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बड़ी पुरानी कहावत है जिसके एक एक शब्द में सच्चाई ही सच्चाई है।
भक्त और भगवान का रिश्ता, नाता है बेजोड़,
लाख जमाना तोड़े लेकिन कभी सके न तोड़।।
इसी आधार पर बाबा बालकनाथ की कथा आरम्भ होती है। जुनागढ़ (गुजरात) के एक ब्राह्मण विष्णू और उनकी धर्मपत्नी लक्ष्मी के यहाँ सन्तान नहीं थी। उन्होंने ये प्रतिज्ञा की कि जब तक भगवान शंकर हमारी सुनी गोद हरी भरी नहीं करेंगे, वे शिव मंदिर की चैखत पर अपने प्राण त्याग देंगे।
दिन रात बीतते गये, आँधी तूफान अपना ज़ोर दिखाते हार गये, परन्तु कोई भी पति-पत्नी की इस तपस्या को भंग न कर सका।
उनकी सच्ची भक्ति प्रेम को देखते हुये भगवान शंकर को अपना सिंहासन छोड़कर उन्हें दर्शन देने पड़े। मंदिर की घंटियाँ बजने लगी। “उठो भक्तो हम तुम्हारी भक्ति से अति प्रसन्न हुये। माँगो क्या वरदान चाहिये।”
’हमारी सूनी गोद हरी भरी कर दीजिये-प्रभू’ ये कह कर दोनों भगवान शंकर के चरण पकड़ कर रोने लगे।
मनोकामना पूरी हुई। भगवान शंकर एक विचित्र रूप से बालकनाथ के चोले में जन्म लिया।
जन्म से लेकर अन्तिम समाधि लेने तक बाबा जी ने अपने केवल बारह वर्ष की आयु में इस जग की कैसे कैसे रूप दिखाये, इन सबका वर्णन आपको चित्रपट पर मिलेगा।
बाबाजी के दर्शन कीजिये और अपना जीवन सफल कीजिये।
(From the official press booklet)