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राज कपूर की कला यात्राः 'आग' से 'श्री 420' तक

20 Nov, 2021 | K K Talkies by K K Sharma
Raj Kapoor. Image from the article.

हिन्दी सिनेमा की अविस्मरणीय फिल्मों के पुनरावलोकन श्रृंखला के अंतर्गत उसी क्रम में ये अगली कढ़ी है। यह लेख मैं दो भागों में लिख रहा हूं। पहले भाग में 'आग' से 'आवारा' तक की चर्चा करूंगा और लेख का दूसरा भाग मुख्य रूप से 'श्री 420' और उसके अविस्मरणीय दृश्यों पर एकाग्र होगा। दरहसल ’आग ’ की असफलता और 'बरसात' एवं 'आवारा ' की बेशुमार सफलता की आधारभूमि पर ही 'श्री 420' जैसी सर्वांग सुन्दर फिल्म का शिलान्यास हुआ था, इसलिए इन महत्वपूर्ण फिल्मों पर चर्चा करना भी लाजिमी ही है।

आजादी के बाद हिन्दी सिनेमा के रंगीन तिलिस्म की जो भी यशोगाथा रची गई, राज कपूर जी उसका महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। सच पूछिए तो राज कपूर को केन्द्र में रख कर आजादी के बाद के सम्पूर्ण हिन्दी सिनेमा के विकास पर नजर दौड़ाई जा सकती है। एक ऐसे दौर में जब व्ही. शांताराम, महबूब खान, सोहराब मोदी, नितिन बोस, विमल राय, केदार शर्मा, विजय भट्ट, ए.आर. करदार और एस.यू. सन्नी जैसे दिग्गज फिल्मकारों की पतंग आकाश पर चढ़ी हुई थी। न्यू थिएटर्स और बाम्बे टाकीज जैसी बड़ी फिल्म कम्पनियां टूट चुकी थी और जो बची थी वो टूटने के कगार पर थी। किसी कम्पनी के साथ अनुबंध अथवा मासिक वेतन पर काम करने का सिस्टम पूरी तरह टूट चुका था और अब कलाकार ही नहीं टेक्नीशियन भी स्वतंत्र रूप से कार्य करने लगे थे। बतौर अभिनेता अशोक कुमार, मोतीलाल, दिलीप कुमार और देवानंद अपनी अच्छी खासी लोकप्रिय स्थापित कर चुके थे। 
 

Raj Kapoor and Nargis in Aag (1948). Image from Cinemaazi archive.

ऐसे कठिन दौर में एक चैबीस साल से भी कम के युवक (राज कपूर) ने अपनी नई स्वतंत्र फिल्म निर्माण संस्था ’आर.के. फिल्म्स’ बनाई और अपनी पहली फिल्म 'आग' लेकर दाखिल हुआ। तीन प्रसंगों से युक्त यह फिल्म एक थिसएटर निर्माता के जीवन के विभिन्न मोड़ पर तीन महिला पात्रों से रागात्मक जुड़ाव को फ्लैश बैक से चित्रांकित करने वाली जीवनगाथा थी। जिस दौर में चिकने-चुपड़े हीरो का चलन था, उस दौर में फिल्म के पहले ही सीन में राज कपूर आग में बुरी तरह जले और वीभत्स चेहरे को लेकर पर्दे पर आए। इस चेहरे को देखकर नायक की दुल्हन (निगार सुल्ताना) बुरी तरह डर जाती है। यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि 'आग' की कहानी वास्तव में पृथ्वीराज के वास्तविक जीवन पर आधारित थी। उनके पिता दीवान बिशेश्वरनाथ  उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे और बेटे की रूची थिएटर की दुनिया में नाम कमाने की थी। कला में सौंदर्य बोध का अपना विशेष महत्व है। बस यही समझने में राज कपूर भूल कर गए और फिल्म की ऐसी कसैली शुरूवात के कारण फिल्म कुछ खास चली नहीं। जबकि इसमें तीन खूबसूरत हीरोइन नरगिस, कामिनी कौशल और निगार एक साथ काम करती थीं। फिल्म जो थोड़ी बहुत चली वो राज कपूर और नरगिस की खूबसूरत जोरी देखकर और उसके मधुर गीत संगीत को सुनकर जिसके कुछ गाने उन दिनों बहुत लोकप्रिय हुए। संगीतकार राम गांगुली ने मुकेश को पहली बार सहगल के प्रभाव से मुक्त करते हुए एक नए रूप में पेश किया। उनका एक गीत 'जिंदा हूं मैं इस तरह की गम-ए-जिंदगी नहीं' को बेहद पसंद किया गया। इसी तरह शमशाद बेगम का गाया 'काहे कोयल शोर मचाए रे, मुझे अपना कोई याद आए रे' भी काफी लोकप्रिय हुआ।

यह असफलता राज कपूर के हौसले को तोड़ने में कामयाब न हो सकीं बल्कि इस असफलता से उसने सबक सीखा कि कुछ नया करने के लिए सम्पूर्ण ताजगी चाहिए। और इसी विचार से जब उन्होंने अपनी अगली फिल्म ’बरसात ’ (1949) की योजना बनाई तो इसके लिए बिल्कुल एक नई टीम तैयार की जिसमें बतौर नायिका नरगिस, बतौर संगीतकार शंकर जयकिशन, बतौर गायक गायिका मुकेश और लता मंगेश्कर, बतौर गीतकार हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र, बतौर कहानी पटकथा लेखक के रूप में रामानंद सागर, बतौर सिनेमाटोग्राफर राधू करमाकर, बतौर कला निर्देशक एम.आर. आचरेकर, बातौर फिल्म एडिटर जी.जी. मायकर और बतौर साउंड रिकार्डिस्ट अलाउद्दीन को रखा। इस टीम ने ’आर.के. फिल्मस’ की शोहरत को किन बुलंदियों तक पहुंचाया उसकी कहानी पूरी दुनिया जानती है। आगे चलकर इस टीम में ख्वाजा अहमद अब्बास भी जुड़े। इनमें से सभी स्वतंत्र रूप से भी कार्य करते हुए भारतीय फिल्म उद्योग में अपनी अलग पहचान बनाई।
'बरसात' बनाने की घोषणा की तो लोगों ने 'आग' की असफलता के कारण ज्यादा नोटिस नहीं किया बल्कि कुछ ने तो यहां तक कह डाला कि पृथ्वी राज के बेटे का जो 'आग' में जलने से रह गया, वो बरसात में बह जाएगा। लेकिन कुछ कर गुजरने की ललक लिए राज कपूर ने लोगों की इन आलोचनाओं की परवाह किए बगैर एक साल के भीतर अपनी दूसरी फिल्म 'बरसात' लेकर आ गए।  'बरसात' के प्रदर्शन होते ही भारतीय सिनेमा में जैसे भूचाल से गया। उसकी बेशुमार लोकप्रियता ने आर.के. फिल्मस को बुलंदियों पर पहुंचा दिया।
राज कपूर ने जब अपनी नई टीम के साथ ’बरसात ’  बनाने की घोषणा की तो लोगों ने 'आग ' की असफलता के कारण ज्यादा नोटिस नहीं किया बल्कि कुछ ने तो यहां तक कह डाला कि पृथ्वी राज के बेटे का जो ’आग ’ में जलने से रह गया, वो 'बरसात ' में बह जाएगा। लेकिन कुछ कर गुजरने की ललक लिए राज कपूर ने लोगों की इन आलोचनाओं की परवाह किए बगैर एक साल के भीतर अपनी दूसरी फिल्म ’बरसात ’ लेकर आ गए।
 

Raj Kapoor and Nargis in Barsaat (1949). Image from Cinemaazi archive.

’बरसात ’  के प्रदर्शन होते ही भारतीय सिनेमा में जैसे भूचाल से गया। उसकी बेशुमार लोकप्रियता ने आर.के. फिल्मस को बुलंदियों पर पहुंचा दिया। उसके कलाकारों राज कपूर समेत प्रेमनाथ, नरगिस, निम्मी, संगीतकार शंकर जय किशन, गीतकार हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र, नए कहानी और पटकथा लेखक रामानंद सागर, तकनीशियन, करमाकर, आचरेकर, मायेकर, अलाउद्दीन सब रातों-रात लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गए। खासकर बरसात के गीत संगीत ने धूम मचा दी। उसके सभी गीत लोकप्रियता के मामले में देशकाल की सीमाओं को लांघ गए। लता के गाए गीत - ’बरसात’ में हमसे मिले तुम सजन, तुमसे मिले हम बरसात में’, ’हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मल मल का हो जी हो जी’, ’जिया बेकरार है छायी बहार है, आजा मोरे बालमा तेरा इंतजार है’, हो... मुझे किसी से प्यार हो गया’ और मुकेश के साथ गाया अन्य गीत ’छोड़ गए बालम मुझे हाय अकेला छोड़ गए ’  इसके अलावा रफी का गया दर्द भरा गीत ’मैं जिंदगी में हरदम रोता ही रहा हूं’ सबके सब गीत बच्चे बच्चे की जुबान पर चढ़ गए। एक फिल्म की सभी गीतों को मिली ऐसी बेशुमार लोकप्रियता का उदाहरण तब कोई दूसरा न था।

यहां उल्लेखनीय है कि बरसात के 11 गीतों में से सिर्फ दो गीत ’बरसात में हमसे मिले तुम सजन’  और ’पतली कमर है, तिरछी नजर है’  ही शैलेन्द्र के हिस्से में आए थे बाकि अधिकांश यानि 7 गीत हसरत जयपुरी ने लिखे थे। एक बेहद लोकप्रिय गीत जो फिल्म के शुरूआत में ही शमा बांध देता है वह हसरत ने नहीं बल्कि विस्मृत कर दिए गए गीतकार रमेश शास्त्री ने लिखा था और वो गीत था- ’हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का जी मोरा लाल दुपट्टा मलमल का हो जी हो जी ’ । इसके अलावा एक और बेहद लोकप्रिय गीत ’ओ मुझे किसी से प्यार हो गया’ गीत को एक अन्य भुला दिए गए जलाल मलीहाबादी ने लिखा था। इन दोनों गीतों का उल्लेख इसलिए किया कि सोशल साइट्स पर इन दोनों गीतों को भी हसरत जयपुरी का बताया गया है। इस फिल्म की अपार लोकप्रियता से राज कपूर ने एक सबक ये भी लिया कि फिल्म की लोकप्रियता में उसके गीत-संगीत का बहुत बड़ा हाथ होता है। यहां एक बात और उल्लेखनीय है कि ’बरसात’ सिर्फ अपने गीत संगीत के बलबूते पर ही सफल नहीं हुई बल्कि इस फिल्म में पहली बार एक ’प्रेम कथा’ को एक ऐसे नए रूप में प्रस्तुत किया जिसमें प्रेम को ’देवदास चरित्र’ से मुक्त उसे एक सामाजिक आधार दिया। एक ऐसा प्रेम, जो इंसान को बंधनों में बांधता नहीं बल्कि उसे मुक्त करता है, जीवन की सार्थकता और प्रेरणा का स्रोत बनता है।
’बरसात ’ से पहले बनी फिल्मों में नजर दौड़ाएं तो इसके पहले किसी भी नायक और नायिका के बीच प्रेम और भावनाओं का ऐसा उन्मादी तूफान किसी भी फिल्मों में नहीं देखा जा सकता है। मोहब्बत में डूबा हुआ, दीन-दुनिया से बेखबर, वायलिन पर दर्दीले राग छेड़ता हुआ नायक और उसी शिद्दत और रागात्मक भाव में डूबी बावरी होकर गायक की बांह में कटी डाली की तरह झूल जाने वाली नायिका का वह अविस्मरणीय दृश्य भला कौन भूल सकता है।
’बरसात ’ से पहले बनी फिल्मों में नजर दौड़ाएं तो इसके पहले किसी भी नायक और नायिका के बीच प्रेम और भावनाओं का ऐसा उन्मादी तूफान किसी भी फिल्मों में नहीं देखा जा सकता है। मोहब्बत में डूबा हुआ, दीन-दुनिया से बेखबर, वायलिन पर दर्दीले राग छेड़ता हुआ नायक और उसी शिद्दत और रागात्मक भाव में डूबी बावरी होकर गायक की बांह में कटी डाली की तरह झूल जाने वाली नायिका का वह अविस्मरणीय दृश्य भला कौन भूल सकता है। फिल्म का यह दृश्य आचरेकर ने अपने कैमरे में कैद किया और उसका मोहक स्टिल फोटोग्राफ जब राज कपूर के सामने टेबल पर रखा तो न केवल वो बल्कि आर.के. फिल्मस की पूरी टीम देखती रह गई। एक हाथ में वायलिन यानि संगीत और दूसरे हाथ में झूलती नरगिस यानि सौंदर्य। संगीत और सौंदर्य को ही राज कपूर अपनी फिल्म की आत्मा मानते थे और इस तरह यह मोहक मुद्रा ही ’आर के फिल्मस’ का ’प्रतिक चिन्ह’ बन गई। राज कपूर और नरगिस के प्रेम के उत्ताप से जन्मी एक अनोखी यादगार जिसके जादू में पूरी दुनिया जैसे बंध गई। लोग इस प्रतीक चिन्ह में अपने प्रेम की तस्वीर देखने लगे थे उन दिनों। आज 72 साल गुजर गए। प्रतीक चिन्ह के वे दोनों पात्र भी आज हमारे बीच नहीं हैं और इससे भी दुख पहुंचाने वाली बात है कि आज वो आर.के. स्टूडियो भी अपनी हस्ती से मिट चुका है जिसके मुख्य द्वार की शोभा यह प्रतीक चिन्ह हुआ करता था। कभी कभी ये सोच कर मन दर्प से भर उठता है कि जिस स्टूडियो ने हिन्दी सिनेमा को एक से बढ़कर एक यादगार फिल्में दी। जिसके प्रतीक चिन्ह में महलों से लेकर चालों में रहने वाले करोड़ों लोग प्यार में डूबे इन दो चेहरों में अपने प्यार का अक्स देखा करते थे, उसे हस्ती से ही मिटा देने का भला किसी को क्या हक बनता है।

’बरसात ’ फिल्म ने लोकप्रियता और बॉक्स ऑफिस पर बिजनेस के मामले में 1931-1947 में बने सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए थे। राज कपूर की ’आग’ पर फब्तियां कसने वाले भी उनके यशोगान में लग गए। बड़े दिग्गज भी दहशत में आ गए थे। उसी साल महबूब खान की ’अंदाज’ भी प्रदर्शित हुई थी जिसमें दिलीप कुमार और नरगिस के साथ राज कपूर भी थे। अनुभव, काबिलियत और प्रतिष्ठा के मामले में महबूब खान का नौसिखिए राज कपूर से कोई मुकाबला ही न था। ’अंदाज ’ ने तब लगातार 25 हफ्ते चलकर ’रजत जयंती ’ मनाई थी लेकिन ’बरसात’ ने ’स्वर्ण जयंती ’ नहीं लगातार 75 हफ्ते चलकर ’हीरक जयंती ’ मनाई थी 1950 में। इस भव्य समारोह में महबूब खान, केदार शर्मा, नितिन बोस, महेश कौल और वी. शांताराम जैसे पुराने दिग्गज खुद आए थे, पृथ्वीराज और उनके होनहार बेटे राज कपूर को बधाई देने। इतनी बड़ी सफलता किसी को भी भटका सकती थी लेकिन पृथ्वीराज के दिए संस्कारों ने 25 के युवा राज कपूर को इस सफलता को सहजता से पचाने में बड़ी मदद की। ’बरसात ’  के बाद पूरे दो साल लगाकर आगे जो कारनामा कर दिखाया उससे सिर्फ हिन्दुस्तान ही नहीं पूरी दुनियां हैरान रह गई।
 
’आवारा ’ ही वो फिल्म थी जिसने 27 साल के नौजवान राज कपूर को बतौर फिल्मकार और अभिनेता ऊंचाई पर पहुंचा दिया था जहां पहुंचने के लिए बड़े से बड़े फिल्मकार और अभिनेता सिर्फ कल्पना कर सकते हैं। इस फिल्म ने ही राज कपूर को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दी थी। लोग तो उस वक्त यहां तक कहते थे कि सोवियत रूस, चीन और दूसरे अन्य समाजवादी देशों में राज कपूर देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बाद दूसरे सबसे लोकप्रिय व्यक्ति है।
’आग ’ (1948) की असफलता और ’बरसात ’ (1949) की बेमिसाल सफलता से जन्मी थी ’आवारा ’ (1951), जिसे हिन्दी सिनेमा के इतिहास में एक मील के पत्थर के रूप में जाना जाता है।
 

Raj Kapoor and Nargis in Awaara (1951). Image from Cinemaazi archive.

’आवारा ’ ही वो फिल्म थी जिसने 27 साल के नौजवान राज कपूर को बतौर फिल्मकार और अभिनेता ऊंचाई पर पहुंचा दिया था जहां पहुंचने के लिए बड़े से बड़े फिल्मकार और अभिनेता सिर्फ कल्पना कर सकते हैं। इस फिल्म ने ही राज कपूर को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दी थी। लोग तो उस वक्त यहां तक कहते थे कि सोवियत रूस, चीन और दूसरे अन्य समाजवादी देशों में राज कपूर देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बाद दूसरे सबसे लोकप्रिय व्यक्ति है। यहां उल्लेखनीय है कि ’आवारा ’ के प्रदर्शन के कोई डेढ़ साल बाद बिमल रॉय की कालजयी फिल्म ’दो बीघा मजीन’ भी प्रदर्शित हुई थी। इसमें दो राय नहीं कि ’दो बीघा जमीन’ आवारा से कहीं अधिक यथार्थवादी और कलात्मक फिल्म थी। बलराज साहनी और निरूपा रॉय ने अपने जीवन का श्रेष्ठतम अभिनय किया है। बतौर निर्देशक बिमल रॉय का हिन्दी सिनेमा में कोई मुकाबला नहीं। ’आवारा ’ की तरह ’दो बीघा जमीन’ को भी देश-विदेश में ढेरों पुरस्कार मिले। यहां तक कि इन दोनों फिल्मों के निर्देशकों और प्रमुख कलाकारों को 1953 में मास्को में सम्मानित करने और इन फिल्मों के विशेष प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया गया। इस पर सबके बावजूद यह भी एक सच्चाई है कि जो लोकप्रियता व्यावसायिक सफलता ’आवारा ’ के हिस्से में आई वो ’दो बीघा जमीन’ को नहीं मिली। इसके लिए यहां अगर हम लोगों के कलात्मक बोध को जिम्मेदार मानते हैं तो मेरी समझ से ऐसा सोचना बिल्कुल गलत होगा। मेरी समझ से कला का कोई भी रूप जन-सामान्य से तभी जोड़ा जा सकता है, जब वह उसके हृदय को स्पर्श करें। यानि आपकी बात दिमाग तक दिल के जरिये ही पहुंचे। भावना की आंच में तपकर प्रखर और पुख्ता हुई दृष्टि ही बुद्धि को परिपक्व और सही निष्कर्षों तक ले जा सकती है। ’आवारा ’ का संदेश, दिल के रास्ते से होते हुए दिमाग तक पहुंचता है और यही उसकी लोकप्रियता का प्रमुख कारण भी बना। ’दो बीघा जमीन ’  का गीत-संगीत भी फिल्म की कथा का अनुरूप उच्च कोटि का था। इस फिल्म का संगीत तैयार किया था सलिल चैधरी ने और गीत लिखे थे शैलेन्द्र ने ही। इसके तीन गीत 1. धरती कहे पुकार के बीज बिछा ले प्यार के, मौसम बीता जाए,  2. हरियाला सावन ढोल बजाता आया,  3. आजा री आ, निंदिया तू आ, बेहद कर्णप्रिय थे और लोग आज भी इन गीतों को मंत्रमुग्ध होकर सुनते हैं। ’आवारा ’ का संगीत आर.के. फिल्मस के स्थायी संगीतकार शंकर जयकिशन ने ही तैयार किया था लेकिन गीत लेखन के मामले में बरसात  से आवारा  तक आते-आते राज कपूर को अब हसरत जयपुरी के मुकाबला शैलेन्द्र कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण नजर आने लगे थे। उनकी पारखी नजरों ने यह देख लिया था कि शैलेन्द्र ही उनकी फिल्मी इमेज और जीवनदर्शन को अपने गीतों के माध्यम से पर्दे पर उकेर सकते हैं। यही कारण था कि आवारा के 11 गीतों में से 7 गीत शैलेन्द्र के हिस्से में आए और बाकि 4 गीत हसरत जयपुरी के खाते में गए। हसरत जयपुरी के लिखे ये चारों गीत भी उन दिनों खूब लोकप्रिय हुए और लोग आज भी उन्हें सुनना पसंद करते हैं। ये गीत हैं- 1. जब से बलम घर आए, जियरा मचल मचल जाए   2. आ जाओं तड़पते हैं अरमान, अब रात गुजरने वाली है  3. इक बेवफा से प्यार किया, उससे नजर को चार किया  4. हम तुझसे मोहब्बत करके सनम, रोते भी रहे, हंसते भी रहे। इसी तरह शैलेन्द्र के भी लिखे सभी गीत बेहद लोकप्रिय हुए जैसे.  5. दम भर जो उधर मुंह फेरे, ओ चंदा आ, मैं उनसे प्यार कर लूंगा  6. घर आया मेरा परदेसी, प्यास बुझी मेरी अखियन की   7. तेरे बिना आग ये चांदनी आ जा   8. एक दो तीन आ जा मौसम है रंगीन, आदि।
 
’बरसात ’ फिल्म ने लोकप्रियता और बॉक्स ऑफिस पर बिजनेस के मामले में  1931-1947 में बने सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए थे। राज कपूर की ’आग ’ पर फब्तियां कसने वाले भी उनके यशोगान में लग गए। बड़े दिग्गज भी दहशत में आ गए थे।
 

Raj Kapoor and Nargis in Mera Naam Joker (1970). Image from Cinemaazi archive.

हालांकि इस बदलाव और फेरबदल के बावजूद हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र के आत्मीय रिश्तों में कभी कोई कमी नहीं आईं। शैलेन्द्र और साथ ही राज कपूर ने भी सदैव हसरत जयपुरी की वरिष्ठता का सम्मान किया। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खुद गीतकार होते हुए भी अब शैलेन्द्र ने ’तीसरी कसम’ (1966) बनाई तो उसमें दो गीत हसतर जयपुरी से भी लिखवाए थे और हसरत जयपुरी ने अपने अंतरंग मित्र से एक भी पैसा लिए बगैर अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ गीत ’दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई ’ लिखा था। दूसरा गीत जो ’तीसरी कसम’ के लिए हसरत ने लिखा था वह था- ’मारे गए गुलफाम, अजी हां मारे गए गुलफाम ’
 
शैलेन्द्र ने राज कपूर की फिल्मों के लिए एक से बढ़कर एक गीत लिखे हैं। गूढ़तम भावों को सरलतम शब्दों में अभिव्यक्त कर देने का जो कमाल उन्हें हासिल था, उसकी तुलना हिन्दी सिनेमा के किसी गीतकर से नहीं की जा सकती। ऐसे प्रतिभा के धनी गीतकार ने अपने जीवन का सबसे अप्रतिम गीत ’आवारा ’  के लिए लिखा था जो न केवल इस फिल्म का शीर्षक गीत था बल्कि उसमें फिल्मकार राज कपूर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व, उनके जीवनदर्शन का सारांश समाहित था। और वो अमर गीत था... आवारा हूं ! आवारा हूं...
शैलेन्द्र ने राज कपूर की फिल्मों के लिए एक से बढ़कर एक गीत लिखे हैं। गूढ़तम भावों को सरलतम शब्दों में अभिव्यक्त कर देने का जो कमाल उन्हें हासिल था, उसकी तुलना हिन्दी सिनेमा के किसी गीतकर से नहीं की जा सकती। ऐसे प्रतिभा के धनी गीतकार ने अपने जीवन का सबसे अप्रतिम गीत ’आवारा ’  के लिए लिखा था जो न केवल इस फिल्म का शीर्षक गीत था बल्कि उसमें फिल्मकार राज कपूर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व, उनके जीवनदर्शन का सारांश समाहित था। और वो अमर गीत था... आवारा हूं ! आवारा हूं...

इस गीत में शब्दों के साथ कहीं कोई खिलवाड़ नहीं किया गया। लेकिन फिर भी इसके एक एक बोल में ऐसी तीक्ष्ण संवेदना छिपी है, जो सीधे दिल की गहराइयों में उतर जाते हैं। अपनी सहजता के कारण इस गीत की लोकप्रियता देश-काल की सीमाओं को लांघ कर रूस, चीन और दूसरे समाजवादी देशों तक जा पहुंची थी। इस गीत की इन पंक्तियों पर गौर करें... जख्मों से भरा सीना है मेरा, हंसती है मगर ये मस्त नजर 

यही तो है राज कपूर की वास्तविक ’फिल्मी इमेज’ जो ’आवारा ’ से लेकर ’मेरा नाम जोकर’ तक फैली हुई है। इसी जीवन दर्शन पर आगे चलकर ऋषिकेश मुखर्जी ने अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ’आनंद’ बनाई थी। लोग अगर ’आनंद ’ फिल्म के टाइटल्स को गौर से देखेंगे तो शायद अब उन्हें समझ आ जाएगा कि ’ऋशिकेश मुखर्जी’ जैसे आला दर्जे के फिल्म निर्देशक ने अपनी यह लाजवाब फिल्म क्यों ’राज कपूर’ को समर्पित की थी।
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This article is from Krishna Kumar Sharma's K K Talkies Series. Some of the images in the article did not appear with the original and may not be reproduced without permission.

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