वादी-ए-गुल के सरदार खाने आज़म अकबरख़ान (शेख मुख़्तार) आग और खून की होली खेला करता था। उसने आज़मखां पर हमला किया और पीढ़ीयों की नफरत ने फिर एक खूनी खेल खेला।
बेगुनाह इन्सान फिर मारे गये और आज़मखां का मासूम बेटा अस्लम यतीम होकर भाग निकला - और उसकी बिवि सलिमा (बीना), बेबस, बेसहारा होकर अकबरख़ां के महल में लाई गई।
सिकंदरखां (उल्हास) सौदागर आज़म का दोस्त था। ग़ैरतमंद पठान ने जिंदगी में पहली बार वायदा खिलाफी की और अपने ज़मीन के खिलाफ झूठ बोलकर अपनी लड़की दिलदार खानम को (मुमताज) दिलदारखां बना दिया, जब उसकी जलाल से मूठभेठ हुई। अस्लम ही जलाल बन चुका था।
उधर अकबरखां का लड़का गुलशेर (दारासींग) जवान होकर सारी वादी-ए-गुल का महबूब बन चुका था। गुलशेर और जलाल में ख़ानदानी दुश्मनी के अलावा टकराव का एक और सबब पैदा हो गया था और वो थी दिलदार जो गुलशेर का दिल बन चुकी थी।
इस दुश्मनी का नतीजा यह हुआ कि आमने सामने हमले शुरू हो गये और चलते रहे। बरसों बाद जलाल ने अकबर के महल पर हमला किया। इस हमले ने अकबरखां की नन्ही मुन्नी नवासी रूक़साना की जान ले ली- रूक़साना की मौत ने अकबरखां की आंखें खोल दी और उसने हथियार उठाना छोड दिया - मगर गुलशेर की रगों का जवान खून उबल रहा था। वो जलालखां से टकराया।
उधर कोइदामा में एक नेक आवाज गुंज रही थी - "खुदा के मासूम बंदों का खून बहाने का किसी को हक़ नहीं है" - यह आवाज़ पीर साहब (अमर) की थी - इस आवाज़ में फिरोझा (मलका) की आवाज़ शामिल थी जिसको जलाल के जुल्म ने बेआबरू किया था।
अमन और सलामती-जंग और नफरत की आवाज़ों में हमेशा की तरह टकराव हुआ।
हमारी कहानी, जिसका अन्वान है नफरत और बदला - "दो दुश्मन" - किस तरह अंजाम को पहुंची? रुपरी परदे पर देखिये।
(From the official press booklet)