक्टिंग इज्जत वाला काम नहीं लगता था।

अजय: उनको शायद यह लगता हो कि इस क्षेत्र में बहुत सारे लोग जाते हैं, कुछ अचीव नहीं कर पाते...

इरफान: नहीं, यह नहीं था। उनको यह काम ही खराब लगता था, यह नाच-गाना। मैंने काफी कुछ समझाया मां को कि तुम बेफिक्र रहो। यह मेरे मन में था कि कुछ ऐसा करो दुनिया में कि बेहतर हो। इसके लिए मैं कॉन्शस था।

अजय: कौन लोग थे जो इसमें मददगार हुए आपके?

इरफान: थिएटर से सही तरीके से इन्ट्रोडूस कराने वाले रवि चतुर्वेदी थी। राजस्थान के। और फिर मोहन महर्षि ने एक बहुत बड़ा रोल प्ले किया मेरे साथ। और फिर पहले प्रयास में मुझे एनएसडी जाने का मौका मिल गया, नहीं मिलता तो आज लगता है मैं पागल हो जाता, वह बेचैनी का स्टेज था, जवान थे आप, करना चाहते थे कुछ, जयपुर से मन हट चुका था। दोस्तों का सर्कल बोरिंग हो गया था, वही लड़कियां देखना, सड़कों पर खड़े होना, कॉलेज जाना... तो मेरे लिए जरूरी हो गया था। ऐसा नहीं कि मोहन ने मेरे लिए अलग से कोई पार्शियलिटी की, लेकिन मुझे लगता है कि कोई और होता तो नहीं होता। प्रसन्ना सेकेंड इयर में प्ले करने आए थे। उनके प्ले में पहली बार मुझे एक्टिंग कैसी होनी चाहिए इसकी एक तरह से समझ आई। अपने पास कैरैक्टर को कैसे ला सकते हैं इसका अहसास हुआ। उस वक्त शुरू करने के लिए यह बहुत जरूरी था कि कैसे और कितना आप कैरेक्टर के क्लोज आ जाते हैं, हालांकि हमेशा यह जरूरी नहीं होता, उससे वेरायटी खतम होने लगती है। उसकी वजह से क्या हुआ कि परफार्म जो किया वह काफी कुछ 'ट्रू' हुआ और मैं वहीं ढूंढ़ रहा था कि करते वक्त मन:स्थिति कुछ एक्सपीरिएंस करे। उस मूवमेंट का जिसे आप प्ले कर रहे हैं उसका एक्सपीरिएंस हो, कहीं-न-कहीं। वह मेरी कोशिश थी और उसके पहले नहीं हो पा रहा था और इसके चलते मैं बहुत फ्रस्ट्रेटेड था। हर तरह की कोशिशें कर रहा था। शुरू में जैसे एक रोल मिला तो मैं खूब सोचता था कि तीन सौ साल पहले आदमी कैसा होगा लेकिन उस वक्त कोई समझ नहीं थी। लेकिन कोशिश का मतलब हर तरह की कोशिश... लाल किले में जाकर बैठा रहता था कि कुछ समझ में आ जाए। वह सब बचकानी चीजें थीं।

अजय: लेकिन यह डिसीजन आपने कब लिया कि एनएसडी करने के बाद रिपर्टरी नहीं ज्वाइन करनी, सीधे मुंबई जाना है?

इरफान: मैंने मुंबई जाने का डिसाइड नहीं किया। थर्ड इयर में मीरा नायर ने अपनी फिल्म 'सलाम बॉम्बे' के लिए बुलाया था, तब वहां जाना हुआ। मैं रिपर्टरी ज्याइन करना चाहता था लेकिन रिपर्टरी की हालत ऐसी थी कि तब वह बेकार हो चुकी थी, सब जा चुके थे, मनोहरजी जा चुके थे, सुलेखा जी जा चुकी थीं और वह क्रिएटिव इंस्टीटूट की तुलना में दफ्तर जौसा ज्यादा लगता था। तब मेरा मन नहीं हुआ ज्वायन करने का। मैं दिल्ली में ही रहा। प्ले किया प्रसन्ना के साथ। फिर उसके बाद मेरा कॉल आया, गोविंद जी की तरफ से। इस बार मुंबई गया तो लगा कि अब वापस दिल्ली जाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि यहां कुछ और एक्टिविटी थी करने को। तो एक के बाद एक यहां काम मिलता रहा।

अजय: कौन-सी फिल्म थी पहली, गोविंद जी के साथ?

इरफान: 'जजीरे' फिर 'दृष्टि'। फिर सीरियल का सिलसिला शुरू हुआ कि तपन सिन्हा की फिल्म आ गई और इस तरह की कुछ आर्ट फिल्में मैंने की। लेकिन उस दौरान एकाध एक्सपीरिएंस मेरे बड़े अच्छे हुए। श्याम जी के साथ मैंने चेखव की स्टोरी की वार्ड न. 6, वह आज भी लोगों को लगती है कि अभी कल देखी हो...

अजय: मुंबई पहुंचने के बाद, गोविंद जी से मौका मिल गया लेकिन जो कमर्शियल सेट अप या कमर्शियल फिल्म मेकर्स हैं उनसे मिलना-जुलना जारी हुआ या कुछ हिचक थी?

इरफान: हिचक थी मुझे, और थोड़ी झिझक-सी होती थी बताने में कि मैं एक्टर हूं, मुझे काम चाहिए। एकाध बार मैंने कोशिश की लेकिन उस कोशिश से पता चल गया कि इस तरह से काम मुझे नहीं मिल सकता। तो मैंने उस तरफ फिर ध्‍यान ही नहीं दिया, टीवी का काम आता रहा, मैं करता रहा। कमर्शियल फिल्म में जाने की अंदर से बहुत इच्छा होती थी लेकिन उसके लिए मैं कुछ कर नहीं सका। आज मुझे लगता है कि अच्छा हुआ जो नहीं हुआ। उस समय मैं घुस जाता तो पता नहीं किस तरह का रोल, किस तरह का स्लॉट मेरे लिए रेडी होता। एक समय तो मैं यह भी सोचता था कि यार जो नूतन के लड़के हैं, मोहनीश बहल, इस तरह का स्लॉट मेरा बन जाए, और उस समय बन जाता तो बहुत मैं खुश होता, लेकिन अब मुझे लगता है कि अच्छा हुआ जो नहीं बना।

अजय: उस समय जो हीरो थे, आमिर खान या सलमान खान, नाच-गाने वाले हीरो, उस तरह के रोल का मन बनाया कभी आपने?

इरफान: नहीं, नाच-गाने वाले हीरो का रोल मिले यह इच्छा कभी नहीं हुई मुझे। अच्छा रोल मिल यह मेरी इच्छा थी।

अजय: क्यों? अपनी सीमाओं को देखते हुए या...

इरफान: कभी डांस ने मुझे उसे तरह से मुतास्सिर नहीं किया। डांस मुझे मुतास्सिर करता है लेकिन जिस तरह से अपनी फिल्मों में होता है उस तरह से नहीं करता। मैं करना चाहता हूं डांस, लेकिन बिल्कुल बेमतलब का तो नहीं...

अजय: नहीं डांस से जुड़ा मेरा सवाल नहीं है। मेरा सवाल है कि मेन स्ट्रीम हीरो के जो किरदार हैं, वैसा करने की इच्छा...

इरफान: वैसी इच्छा तो हमेशा रही है और मुझे नहीं पता था कि कैसे पहुंचूंगा वहां तक। मुझे बस यही लगता था कि बस काम करते रहना चाहिए। और कई बार ऐसा भी लगता था कि वह सब शायद नहीं हो पाएगा। लेकिन ऐसे विचारों को मैं दूर ही रखता था कि क्‍या होगा क्या नहीं होगा। इमिडिएट वरी ये रहती थी कि इसके बाद यह काम है, इसके बाद है कि नहीं है।

अजय: टीवी करते हुए कभी यह नहीं लगा कि यही दुनिया बन जाएगी?

इरफान: ऐसा डर नहीं लगा। एकाध बार कुछ लोगों ने कॉन्शस कराने की कोशिश की कि ओवर एक्सपोजर टीवी का... लेकिन मैंने कई साल काम किया और मुझ पर यह लेवल कभी नहीं लगा कि मैं ओवर एक्सपोज हूं, क्योंकि मैंने बहुत सारा काम एक साथ कभी नहीं किया। एक-एक प्रोजेक्ट ही करता रहा।

अजय: टीवी के जमाने में यह बात चली थी कि आप डाइरेक्ट करना चाहते हैं या प्रोडूस करना चाहते हैं...

इरफान: हां, जब काफी रोल मैंने कर लिए टीवी सीरियल में तो मुझे एक बोरियत-सी होने लगी थी, कैरियर सब्सटीच्यूट के रूप में... अपने को ज्यादा इनवॉल्व करने के लिए, इंगेज करने के लिए मैंने कुछ डाइरेक्ट किया था। फिर कुछ प्रोडूस करने की कोशिश भी की मैंने लेकिन वह बहुत ही खराब अनुभव रहा मेरे लिए। 'वारियर' उन्हीं दिनों मिली मुझे। हमने एक सीरियल प्रोडूस किया था जिसका अप्रूव होना बाकी था। वाइफ चाहती थीं कि कुछ करना चाहिए लेकिन 'वारियर' करने के बाद मैंने कहा कि जिंदगी कुछ नया रास्ता दिखा रही है वी शूड लिव दिस। लेकिन पैसा इतना लगा था इसमें कि उनको यह मान लेने में थोड़ी तकलीफ हुई, लेकिन आज वे भी सोचती हैं कि अच्छा हुआ कि हमलोग नहीं बने प्रोडूसर।

अजय: यह जो दूसरी पारी हुई उसकी शुरूआत हम 'वारियर' से ही मानें या किसी और से?

इरफान:  'वारियर' की वजह से तो नहीं हुआ लेकिन शुरूआत यहीं से हुई। यह मेरी पहली फिल्म थी और जाहिर है कि 'वारियर' की वजह से यहां काम मिला। हां, 'मकबूल' में कुछ मदद जरूर मिली है 'वारियर' की वजह से।

अजय: असल में अपने यहां एक मानसिकता भी है कि जो चीज विदेश से होकर आए वही अच्छी है...

इरफान: लोगों ने एक्सेप्ट जरूर किया। लोगों ने जिस तरह की स्वीकृति दी वह उसके पहले नहीं थी। जब बाहर इतनी तारीफ हुई तो लोगों को एतराज कम हो गया मेरी पर्सनौलिटी से।

अजय: अच्छा इस तरह का ऐतराज सचमुच है क्या? इंडस्ट्री में इस तरह की एक बात कही जाती है कि ज्यादातर अपने बच्चों को बढ़ावा देते हैं या फिर पंजाबियों को...

इरफान: असल में किसी भी नए आदमी के लिए एक रेजिस्टेन्स तो होता ही है इंडस्ट्री में। जो लोग ऑलरेडी सर्किल में होते हैं लोग उन्हीं को यूज करना चाहते हैं, नए का उनकी समझ में नहीं आता कि क्या करेंगे हम... उनको रिस्क लगता है... और क्योंकि इतना सोचने की आदत नहीं है उन्हें, बहुत ज्यादा दिमाग पर जोर डालते नहीं, इसलिए जो जैसा है उसे वैसा का वैसा इस्तेमाल कर लेते हैं वे लोग।

अजय: लेकिन यह सिर्फ प्रोफेशनल रेजिस्टेन्स नहीं है क्योंकि अमिताभ बच्चन के बेटे को नौ फ्लॉप फिल्मों में रिपीट करते उन्हें डर नहीं लगता।

इरफान: हां, यह उनकी अजीब सी मानसिकता है, मुझे पता नहीं। मुझे अब भी ऐसा नीं लगता कि कमर्शियल फिल्म वाले मुझे एकदम से अपना ही लेंगे, उन्हें अब भी टाइम लगेगा यह समझने में कि मैं ज्यादा बेहतर तरीके से स्टोरी को कैरी कर सकता हूं, कि मैं हेल्दी हूं उनकी स्टोरी के लिए, और बहुत सारे लालच मुझमें कम हैं, जो कहानी के लिए मुफीद है।

अजय: मैं जानना चाहता हूं कि कहीं वह रेजिस्टेन्स है क्या, कभी अपमान या दुत्कार या तिरस्कार या इस ढंग की कोई चीज...

इरफान: हां अपमान का एक एहसास... रेजिस्टेन्स तो काफी फेस किया है मैंने लेकिन किसी तरह का तिरस्कार या दुत्कार इस तरह का कुछ नहीं हुआ... शुरू-शुरू में एनएसडी से निकलने के बाद मुझे एकाध एक्सपीरिएंस ऐसे हुए थे कि प्रोडूसर ने आधे ही पैसे दिए, बोला कि खराब एक्टिंग की है तुमने और क्योंकि एक्टिंग को लेकर मैं इतना कॉन्शस था कि कब सही करूंगा, कब सही करूंगा, तारीफ मिलती थी, लेकिन मुझे पता था कि मैं नहीं कर पा रहा हूं, ऊपर से कर रहा हूं, मेरे अंदर नहीं जा रहा है यह, मेरा पूरा शरीर वह नहीं बोल रहा है जो मैं बोल रहा हूं मुंह से, ऐसे दौर में किसी का यह कहना कि तुमने खराब एक्टिंग की है इसलिए पैसा कम दे रहा हूं - मैं बहुत रोया था घर आकर। और इसीलिए मैं झिझकता था लोगों से मिलने में कि कहीं ऐसा न हो कि कुछ और मूड में बात कर लूं। तो आप जो सेल्फ रेस्पेक्ट बिल्डप कर रहे होते हैं, उसे लेकर मैं बहुत कॉन्शस था कि उसको धक्का न लगे; फिर अपने आपको डील करने में मुश्किल होता।

अजय: अच्छा इसकी वजह क्या होगी कि पूरे हिंदी बेल्ट से, यानी हिंदी हार्टलाइन से एक्टर बहुत कम आ पाते हैं? हिंदी फिल्में हालांके होती हैं...

इरफान: यहीं से आते हैं मुझे लगता है... जो लोग स्टार बने हैं वे ज्यादातर इसी बेल्ट से हैं और मुझे लगता है लैंग्वेज का इसमें बड़ा हाथ है। आपकी भाषा कितना अट्रैक्ट कर रही है ऑडिएंस को, आपके बोलने का तरीका कितना अट्रैक्ट कर रहा है। ये सभी जो टॉप पर गए हैं उनका हिंदी के साथ बड़ा खेल वाला रिश्ता रहा है। दिलीप साहब से लेकर, राजेश खन्ना से लेकर... राजेश खन्ना साहब सिर्फ बोलते ही थे। मुझे लगा नहीं कि कभी वे बहुत ज्यादा इंवाल्व होकर काम करते हैं, वे बहुत स्मूद बोलते थे। अमिताभ बच्चन को लैंग्वेज का अपना है। हिरोइंस का चक्कर है कि वे काफी साउथ वगैरह से...

अजय: नहीं, ये नाम जो आप बता रहे हैं, मेरे ख्याल से नाम भी गिनें तो दो-चार नाम से ज्यादा नहीं होंगे। क्योंकि जो रूल कर रहे हैं इंडस्ट्रीज पर, उनमें से कोई भी हिंदी बेल्ट का नहीं हैं। एक अमिताभ बच्चन का नाम है। अमिताभ भी सो कॉल्ड हिंदी बेल्ट के नहीं हैं, वे मेट्रोपोलिटन पैदाइश हैं...

इरफान: हां मेट्रोपोलिटन, क्योंकि इनको सर्किल में घूमना आता है...

अजय: मैं जब कहता हूं हिंदी बेल्ट तो मतलब है जौनपुर से कोई लड़का निकलकर क्यों नहीं आ रहा है, पटना या पटना को भी छोड़ दें, भागलपुर से क्यों नहीं आ रहा है, यानी मनोज बाजपेयी जैसा लड़का हर बार क्यों नहीं आ रहा है, हर पांच साल पर क्यों नहीं आ रहा है या इरफान जैसा लड़का?

इरफान: क्योंकि जब तक आप उस मिडिल क्लास एटीटूड को नहीं छोड़ेंगे तब तक आप नहीं आ सकते, क्योंकि उस तरह की फिल्में नहीं बनतीं, फिल्में बनती हैं थोड़ी शो बिजनेस वाली... तो ज्यादा जो इंगलिश स्पीकिंग लोग हैं वे ज्यादा कंफर्टेबल महसूस करते हैं, इंट्रैक्शन वगैरह के साथ। जिनके पास ज्यादा पैसा है उनके लिए आसान होता है दूसरे सर्किल में मूव करके आना, एक हिंदी क्षेत्र के लड़के की तुलना में। हिंदी बेल्ट के लड़के को वैसे ही कुछ कल्चरल शॉक ज्यादा रहता है। जब मैं दिल्ली गया था तो मेरे साथ भी ऐसा था। तो उसके लिए डील करना थोड़ा मुश्किल होता है।

अजय: यानी समस्या हमारे पिछड़ेपन की है...

इरफान: पिछड़ेपन की भी है साथ ही फिल्मों का जो स्ट्रक्चर है, जिस तरह की और जिस तरह से कहानियां वे डील करते हैं, ग्लैमर का जो चक्कर है...

अजय: नहीं उस ग्लैमर के चक्कर में... इरफान अगर दस साल पहले हीरो बनते तो क्यों नहीं बन सकते थे, 'अंखियों के झरोखे' के हीरो क्यों नहीं बन सकते थे? मैं पर्टिकुलर इरफान की बात नहीं कर रहा, मेरा मतलब है कि राजस्थान से आया एक लड़का 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' क्यों नहीं कर सकता? क्या फर्क है, कलर का, स्किन का...

इरफान: फिल्मों में काम मिलना बहुत कुछ आपके नेटवर्किंग पर डिपेंड करता है। आप किसको कितनी अच्छी तरह से जानते हैं, इस पर बहुत डिपेंड करता है। मुझे लगता कि छोटे शहर से आए लोगों के लिए सर्किल में मूव करना थोड़ा कठिन होता है। अपने आप को उस तरह ढाल लेना जरा मुश्किल होता है। जिनमें है वे कर लेते हैं।

अजय: सुधार के क्या उपाय हो सकते हैं, हिंदी क्षेत्र में फिल्म कल्चर पैदा करने के...

इरफान: उस तरह की फिल्में बनेंगी, उस तरह से डील किया जाएगा तो मुझे लगता है कि ऐसे लोगों को ज्यादा चांस मिलेगा। ग्लैमर से हटकर अगर इफेक्टिव फिल्म बने तो उस तरह के लोग फिर आएंगे।

अजय: आपके इस सफर में एनएसडी जैसी संस्था या कहें अभिनय के प्रशिक्षण से कितनी मदद मिली?

इरफान: मुझे जो समय मिला, तीन साल, एक साथ सोचने का, कॉन्सट्रेंट होने का उसने बहुत मदद की। वहां के, स्कूल के, पढ़ाने के तरीके ने कुछ वैसी मदद नहीं की, खास तौर से एक्टिंग को लेकर, क्योंकि हमारे यहां कोई स्कूल है नहीं एक्टिंग का... वेस्ट में प्रॉपर टेक्निक्स हैं एक्टिंग को डेवलप करने के, हमारे यहां नाट्य शास्त्र है पर मुझे नहीं लगता कि आजकल उसकी कोई प्रैक्टिस करता है। वहां स्टेला रडलर है, ली स्टाल्स बगिन - ज्यादातर बड़े एक्टर जो आए हैं सब ट्रेंड होकर आए हैं। हमारे यहां सिनेमा की ट्रेनिंग का कोई ऐसा टेकनीक है नहीं, किसी स्कूल को फॉलो नहीं करते हम लोग। बोलते हैं कि स्टेनेलेवेस्की को पढ़ाएंगे लेकिन उसका पढ़ना और उसका प्रैक्टिकल में लाना - बहुत लंबा प्रॉसेस है। यह एक सेमेस्टर में, छह महीने में, पंद्रह-बीस क्लासेज से नहीं हो सकता। इन्फॉर्मेशन के तौर पर आपको पता चल जाएगा लेकिन उसका इस्तेमाल असल में क्या है, आपकी टेकनीक पर कैसे उसका असर हो - इसके लिए बहुत लंबा समय चाहिए। दो तीन साल कम से कम।

अजय: तो ये बात बिलकुल गलत है कि एक्टर जन्मजात होते हैं?

इरफान: ये गलत है। ये बात गलत है। एक्टिंग को आप डेवलप कर सकते हैं बहुत ज्यादा। जैसे मुझे पता है, शुरू में लोग तब भी तारीफ करते थे, लेकिन मैं जानता हूं कि तब क्या करता था, अब क्या करता हूं, कितना फर्क आया है। आपको तैयार होना चाहिए अपने आप पर वर्क करने के लिए, आपको इस बात के लिए कॉन्शस होना चाहिए। एनएसडी में मेरे सीनियर मुझसे बोलते थे, यार तुम परेशान हो एक्टिंग को लेकर, अच्छी बात है... तो यह पहली बार पता चला कि परेशानी अच्छी बात है। अब मुझे लगता है कि ठीक कहते थे वे लोग, क्योंकि आप परेशान हैं तो कहीं न कहीं रास्ता निकालेंगे। यानी आप परेशान हैं किसी बात के लिए तो आप किसी न किसी तरह उस तक पहुंचेंगे ही।

अजय: कौन सी चीजें हैं जिन्हें आप ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं?

इरफान: एक तो, रोल से रिलेट करना मेरे लिए कुछ महत्वपूर्ण है, फॉल्स कुछ चीजें होती हैं जिन्हें आप अपने स्टाइल से निकालते हैं, या डिटैच होकर निकालते हैं लेकिन वह एक्सपीरिएन्स आपके लिए बहुत मजेदार नहीं होता। उस शूटिंग पर जाने का दिल भी नहीं करता। सिर्फ पैसे के लिए या कुछ और कारणों से करना पड़ता है। लेकिन मैं चाहूंगा कि कैरेक्टर से मेरा कहीं एक कनेक्शन जरूर बने क्योंकि वही एक पूंजी है जो आपको काम के बदले मिलती है, वही पैसा वसूल है।

अजय: तो वह कनेक्शन किस स्तर पर बनता है? जैसे दो पर्टिकुलर रोल पर बात करें, 'हासिल' का या 'मकबूल' के कैरेक्टर तो यह कनेक्शन कहां बनता है, कैसे बनता है?

इरफान: कनेक्शन यह बनता है, जैसे कि 20-22 साल के थे आप तो प्यार में पड़ने का एक इमोशन था, नेचुरल था, उम्रदार होकर आप प्यार में नहीं पड़ते हैं, और आप भूल चुके होते हैं उस चीज को, उस मेंटल स्टेज को रिकॉल करना पड़ता है, और दुबारा एक्सपीरिएंस करना होता है कि प्यार क्या होता है, या गुंडागर्दी किस तरह करते हैं लोग, इस अहसास को थोड़ा सा छूकर आप आ जाते हैं। पावर मैनीपुलेशन कैसे होता है और कैसे आप किसी लड़की के साथ डील करते हैं, मुहब्बत का उसमें एक अलग रूप है, तो खुद भी आप अपने आप को सरप्राइज करते हैं। आप अपने आप को डिस्कवर कर रहे होते हैं उस वक्त। ये पॉसिबिलटी अदरवाइज आपको नहीं है। अगर आप इससे हट कर कुछ कर रहे हैं, कहानी से कोई इंवाल्वमेंट नहीं है, कहानी आपको मुतस्सिर नहीं कर रही है तो फिर ये नहीं हो पाएगा।

अजय: जरूरी तो नहीं है कि कैरेक्टर का जो अनुभव संसार हो वो एक्टर के भी अनुभव संसार का एक हिस्सा हो...

इरफान: नहीं जरूरी नहीं है। अपने आसपास देखा हो सकता है या आदमी इमौजिन करके उसे सार्थक बनाता है, उसे सजीव बनाता है।

अजय: यानी एक एक्टर किसी भी प्रकार का कोई भी किरदार कर सकता है।

इरफान: नहीं, एक लिमिट है। मुझे नहीं लगता कि ऋषि कपूर जैसा कोई रोल मुझे दे दिया जाएगा तो मैं कर पाऊंगा। मतलब मेरा एक इतना एरिया है उसको मैं बढ़ा सकता हूं, लेकिन मैं कोई और आदमी नहीं बन सकता कभी भी। मेरी पर्सनौलिटी, मेरे तजुर्बे, मैंने जीवन को जितना समझा है, मेरे ऑब्जर्वेशन - उसकी एक लिमिट है, उसके आगे आप क्रॉस नहीं कर सकते। और इस पर मैं विलीव भी नहीं करता कि हर रोल में मेरा चेहरा बदल जाए, हां एटीटूट जरूर बदलना चाहिए, कि वह कैरेक्टर किस नजर से दुनिया को देखता है, उसका इमोशनल ग्राफ क्या है। उसकी समझ जरूरी है। पहले मेरा मानना था कि यार, आदमी को चेहरा बदल लेना चाहिए, आवाज बदल लेनी चाहिए - वह करके मैंने देखा, लेकिन उसमें मजा नहीं आया मुझे। मेरे लिए वह भार बन गया, क्योंकि पुटऑन कर रखा है मैंने उसे, वह मेरा हिस्सा नहीं है।

अजय: यानी आपके व्यक्तित्व का जो दायरा बनता है, जो परिधि बनती है आपके व्यक्तित्व की, उससे बहुत बाहर नहीं जाएंगे आप?

इरफान: बहुत बाहर नहीं जाएंगे, एक लिमिट है, थोड़ा बढ़ा सकते हैं, लेकिन एक दम से बाहर नहीं जाया जा सकता।

अजय: अभी तक आप किसी इमेज की गिरफ्त में नहीं आए हैं, तो आप क्या ऐसा नहीं बनना चाहते?

इरफान: नहीं, नहीं बनना चाहता।

अजय: लेकिन हिंदी फिल्मों में तो इसके बगौर स्टार कोई नहीं बन सकता, एक्टर भले बन जाए...

इरफान: ये मुझे पता है, इसीलिए रोल को बहुत टेक्निकली नहीं अप्रोच करता मैं। रोल को मैं इस तरह अप्रोच करता हूं कि लोगों को यह इंटरटेन कैसे करेगा। तो इससे वो कमी पूरी हो जाती है, कहीं न कहीं, ऐसा मुझे लगता है, और मैं यह नहीं करता... इंडस्ट्री वाले तो बहुत जल्दबाजी करते हैं, किसी को स्लॉट करने में। उनका तो एक है कि यही कर सकता है इरफान। लेकिन मैं उनको बार-बार गलत प्रूफ करवाना चाहता हूं, उनको सरप्राइज करना चाहता हूं। मैं अपने आपको भी सरप्राइज करना चाहता हूं। कई रोल ऐसे होते हैं जिन्हें करते हुए आप डर रहे होते हैं कि होगा, नहीं। 'दुबई रिटर्न' जैसे था, तो स्क्रिप्ट पढ़ते हुए मुझे लग रहा था - कि ये टैकल होगा नहीं होगा, या ह्यूमर आएगा कि नहीं आएगा। क्योंकि उसमें बिहेवियर के स्तर पर ही ह्यूमर हैं। वह जिस तरह से अपने आसपास के लोगों को देख रहा है या अपने आप को देख रहा है वह अलग है और बहुत कुछ इट्रैक्शन पर है वो ह्यूमर, आप एक दूसरे से क्या बात कर रहे हैं, किस तरह से बात कर रहे हैं - उसमें थोड़ा भी सुर ऊपर-नीचे हुआ तो वह बिलकुल बेकार हो सकता था, या 'हासिल' करने के पहले जब तिसू (तिग्मांशु) बार-बार बोलता था कि इरफान तू ले जा, तो मुझे लगता था कि मेरे कंधे पर ज्यादा बोझ है। लेकिन फिर जब इलाहाबाद गए और जब रोल धीरे-धीरे ओपन अप होने लगा... तो वही एक सरप्राइज है आपके लिए। और वह सरप्राइज आप हमेशा चाहते हैं क्योंकि वह चरित्र कई दिन फिर आपके साथ रहता है। फिर धीरे-धीरे करके जाता है। 'वारियर' करने के बाद पहली बार मुझे ऐसा तजुर्बा हुआ कि वह दुनिया, वह कहानी वह मुझसे छुड़ाए नहीं छूट रही है। एक बार तो आसिफ को फोन करते-करते मैं बेतहाशा रो पड़ा। बच्चों की तरह बिलख-बिलख कर रो पड़ा, पता नहीं कयों। क्योंकि मुझे लग रहा था कि वो... कहां गया वो...। तो मैं चाहता हूं कि ऐसा रहना चाहिए आपके साथ कि आपका मंथन हो जाए थोड़ा। और इसीलिए मैं बहुत ग्रे या डार्क चीजें करने से थोड़ा कतरा रहा हूं आजकल। क्योंकि वो अपका हिस्सा बन जाता है कहीं न कहीं। इसीलिए कि हर बार रोल करते समय उसका तजुर्बा लेना पड़ेगा आपको थोड़ा और हर बार निरंतरता में थोड़ा सोचना पड़ेगा। एक निगेटिव रोल करने में बहुत सारा निगेटिव आपको सोचना पड़ता है जो आफ्टर ऑल खुद को पसंद नहीं आता, लोगों को डराना, कि किस तरह से मैं डराऊं - वो अपनी शख्सियत पर बोझ-सा बननें लगता है।

अजय: ऐसा होता है क्या कि कोई किरदार निभाते हुए आपके व्यक्तित्व का थोड़ा क्षरण होता है या उसमें कुछ जुड़ता है?

इरफान: ये होता है, यही एक पूंजी है असल में, एक्टिंग की। जो आपको वापस लाती है, बैट्री जो रिचार्ज होती है - वो यही है। यही आपकी ईनाम या रिटर्न है। पैसा-वैसा तो खैर बाइप्रोडक्ट है। असल ईनाम यही है, जो छंटनी होती है आपकी या आपके भीतर जो जुड़ता है।

अजय: 'हासिल' के संदर्भ में, एक तो यह कि किसी रोल को प्ले करते समय एक्टर-डायरेक्टर रिलेशन कितना महत्वपूर्ण होत है। और एक बात कि अगर तिसू ने नहीं लिया होता तो एक अच्छे वक्त की प्रतीक्षा अभी भी आप कर रहे होते...

इरफान: हां, यह सोचकर कभी-कभी मैं डर जाता हूं और ऑलमोस्ट तिसू ने मुझे नहीं लिया था। वह तिसू की भी पहली फिल्म थी उसे भी अपना मार्केट देखना था, लेकिन.. इसीलिए मैं कह रहा था कि यहां नेटवर्किंग से काम मिलता है आपको, सिर्फ अपने टैलेंट से काम नहीं मिलता। टैलेंट से बाद में मिलता होगा शायद। क्योंकि मैं तिसू को जानता था अर्से से और वो मेरा काम देखता आ रहा था एनएसडी से, तो एक अण्डरस्टैंडिंग थी हमारी। मैं बगैर देखे बता सकूंगा कि तिसू को किस तरह का काम पसंद है किस तरह का नहीं, और उसका जो कैरेक्टर को देखने का तरीका है उससे बहुत कुछ मैंने अपनी एक्टिंग में ऐड किया है। वह जो एम्यूज करता है लोगों को, हर चीज में उसके लिए एक इंटरटेनमेंट वैल्यू होता है। सब चीजें रूटेड होती हैं - ये सब चीजें उसके साथ काम करके, मेरी एक्टिंग का हिस्सा बनीं। कि इंटरेस्टिंग कैसे बनाऊं मैं रोल को। पहले तो यह सोचा करता था कि मैं कैसे सच्चा कर सकता हूं रोल को, कितना ट्रू हो सकता हूं, अब मेरे लिए यह बोरिंग है कि मैं टेक्निकली बहुत करेक्ट दिख रहा हूं जर्नलिस्ट हूं। वह मेरे लिए अब एक बोरिंग चीज है। क्योंकि लोग जब आ रहे हैं टिकट लेकर तो उन्हें पहली चीज जो चाहिए वह इंटरटेनमेंट है। कैसे किरदार को मैं इंटरटेनिंग बना सकता हूं, कैसे उसमें हिप्नोटिक क्वालिटी डाल सकता हूं ये मेरा प्रयास रहता है।

अजय: दूसरा प्रश्न था मेरा, एक्टर डायरेक्टर रिलेशनशिप के बारे में।

इरफान: डायरेक्टर-एक्टर रिलेशनशिप अगर अच्छा हो तो आपको अपने आपको सरप्राइज करने के चांसेज बहुत ज्यादा हो जाते हैं। वह ट्रस्ट लेवल बहुत ज्यादा जरूरी हो जाता है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। किसी डायरेक्टर के लिए मैं ऑडीशन कर रहा था। और जिस वक्त आप परफॉर्म कर रहे होते हैं किसी के भी सामने तो डायरेक्टर क्या चाह रहा होता है यह आपके सबकॉन्शस में रहता है हमेशा। वह जिस तरह का इफेक्ट चाहता है आप उसे रखते हुए, उसके हिसाब से अपने आपको छोड़ते हैं। अगर आप उससे पूरी तरह से कन्विन्स नहीं हैं, तो आप अपने एलिमेंट, उसको सर्टिफाई करते हुए, ऐड करते हैं। लेकिन जहां आप फुल ट्रस्ट हैं वहां आपको यह सोचना नहीं पड़ता कि इसको क्या पसंद आएगा। फिर आप अपने आपको पूरी तरह से छोड़ देते हैं। तो फ्लोरियन के साथ किया मैंने वह ऑडीशन और मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी मैंने ऐसा रीयल परफॉर्म किया हो। इतना अच्छा हुआ। जिस तरह आसिफ के साथ काम करते हुए मुझे पता था कि मुझे इफेक्ट के लिए कुछ नहीं करना है। मुझे अपने आप को अच्छी तरह कैरी करना है और सिचुएशन के साथ करते हुए मुझे ऐसा लगा कि मैं अपने आपको छोड़ सकता हूं आँख मूंदकर। तो करते-करते मैं जो सीन के अंदर घुसा वो जे एक्सपीरिएंस है, महत्वपूर्ण है। वैसा करते हुए फिर कभी मैं उस इंटीमेसी से नहीं जा पाया। क्योंकि मुझे पता चल रहा था कि यह जो चाह रहा है वही मैं अल्टीमेटली करना चाहता हूं। उसी तरह का काम।

अजय: ऐसा होता है क्या.. अभी आपने उतनी फिल्म नहीं की हैं, फिर भी, कि.. नसीर ने अपने किसी इंटरव्यू में कहा था कि मैं अपनी हर फिल्म को अपना सौ प्रतिशत नहीं देता और उन्होंने शबाना को समझाया था कि तुम भी मत दिया करो.. ये साले चूतिए हैं और इन पर सौ प्रतिशत एनर्जी खतम करने का कोई मतलब नहीं। तो क्या एक एक्टर ऐसा फैसला ले सकता है?

इरफान: बिलकुल ले सकता है। जैसे मुझे अगर कहानी पर विश्वास नहीं है, कैरेक्टर बहुत अच्छा है और मुझे लगता है कि ये करना बहुत जरूरी नहीं है तो मैं भी नहीं दूंगा। कैसे मैं अपने आपको बचा सकता हूं उसके अंदर, मैं सिर्फ..

अजय: हां एक्टर की प्रतिष्ठा भी तो दांव पर लगी है, मुझे लगता है कि नसीर साहब ने ऐसा कहा होगा, किया भी होगा, लेकिन इससे नसीर साहब ने कहीं न कहीं प्रतिष्ठा खोई भी। जो कमर्शियल फिल्में वे करते हैं, शायद मन से नहीं करते रहे। बेमन से किया उन्होंने, लेकिन मेरा सवाल है कि फिर एक एक्टर के तौर पर क्यों करे वो!

इरफान: जरूरतें.. आप आर्ट फिल्मों में सवाईव नहीं कर सकते, पैसा चाहिए आपको, शोहरत चाहिए आपको, जब आपको पता है कि आपसे कम बेहतर आदमी इतना ज्यादा उसको पावर मिल रहा है, इतना ज्यादा उसको पैसा मिल रहा है, इतनी ज्यादा उसको इज्जत मिल रही है, तो आपको क्यों नहीं..

अजय: नहीं, देखिए, उसमें एक फर्क है कि एबीसी कोई भी एक्टर उस ढंग का काम कर रहा है तो वह फुल कन्विक्शन के साथ कर रहा है, वही उसकी ईमानदारी है। वह खराब काम करना ही उसकी ईमानदारी है - एक एक्टर के तौर पर। मैं नाम नहीं लूंगा किसी भी एक्टर का। लेकिन आप जब इस ढंग का पालते हैं कि नहीं मैं तो एक्टर हूं ये वाहियात किस्म की फिल्में नहीं करूंगा, तो मेरा यह कहना है कि आप कहीं दोहरे छल के शिकार हो रहे हैं।

इरफान: नहीं दोहरे छल के शिकार नहीं हैं, अब इसको ईमानदारी कैसे कहेंगे कि मैं खून करता हूं तो बोलता हूं कि मैं खून करता हूं। एक्टिंग का अपना एक, मैं धर्म नहीं बना रहा हूं, लेकिन उसकी कुछ अपनी जिम्मेदारियां हैं। एक फील्ड में आप कितना अंदर जा रहे हैं, कितना नया क्रिएट कर रहे हैं - ये अगर कोई नहीं कर रहा है और सिर्फ नेटवर्किंग के बल पर कर रहा है, कहानी से कुछ लेना-देना नहीं, तो फिर ईमानदारी कहां है। आप भी चाहते हैं कि जिस तरह की शोहरत उन्हें मिल रही है, वही आपको मिलनी चाहिए तो मिलनी चाहिए इसीलिए आप आए हो। ताकि आप पैसा कमा सकें, शोहरत कमा सकें और यह आप पर निर्भर है कि आप और क्या-क्या करते हैं। पर्सनल लाइफ के लिए, शांति के लिए। डील करना, मुझे लगता है कि अब भी बहुत बड़ा कॉम्प्लेक्स है। डेस्क को डील करना। हालांकि मेरा रेशनल माइंड बोलता है कि वो भी हो जाएगा, और पता भी नहीं चलेगा। क्यों चिंता करूं इसकी। फिर भी आइ वांट टु बी कम्फर्टेबल विद द आइडिया ऑफ टेल। तो मुझे लगता है कि जो कुछ मुझे मिलना है मेरे काम के ही थ्रू मिलना है। क्योंकि मेरा काम मेरे लिए बर्डेन नहीं है, वह मुझे कुछ और एक्सपीरिएंस दे रहा है। और अगर कमर्शियल फिल्म मुझे करना पड़े तो वह मेरे लिए, मेरा टार्चर है, उसके लिए मैं किसी पर अन्याय नहीं कर रहा हूं। मैं अपने आप को तब जिम्मेदार मानता हूं जब कोकाकोला बेचने लगूं यह जाने हुए कि कोकाकोला खराब है और मैं उसका एड करूं, तब मुझे लगता है कि मैं बेईमानी कर रहा हूं। लोगों के साथ भी कर रहा हूं अपने साथ भी कर रहा हूं। आप जो भी कम कर रहे हो उसका असर पड़ता है लोगों के ऊपर। तो आपको उसकी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। यह कहना कि मैं सिर्फ फिल्म कर रहा हूं, उसका असर जो भी है उससे मेरा मतलब नहीं, या फिल्मों का कोई असर नहीं होता ये मैं गलत मानता हूं। फिल्मों का असर होता है, मेरे लिए अपने बच्चे को 'हासिल' दिखाना मुश्किल है। दिखाता हूं तो वो पिस्तौल लेकर घूमता है। मेरा बच्चा धीरे-धीरे बड़ा होने लगा तो मुझे अहसास हुआ कि हम जितनी फिल्में करते हैं जितना काम करते हैं सबका असर पड़ा उस पर। रात को किसी भी चैनल पर ले लो, मार- धाड़, चाकू-खून ये.. वो.. मौं तो पर्सनली यह भी चाहूंगा कि फिल्में कुछ इस तरह की बनने लगें कि थोड़ा अच्छा असर पड़े बच्चों पर।

अजय: जैसे 'मकबूल' जैसी फिल्में हैं इनका क्या असर हो सकता है..

इरफान: बच्चों के लिए नहीं है, दे शुड नॉट बी अलाउड। कम से कम पंद्रह साल के नीचे वालों को देखना अलाउड नहीं होना चाहिए। क्योंकि यह एक मेच्योर स्टोरी है।

अजय: हिंदी फिल्मों में यह ट्रेंड चला हुआ है अपराधियों का मानवीय चेहरा दिखाना..

इरफान: ये वेस्ट से आया है, हमारे यहा आज से नहीं, बहुत पहले से, मुझे लगता है कि महबूब खान भी वेस्ट से मुतस्सिर होकर करते रहे हैं चीजें, क्योंकि वहां ज्यादा प्रोफेशनल ढंग से, ज्यादा ऑनेस्ट दिखने वाली रीयलिज्म की फिल्में बनती रही हैं तो ये सब वेस्ट की देन है..

अजय: एक सवाल है कि क्या रेलिवेन्स है 'मकबूल' का, इसके अलावा कि विशाल को एक काम मिल गया, इरफान को एक रोल मिल गया..

इरफान: एक मोरलिस्टक कहानी है, उसको सही तरीके से देखा जाए, अगर उसमें ये सब ऐंगल न डालें जाएं कि कौन हिंदू है कौन मुसलमान है तो एक मोरलिस्टिक कहानी है कि आदमी जो निगेटिव चीजें करता है, इट कम्स बैक। ऐसा नहीं है कि आप फ्री हैं, कि आपने कुछ भी कर दिया। उसके परिणाम आपको झेलने पड़ेंगे बाद में। इसी मकसद के लिए यह फिल्म बनाई गई है..

अजय: पहले ये संदेश चलता था। कर भला होगा भला, अंत भले का भला.. इसको उल्टा कर दें कर बुरा होगा बुरा, अंत बुरे का बुरा..

इरफान: रेलिवेन्स यही है फिल्म का। मेरे लिए जो नया करने को मिला, वह लवस्टोरी भी काफी डार्क लवस्टोरी है। लोग कहते हैं कि भाई इतना डार्क, यह सब क्यों कर रहे हैं, तो मैं तो बहुत सारी डार्क चीजें अब अव्यायड कर रहा हूं। मैकबेथ में जितना मैं डार्क कर सकता था उससे बहुत ज्यादा मैंने टैंपर डाउन किया ताकि लोगों को अंदर लेने में आसानी हो ताकि आसानी से आप लोगों के भीतर बतौर कलाकार पौठ सकें। इसलिए मेरा पूरा एफर्ट था कि लास्ट में कहीं न कहीं लोगों को रोना चाहिए। यह मैं कोई सबक नहीं सुना रहा या शेक्सपीयर के ऊपर कोई थिसिस नहीं लिख रहा कि कितना करेक्ट मैंने किया। मैं कहानी को कैसे असरदार बना सकूं और लोगों तक सही बात पहुंच जाए सिर्फ यह सोचता हूं।

अजय: अभी अपनी सोसायटी में एक एक्टर की हैसियत क्या है?

इरफान: बहुत ऑड, बहुत ग्लैमरस लेते हैं लोग, लोग आपको रीयल इंसान नहीं मानते। मैंने किसी से लिफ्ट ले ली थी कल, उसने पांच फोन कर डाले, मुझे नहीं लगा कि ऐसा होगा.. फोन पर यह कि पता है, पता है मेरे साथ कौन बैठा है, पता लगा कि उसका छोटा भाई दिनभर मेरी नकल उतारता रहता है और 'हासिल' के डायलॉग बोलता रहता है। तो लोगों पर बहुत ज्यादा असर होता है। और हमारे यहां सोसायटी में इतना अवेयरनेस नहीं है कि समझ सकें कि हमारे लिए गलत कर रहे हैं या सही कर रहे हैं। इसीलिए, बड़े स्टारों का सामान बेचना मुझे कहीं न कहीं तकलीफ देता है।

अजय: पता नहीं आप एग्री करेंगे या नहीं लेकिन मुझे लगता है कि हमारी सोसायटी में एक्टर की हैसियत बहुत बढ़ा दी गई है।

इरफान: बढ़ी हुई तो है।

अजय: मतलब पोलिटिक्स भी एक्टर कर रहा है, मंत्री भी एक्टर है, सामान भी एक्टर बेच रहा - ये सब वो फिल्मों के अलावा कर रहा है।

इरफान: ये वर्ल्ड ओवर है। अमेरिका में तो भगवान बना देते हैं लोग। मीडिया का एक एट्रेक्शन तो है ही और वो जरूरत से ज्यादा है। एक्टर को जितना पैसा मिलता है, मुझे लगता है डायरेक्टर को ज्यादा मिलना चाहिए। लेकिन क्योंकि उतनी इंटिग्रिटी से काम नहीं हो रहा है किसी भी फील्ड में, एक्टर नेता बन जाता है और जो नेता थे वे क्या थे पहले, वो भी एक सवाल है कि कैसे लोग नेता बनते हैं। जो एक्टर बन रहा है वो कम से कम उनसे तो बेहतर है। पूरी दुनिया में मुझे नहीं लगता कि प्रोग्रेसिव कुछ चीजें हो रही हैं, पोलिटिक्स के लेवल पे। उदय प्रकाश की किसी किताब में मैंने पढ़ा था कि विदाउट विजन जब पावर आता है तो वह डिस्ट्रक्शन के अलावा कहीं नहीं जाता, सुबह-सुबह पढ़ते हुए मैं सहम सा गया था, बहुत अच्छा लिखा है उन्होंने। कहानी है 'वारेन हेस्टिंग्स का सांड़'।

अजय: आपने कभी इसके बारे में सोचा कि अपनी पोपुलरटी का कोई सदुपयोग आप कर सकते हैं..

इरफान: मैं करना चाहूंगा, हमेशा, और बिलकुल पर्सनल च्वाइस है.. और आप जो जस्टिफिकेशन की बात कर रहे थे निगेटिव आदमी का पॉजिटिव आदमी का। कहीं न कहीं मैं उससे डिसएग्री भी करता हूं। मैं किसी अंडरवर्ल्ड के आदमी को कैसे बोलूं कि यह सही है.. लेकिन ऐज ऐन एक्टर मुझे वह इंटरेस्टिंग लगता है और यह एक कानफ्लिक्ट है..

अजय: वो तो चाहे 'सत्या' हो या उसके पहले की भी फिल्में हों, हर बुरे आदमी में एक अच्छा आदमी भी होता है.. तो उसकी सारी बुराइयां दिखाते हुए आप उसकी अच्छाई की भी बात करें और बाद में आपको पता चले कि वो बुरा था इसलिए मारा गया-ये बात कहीं न कहीं.. जौसे आप दाउद को फ्रंट पेज पर छापते हो तो कहीं न कहीं दाउद से मुतस्सिर होकर दाउद की ही बात फैलाते हो। अगर दाउद को चौथे पेज पर छापो तो लोग उतना ध्‍यान भी न दें..

इरफान: वो शायद इसलिए कि कॉन्शस जो है, आत्मा जो है, किसी भी फिल्म में मुझे नहीं लगता कि वो जिंदा है। जब सारी चीजें 'मनी' के इर्द-गिर्द घूमने लगें, आपकी सारी जिंदगी पैसा कमाने में ही बीते, आपका मोटिवेशन यही है कि पैसा कमाया जाए, तो ये आपको कहीं बहुत बेहतर स्टेज पर लेकर नहीं जाएगा। इन द लांग रन। यह डिस्ट्रक्शन की तरफ ही लेकर जाएगा। जितने रिफाइन से रिफाइन होते जाएंगे माध्‍यम, जैसे अमेरिका है, जितना प्रोफेशनल अमेरिका हो गया है, जितने कैपिलिस्टिक देश हैं, उनमें हर चीज का एक डिपार्टमेंट बन गया है, एक आदमी कम्प्यूटर की कोई चीज बनाता है तो उसी के बारे में जानता है, बाकी अखबार में क्या हो रहा है, वह नहीं जानता। इस तरह सबका एरिया संकुचित होता जा रहा है।

अजय: इधर सोसायटी का जो पोलराइजेशन हुआ है, उनके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे? हर आदमी के पास एक चश्मा है..

इरफान: क्या कहा जाए इसके बारे में पता नहीं, पर ये बहुत ही ज्यादा डिस्‍टर्विंग चीज है और ये किसी भी लेवल पर किसी के लिए भी फायदेमंद नहीं है। मतलब, मेरे लिए हिंदू कल्चर ज्यादा मायने रखता है बनिस्बत उस हिंदू के जो समझ नहीं पा रहा है कि हिंदूइज्म है क्या? मुझे लगता है कि मैं उससे ज्यादा हिंदू हूं क्योंकि मैं मुतास्सिर हूं उन चीजों से, उसके फलसफे से। मुझे लगता है कि इस तरह का सेलिब्रेशन किसी और दुनिया में किसी और कल्चर में नहीं है कि पूरी जिंदगी जो है, हर चीज जो है, सेलिब्रेशन है। भगवान के जो अफेयर हैं, जो एक्स्ट्रा मौरिटल अफेयर है उसे भी सेलिब्रेट किया जाता है। यह एक ऐसी चीज है जो कीं भी नहीं है दुनिया में। इसका गलत मतलब लगना या गलत मतलब फैलाना, मैं समझता हूं इससे बड़ा क्राइम कोई है नहीं। हर धर्म की जो चीजें हैं.. मैं सोचता हूं धर्म के राजनौतिक इस्तेमाल को प्रतिबन्धित कर देना चाहिए। धर्म एक पर्सनल मामला है और इसका इस्तेमाल गलत तरीके से, बहुत बड़ा क्राइम है..

अजय: फिल्में कैसे इस चीज को रोक सकती है? कहा जाता है कि हमारी जो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री है वह बहुत सेकुलर है।

इरफान: क्योंकि सारा प्रॉफिट पर डिपेंड करता है कि कौन कितना प्रॉफिट दे रहा है। तो अच्छी बात है कि अभी तक वैसा ऐंगल इतना नहीं आया है कि यार ये.. अच्छी बात है कि फिल्म इंडस्ट्री में यह सब नहीं है। शाहरुख खान अगर कमाकर दे रहा है तो शाहरुख खान ही रहेगा, इसलिए कि वो मुसलमान है तो उसको कुछ और कर दिया जाए यह नहीं होगा, तो यह अच्छी बात है।..

अजय: इस लेवल पर आपको कभी झेलना पड़ा?

इरफान: नहीं, कभी नहीं झेलना पड़ा, बचपन में झेलना पड़ा वैसे नहीं..

अजय: बचपन में क्या कुछ बहुत बुरा हुआ?

इरफान: बचपन में, क्योंकि बच्चे जो हैं उन्हें हकीकत पता नहीं होती, तो एक बच्चा अगर घर से सीख के आ रहा है कि मुसलमान जो हैं वो खराब होते हैं तो वो मेरे साथ वैसे ही रिएक्ट करेगा। तो वो चीज बचपन में जरा तकलीफ देती है, लेकिन उसके बाद मुझे ऐसा कभी नहीं लगा। अब जाकर जो इस तरह का माहौल बनता जा रहा है वो तकलीफदेह है।

अजय: अभी किस तरह के प्रोजेक्ट कर रहे हैं आप, कौन-कौन सी फिल्में कर रहे हैं..

इरफान: एक 'दुबई रिटर्न' कर रहा हूं, ये जो मेरी फिल्में आई हैं 'हासिल' या 'मकबूल' मैं उसी चेन में उसे मानता हूं। उसी माला का एक मोती है। बाकी तो मैं ईशान त्रिवेदी की एक फिल्म कर रहा हूं उससे थोड़ा एक्साइटेड हूं। मुझे लगता है थोड़ा स्क्रिप्ट पर और काम करना चाहिए। वो फिल्म भी इंटरेस्टिंग है। बाहर की एक फिल्म का ऑफर है। वह अभी फाइनलाइज नहीं हुआ है, को-एक्टर वगौरह देखने हैं, उसका मुझे इंतजार है.. पूजा की फिल्म है 'रोग' अभी आई है।

अजय: खुद प्रोडूस करने की..

इरफान: नहीं, बिलकुल नहीं, क्योंकि प्रोडक्शन करते हुए पता चल गया कि उसमें आदमी का मेंटल स्टेटस बिलकुल अलग होना चाहिए। मेरे जौसा आदमी प्रोडूस नहीं कर सकता। बहुत बाद में कभी चाहूंगा भी प्रोडूस करना, लेकिन अपनी तरह से..

अजय: आपकी पत्नी राइटर हैं और आप लोगों का एक थिएटर का बैकग्राउंड भी है। कहीं कोई ऐसा कैरेक्टर होगा.. वे अच्छी तरह जानती होंगी आपकी क्षमताओं को.. तो ऐसा नहीं हुआ कि उन्होंने सोचा हो कि एक ऐसा कैरेक्टर लिखूं जो इरफान करेगा और बहुत अच्छा करेगा..

इरफान: उनका काम करने का जो तरीका है वह मेरे से बिलकुल अलग है। वे बहुत डिटैच होकर काम करती हैं। उन्हें पर्सनली एक्टर लोग बहुत पसंद नहीं। ये इत्तेफाक है कि मेरा उनका साथ हो गया लेकिन उनको एक्टर का सेल्फ एब्जार्बड रहना हमेशा, जब भी आईना दिखा तो एक बार आईना ये सब उन्हें पसंद नहीं। वे गिल्टी फील कराती रही हैं हमेशा से मुझे और उनको यह बात बिलकुल पसंद नहीं है लेकिन उन्होंने ऐसा सोचा नहीं कभी। ये है कि वे मेरी क्रिटिक बेहतर हैं। उन्होंने 'हासिल' या 'वारियर' के पहले कभी मेरी तारीफ नहीं की और मेरे बहुत झगड़े हुआ करते थे उस समय जब मैं पूछता था, जब भी कोई प्ले करता था, कि यार मेरा कैसा हुआ। तो वे बात को अवायड कर देती थीं। उन्हें पता था कि बोरिंग वगैरह कहेंगी तो मैं ले नहीं पाऊंगा, बहुत टची हूं इस मामले में। उन्हें पता है कि ये अपनी तारीफ सुनना चाहता है तो वे तारीफ कर देती थीं। तारीफ जब करती थीं तो मुझे पता होता था कि ये क्या कर रही हैं। तो फिर ये कि तुम सही क्यों नहीं बोल रही हो झूठ क्यों बोल रही हो। ..यह अब जाके उन्हें लगा कि हां, मैं एक्टर अच्छा हूं। तो उनके अंदर भी है कि मुझे मेरी जगह मिलनी चाहिए। 'हासिल' देखने के बाद.. रात को देखकर आई थीं वे, तबतक मैं सो गया था, सुबह छ: बजे उठा दिया उन्होंने मुझे, बहुत खुश थीं वो, इतनी खुश कि खुशी से उसकी आंखें छल-छला रहीं थीं। पहली बार मुझे इस तरह का रिऐक्शन उनसे मिला। बहुत खुश होकर वे रो रही थीं।

अजय: तो इस सक्सेस से कितना कॉन्फिडेंस बढ़ा?

इरफान: कॉन्फिडेंस मेरा बहुत बढ़ा। लोग कई बार कहते हैं कि हीरो जो होता है उसका एक अलग स्ट्रक्चर होता है, अलग दिखता है, ऐसा कुछ नहीं होता, कान्फिडेंस ही होता है जो लोगों को पसंद आता है। उससे पर्सनलिटी की एनर्जी जो होती है, अट्रैक्ट करती है। अमिताभ बच्चन का वही चेहरा 'जंजीर' के बाद कुछ और लगने लगा। आत्मविश्वास आपको जैसे बदल कर रख देता है। वही आकर्षित करता है। क्योंकि लोग ऐसे लोगों को देखना पसंद करते हैं जो उनसे बड़े हैं जो किसी न किसी लेवल पर अनअप्रोचेबुल होते हैं।

अजय: और क्या हासिल करना है?

इरफान: अभी बहुत कुछ करना है हासिल। मैं जिस तरह से इंटरटेन करना चाहता हूं लोगों को, नहीं कर पाया हूं। मैं बताना चाहूंगा कि लोगों को सही तरीके से इंटरटेन किया जा सकता है। उसके लिए इतनी फिजूल की चीजें करने की जरूरत नहीं है, इतना उथला करने की जरूरत नहीं है। लोगों को सच्चाई हमेशा कहीं न कहीं अट्रैक्ट करती है। शुरू में मैं सोचता था कि यार क्या लोगों को पसंद आएगा कैसा करूं.. लेकिन जब मैंने सही किया तो लोगों को वो बात जाकर लगी। अब लोग मुझसे नहीं बोलते क यार, तुम थोड़ा लाउड करो। शुरू में कोई भी डायरेक्टर बोल दिया करता था, थोड़ा आँख दिखा यार, थोड़ा गुस्सा दिखा यार.. अब नहीं बोलते वे लोग। वे इफेक्ट देख चुके हैं। उन्हें भी पता है, मुझे भी पता है कि मुझे सिर्फ सच को जीना है - ट्रू करना है और अपनी तरह से इंटरटेन करना है लोगों को। शायद अब दर्शक को ऐसा लगने लगा है कि इरफान ऐसा कर सकता है।


Ajay Brahmatmaj has recently authored the book Irrfan...Aur Kuch Panne Kore Reh Gaye published by NotNul, 2020.

The interview was originally published in Kathachitra-3, 2005. 

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फिल्म समीक्षक,रिसर्चर और यूट्यूबर अजय ब्रह्मात्मज पॉपुलर फिल्मों से परहेज नहीं करते. अजय की  कोशिश है कि पॉपुलर फिल्मों को समझा जाए और उन्हें  गहन एवं गंभीर विषय का दर्जा दिया जाए.उनकी दो पुस्तकें 'सिनेमा समकालीन सिनेमा' और 'सिनेमा की सोच' वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी हैं. 'ऐसे बनी लगान',(सत्यजीत भटकल),'जागी रातों के किस्से'(महेश भट्ट) और 'जीतने की ज़िद'(महेश भट्ट) उनकी अनूदित पुस्तकें। नॉट नल से पतली पुस्तक सीरीज में फिल्मों,फिल्मकारों और कलाकारों पर 10 ईबुक प्रकाशित।
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