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Ek Nannhi Munni Ladki Thi (1970)

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  • Release Date1970
  • GenreDrama
  • FormatColour
  • LanguageHindi
  • Run Time136 min
  • Length3982.27 meters
  • Number of Reels16
  • Gauge35 mm
  • Censor RatingU
  • Censor Certificate Number61951
  • Certificate Date10/11/1970
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प्रिय पाठको,

मैं यह कहानी पागलों के अस्पताल से लिख रही हूँ। चाची और रघुबीर ने जबरदस्ती मुझे यहाँ भरती कर दिया है। मैंने रो रो कर चीख़ चीख़ कर कहा "मैं पागल नहीं हूँ" मैंने सचमुच भूत देखा है। वह बहुत डरावना था - हैबतनाक था - लेकिन मेरी आवाज़ सुनने के लिये इन दोनों ने अपना कान बहरे कर लिये।

मेरी बदनसीबी की दास्तान मेरे पैदा होते ही शुरू हो गई थी जब माँ मरी; और पाँच साल की हुई तो पिताजी भी छोड़ कर चले गये। न मैंेने माँ की ममता देखी, न बाप का प्यार।

सुना है पिताजी ने म्यूजियम से भगवान विष्णू की एक मूर्ती चुराई थी। यक़ीन नहीं आता भला एक इज्जतदार शरीफ और अमीर आदमी एक मूर्ती क्यों चुरायेगा। शायद इसमें भी कोई राज़ होगा क्योंकि मेरे पिताजी जिद्दी बहुत थे। मुझे इतना याद है कि जब मेरी पाँचवी वर्ष गाँठ का जश्न मनाया जा रहा था, मेहमान भरे हुये थे, तो पुलिस पिताजी को गिरफतार करने आई थी। मैं उस समय बहुत रोई और शायद ख़ान चाचा से मेरा रोना नहीं देखा गया तभी तो उन्होंने अपनी जान की पर्वाह न करके पिताजी को दूसरी गाड़ी में बिठा लिया और एक पुलिस अधिकारी को कुचलते हुये जाने कहां भाग गये। बाद में पुलिस ने बताया कि उनकी गाड़ी का एक्सीडैन्ट हो गया और वह दोनों मर गये। किन्तु सत्रह वर्ष बीत जाने के बाद भी मेरा मन नहीं मानता कि यह सच है। ऐसा लगता है कि पिताजी और ख़ान चाचा ज़िन्दा है और मैं एक न एक दिन उनसे अवश्य मिलूँगी।

पिताजी के बिछड़ जाने के बाद उनकी वसीयत के अनुसार मेरी परवरिश की जिम्मेदारियाँ रंजीत अंकल ने संभाल लीं।

अंकल ने मुझे बहुत लाड प्यार से पाला लेकिन चाची और रघुवीर ने हमेशा मुझ से दुश्मनो जैसा बर्ताव किया। एक दिन तो रघुबीर ने मेरी इज्ज़त लूटने की भी कोशिश की; मगर भगवान ने मेरी मदद के लिये डाक्टर संदेव को भेज दिया। मैं संदेव, उनकी मानवता और उनके स्वाभाव से इतनी प्रभावित हुई कि उन्हें प्यार करने लगी।

मैं बहुत ख़ुश थी कि अचानक एक रात मेरे कमरे में भूत आ गया। जी हाँ, वह भूत ही था। उसने मुझे पकड़ने की कोशिश की। मैं मदद के लिये चीख़ी-चिल्लाई; शोर मचाया; लेकिन मेरी आवाज़ कमरे के बंद दर्वाजों से टकरा कर लौट आई। फिर क्या हुआ मुझे मालूम। होश आने पर अपने को यहाँ अस्पताल में पाया और डाक्टर को यह कहते सुना कि "मैं पागल हूँ।" मैंने इस बात को झुठलाने की जितनी भी कोशिश की, मुझ पर उतनी ही सखतियाँ बढ़ गयीं। डाक्टर ने मुझे मारा। शाक ट्रीटमेन्ट दिया और कमरे के हर खिड़की दर्वाजे पर बार बार उसी भयानक भूत का चेहरा मेरे सामने आया। यह सब कुछ क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, मेरी समझ में नहीं आ रहा। मैं तो यहाँ क़ैद हो गई हूँ। लेकिन मैंने भी फैसला कर लिया है कि आज इस क़ैद को तोड़ दूँगी। यहाँ से भाग जाऊँगी अपने संदेव के पास, हमेशा के लिये।

मैं अस्पताल से किस तरह भागी, संदेव तक कैसे पहुँची, वहाँ तकदीर ने हमारे साथ कैसा मज़ाक किया, वह दो अजनबी, जिन्होंने हम पर जुल्मों सितम के पहाड़ तोड़े, वे कौर थे? वह मेरे पिताजी थे, खान चाचा थे, जो मुझे न पहचान सके - जिन्हें मैं न पहचान सकी।

मैं हूँ आपकी
कमल
(मुमताज़)

(From the official press booklet)

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