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"पेश आयेगा वही जो कुछ पेशयानी में है"
इनसान के हात में गिनती की सिर्फ चार लकीरें हैं। लेकिन लिखने वाले ने इन्हें चार लकीरों में इनसान की पूरी जिंदगी लिख डाली है। और लखाई भी इतनी पकी है कि इनसान मिट जाता है मगर यह लकीरें नहीं मिटतीं। तकदीर का लिखा हो कर ही रहता है।
आशा और जीवन मुहब्बत के दो पंछी थे। उनकी रूऐं एक दूसरे का दामन पकड़ के इस दुनिया के गुलशन में आई थीं। मगर समाज वेरहम बागवानों ने इन दोनों को कभी एक शाख पर न बैठने दिया। दोनों एक दूसरे के लिये तड़पते रहे। मगर मुहब्बत में बड़ा सबर होता है। इस जालम दुनिया ने जीवन से उस की आशा को छीन कर किसी और को दे दिया मगर वह पुच रहा। उसके अरमानों का आशियाना जल जल कर दूया देता रहा मगर वह चुप रहा। उसकी मुहब्बत खून के आंसू रोती रही। मगर वह चुप रहा। भरी समाज में उसके सहरे के फूल नौच कर दूसरे के सहरे में गोंद दिए गये। मगर वह चुप रहा। और जब वह इतने जुलम बरदाश्त न कर सका तो चक्करा के मौत के कदमों पै जा गिरा। उसका सीना टूट गया। उसका गीत अधूरा रह गया। उसका संगीत भी उसके लिए रोने लगा। उसके लिए कौन नहीं रोया। लेकिन इन आँसों से कितने दामन भीगें। संगीत की लहरें तकदीर की लकीरों से कहाँ तक टकराऐं। यह देखने के लिए आपको सुशील पिक्चर्स का जज़बाती पिक्चर लकीरें देखना पड़ेगा।
[From the official press booklet]